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भारतीय वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई पर निबंध / essay on Maharani Lakshmi Bai in hindi
रूपरेखा (1) प्रस्तावना, (2) जन्म और प्रारम्भिक जीवन, (3) विवाह, (4) स्वतन्त्रता संग्राम, (5) उपसंहार ।
प्रस्तावना-
भारतवर्ष त्याग और बलिदान की भूमि है। यहाँ जितना त्याग पुरुषों ने किया, उतना ही किसी न किसी रूप में नारियों ने भी किया। नारियों में से एक नाम झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का है, जिसने स्वयं रण-भूमि में स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर हँसते-हँसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। स्वतन्त्रता संग्राम का प्रारम्भ झाँसी की रानी के कर कमलों से हुआ था। भारतीयों के लिए उनका जीवन आदर्श है।
जन्म और प्रारम्भिक जीवन-
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म 13 नवम्बर, 1835 को वाराणसी में हुआ था। आपके पिता का नाम मोरोपन्त और माता का नाम भागीरथी देवी था। लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनुबाई था। धर्म-परायण माता भागीरथी से मनुबाई को विभिन्न प्रकार की धार्मिक, सांस्कृतिक और वीरतापूर्ण गाथाएँ सुनने को मिलीं। इससे बालिका मनु का मन विभिन्न प्रकार उच्च, महान् और उज्ज्वल गुणों से परिपुष्ट होता गया। जब मनु केवल 6 वर्ष की थी तो उनकी माता भागीरथी का स्वर्गवास हो गया। इसलिए मनु के लालन-पालन का कार्यभार बाजीराव पेशवा के संरक्षण में सम्पन्न हुआ। मनु बाजीराव पेशवा के पुत्र नाना साहब के साथ खेली थी। मनु बचपन से ही मर्दाने खेलों में अभिरुचि लेती थी। तीर चलाना, घुड़सवारी करना और बर्छे-भाले चलाना उसके प्रिय खेल थे। मनु अपनी प्रतिभा और मेधावी शक्ति के कारण यथाशीघ्र ही शस्त्र और शास्त्र दोनों ही विद्याओं में निपुण और कुशल हो गयी ।
विवाह-
बड़े होने पर उसका विवाह सन् 1847 में झाँसी के अन्तिम पेशवा राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। अब मनुबाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हो गईं। कुछ दिनों बाद आपको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। आपका दुर्भाग्य ही था कि वह शिश तीन माह का होते-होते चल बसा। पुत्र वियोग में गंगाधर राव बीमार पड़ गये, तब उन्होंने दामोदर राव को गोद रख लिया। कुछ समय बाद राजा गंगाधर राव भी स्वर्ग सिधार गये। यहाँ भी लक्ष्मीबाई का दुर्भाग्य आ पहुंचा। उस समय के शासक गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने दामोदर राव को झाँसी के राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया।
स्वतन्त्रता संग्राम-
सन् 1857 में अंग्रेजी दासता से मुक्ति पाने की प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की नींव महारानी लक्ष्मीबाई ने ही डाली थी। स्वतन्त्रता की यह आग पूरे देश में फैल गयी। इसी समय एक अंग्रेज सेनापति ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। महारानी लक्ष्मीबाई ने ईंट का जबाव पत्थर से देने के लिए। युद्ध की घोषणा कर दी। महारानी के प्रयास से अंग्रेजों के पैर लड़खड़ाने लगे। अंग्रेज सैनिकों ने जब झाँसी के महल में आग लगा दी, तब महारानी ने कालपी जाकर पेशवा से मिलने का निश्चय किया।
जैसे ही महारानी ने प्रस्थान किया, अंग्रेज सैनिक उनके पीछे लग गये। मार्ग में कई बार महारानी का मुकाबला अंग्रेजों से हुआ। कालपी से लगभग 250 वीर सैनिकों को लेकर महारानी ने अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये। लेकिन अंग्रेजों की बढ़ी सेना का मुकाबला महारानी देर तक नहीं कर पाईं। इसलिए अब वे ग्वालियर की ओर सहायता की आशा से गईं, लेकिन अंग्रेजों ने महारानी का यहाँ भी पीछा किया। इन्होंने ग्वालियर के किले को घेर लिया। घमासान युद्ध हुआ। महारानी लक्ष्मीबाई के बहुत से सैनिक मारे गये।
पराजय को देखकर घोड़े पर बैठकर तथा अपनी पीठ पर बालक दामोदर राव को बाँधकर वे मोर्चे से बाहर निकल गईं। मार्ग में पड़े नाले को पार करने में असमर्थ रानी का घोड़ा वहीं अड़ गया। पीछे से अंग्रेज सैनिक आ गये। महारानी ने अद्भुत और अदम्य साहस से अन्तिम साँस तक युद्ध किया और अन्त में स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अपने को न्यौछावर कर दिया।
उपसंहार –
महारानी लक्ष्मीबाई का शौर्य, तेज और देशभक्ति अमर हो गयी। महान् कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान की ये काव्य-पंक्तियाँ आज भी लोग गर्व और स्वाभिमान से गाते हैं-
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी ।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी ।
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◆◆◆ निवेदन ◆◆◆
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