अलंकारों में अंतर – यमक और श्लेष,उपमा और उत्प्रेक्षा,संदेह तथा भ्रांतिमान अलंकार में अंतर

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अलंकारों में अंतर – यमक और श्लेष,उपमा और उत्प्रेक्षा,संदेह तथा भ्रांतिमान अलंकार में अंतर

अलंकारों में अंतर - यमक और श्लेष,उपमा और उत्प्रेक्षा,संदेह तथा भ्रांतिमान अलंकार में अंतर

यमक और श्लेष अलंकार में अंतर

यमक अलंकार में एक शब्द दो बार आता है किंतु दोनों जगह भिन्न-भिन्न अर्थ देता है। जबकि श्लेष में एक ही शब्द एक साथ दो अलग-अलग अर्थ देता है।
उदाहरणतः – काली घटा का घमंड घटा
यहाँ ‘घटा’ शब्द दो बार आया है। पहली बार ‘बादलों के समूह’ के लिए। दूसरी बार ‘कम होने’ के लिए। यहाँ यमक है। दूसरा उदाहरण- घटा से अँधेरा छा जाता है। यहाँ ‘घटा’ के दो अर्थ हैं- बादलों का समूह’ तथा ‘कम होना’। एक ही शब्द से दो अर्थ ध्वनित होने के कारण यहाँ श्लेष है।

उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार में अंतर

उपमा में उपमेय और उपमान की समानता दिखाई जाती है। जैसे-
सीता-मुख चंद्रमा के समान सुंदर है।

उत्प्रेक्षा में उपमेय में उपमान की संभावना दिखाई जाती है। जैसे-
सीता का मुख मानो चंद्रमा है।

उपमा और रूपक अलंकार में अन्तर

| उपमा अलंकार में किसी बात को लेकर उपमेय एवं उपमान में
समानता बतलाई जाती है जबकि रूपक में उपमेय उपमान का
अभेद आरोप किया जाता है; जैसे-
उपमा – पीपर पात सरिस मन डोला।
रूपक – चरण कमल बन्दौं हरि राई।

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वक्रोक्ति और श्लेष अलंकार में अंतर

वक्रोक्ति और श्लेष दोनों में अर्थ का चमत्कार दिखाया जाता है। श्लेष में |
चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ हैं, जबकि वक्रोक्ति में यह
चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है।

प्रतिवस्तूपमा और दृष्टान्त अलंकार में अन्तर

प्रतिवस्तूपमा में समान धर्म एक ही रहता है, जिसे दो भित्र शब्दों
के प्रयोग से कहा जाता है; किन्तु दृष्टान्त में समानधर्म दो होते |
है, जो दो शब्दों के प्रयोग से कहे जाते है।
प्रतिवस्तूपमा के दोनों वाक्यों में एक ही बात रहती है, जिसे दो
वाक्यों द्वारा कहा जाता है। दृष्टान्त में एक वाक्य का धर्म दूसरे |
में एक समान नहीं होता।

संदेह तथा भ्रांतिमान अलंकार में अंतर

संदेह में अंत-अंत तक निर्णय नहीं हो पाता है, जबकि भ्रांतिमान
निर्णीत समझ का कथन होता है। साँप या रस्सी का संदेह संदेह
अलंकार है, जबकि रस्सी को साँप समझ लेना भ्रांतिमान है।

छेकानुप्रास और वृत्यानुप्रास अलंकार में अन्तर

छेकानुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः
आवृत्ति होती है। इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की
आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं। यदि अनेक
व्यंजनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी है, तो एक बार
नहीं, अनेक बार भी हो सकती है।

लाटानुप्रास – जहाँ एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी
अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ लाटानुप्रास
होता है।
जैसे- पूत सपूत तो क्यों धन संचिय?
        पूत कपूत तो क्यों धन संचिय?

उपर्युक्त पद में कई शब्द दो बार आये हैं- पूत, तो क्यों, धन संचिय। प्रथम बार सबाक अन्वय सपूत के साथ है और दूसरी बार कपूत के साथ।

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दृष्टांत और उदाहरण अलंकार में अंतर

उदाहरण अलंकार के दोनों वाक्यों का साधारण धर्म तो भिन्न रहता है, किन्तु वाचक शब्द (जस, जैसे, ज्यों) के द्वारा उनमें समानता प्रकट की जाती है, वहीं दृष्टान्त अलंकार के दोनों वाक्यों में विश्व प्रतिम्बिब का भाव रहता है और कोई वाचक शब्द नहीं होता ।





                          ★★★ निवेदन ★★★

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