चरित्र निर्माण में साहित्य का योगदान पर निबंध / essay on contribution of literature in character building in hindi

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चरित्र निर्माण में साहित्य का योगदान पर निबंध / essay on contribution of literature in character building in hindi

चरित्र निर्माण में साहित्य का योगदान पर निबंध / essay on contribution of literature in character building in hindi

रूपरेखा (1) प्रस्तावना, (2) स्वरूप, (3) चरित्र निर्माण में साहित्य की भूमिका (4) उपसंहार।

प्रस्तावना-

मानव जीवन और समाज की जो महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है, वह साहित्य है। बनावट के अनुसार जब हम ‘साहित्य’ शब्द पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि जिस रचना में ‘सह’ और ‘हित’ का भाव हो उसे ही साहित्य कहा जाता है। ‘सह’ का अर्थ साथ और ‘हित’ का भलाई हुआ करता है। इस प्रकार मानव समाज के हित की साधना को अपने साथ रख कर आत्मा और शरीर निर्माण करने वाली रचना साहित्य कही जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि मानव-चरित्र, व्यक्तित्व और व्यावहारिक जीवन के निर्माण में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान रहता है।

स्वरूप-

साहित्य लिखित रचनाओं को माना जाता है। लिखित रचनाएँ दो तरह की होती हैं। एक तो वे जो हमारी जानकारियों और ज्ञान में वृद्धि करती हैं। जीवन में काम आने वाली बातों को सिखाती हैं। ऐसी रचनाओं को उपयोगी या ज्ञान का साहित्य कहा जाता है। दूसरी रचनाएँ मुख्य रूप से हमारी भावनाओं को जगाकर मनोरंजक ढंग से हमारी चेतनाओं को सजग-स्फूर्त बनाए रख हमारे साहस और उत्साह को बढ़ाया करती हैं ताकि हम जीवन में अच्छे कार्य करके अपने साथ-साथ घर, परिवार और देश को उन्नत बना सकें। इस प्रकार की रचनाओं को ललित साहित्य कहा जाता है।

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स्पष्ट है कि साहित्य के उपयोगी और ललित दोनों रूपों का सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति और उसके चरित्र से सम्बन्धित है। इनसे प्रेरणा पाकर व्यक्ति अपनी कमियों और दुर्बलताओं को दूर कर आन्तरिक और बाह्य दोनों दृष्टियों से दृढ़ और पुष्ट हो सकता है। आन्तरिक रूप से दृढ़ और पुष्ट होने का वास्तविक अर्थ चरित्र की दृढ़ता और पुष्टता ही है, जबकि बाह्य रूप से पुष्ट होने का अर्थ शरीर की सबलता और दृढ़ता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास हुआ करता है, स्वस्थ मन में अच्छे विचार उत्पन्न होते हैं। अच्छे विचारों से चरित्र निर्माण होता है। कहने का तात्पर्य है कि यह सम्पूर्ण साहित्यिक क्रिया-प्रक्रिया व्यक्ति और समाज के चरित्र-निर्माण में स्पष्ट योगदान करने वाली है।

चरित्र निर्माण में साहित्य की भूमिका–

विद्वानों ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है। इस साहित्य रूपी दर्पण के सामने जा कर व्यक्ति को अपने चरित्र के अच्छे-बुरे सभी रूप स्पष्टतया सामने आ जाते हैं। जैसे दर्पण में अपना चेहरा देखकर अपनी सुन्दरता-कुरूपता, दुर्बलता-कमजोरी का सहज ही अनुमान हो जाता है, उसी प्रकार अच्छा साहित्य पढ़कर व्यक्ति अपने चरित्र की जानकारी कर सकता है। जैसे दर्पण में देखकर चेहरे के दाग मिटाये जा सकते हैं। उसी प्रकार सत्साहित्य पढ़कर अपने चरित्र के दाग मिटाये जा सकते है।

ध्यान रखने की बात यह है कि जिस प्रकार गंन्दे पानी में नहाने से, बासी और सड़ा-गला भोजन करने से शरीर रोगी हो जाता है, उसी प्रकार अश्लील और गन्दा साहित्य पढ़ने से मन-मस्तिष्क में गन्दे विचार उत्पन्न होते हैं, फलस्वरूप व्यक्ति दुराचरण की ओर प्रवृत्त होता है और व्यक्ति का चारित्रिक पतन हो जाता है। उत्तम चरित्र निर्माण में वही साहित्य अपना योगदान कर सकता है, जो कि अपने अन्तः बाह्य स्वरूप विधान में अच्छी और स्वस्थ भावनाओं पर आधारित हो। इसलिए अच्छे साहित्य का अध्ययन करना चाहिए।

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उपसंहार-

मानव जीवन विभिन्न प्रकार की समस्याओं से घिरा रहता है। अच्छा साहित्य अच्छे लोगों के विचारों, अनुभवों एवं जीवन की वास्तविकता को प्रस्तुत करने वाला होता है। इस कारण उपस्थित समस्याओं का समाधान पाकर चिन्ता, ग्लानि से तो बच ही सकते हैं, अपनी चारित्रिक दृढ़ता भी बनाये रख सकते हैं। स्वतन्त्रता संघर्ष के समय हमारे स्वतन्त्रता सेनानी जिस प्रकार का साहित्य पढ़ा करते थे, जिस प्रकार के साहित्यिक गीत गुनगुनाया करते थे, उनसे उन्हें कितनी प्रेरणा मिला करती थी। उस प्रेरणा से उनका चारित्रिक बल इस सीमा तक बढ़ गया था कि वे अंग्रेज सरकार के अत्याचार तो सह ही लेते थे, साथ ही हँसते हुए फाँसी का फंदा अपने गले में डाल लिया करते थे। इसलिए हमेशा याद रखना चाहिए कि चरित्र निर्माण के लिए अच्छे साहित्य के अध्ययन करने की आदत डालनी चाहिए।

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