रस के भाग – अनुभाव, विभाव, संचारी भाव,स्थायी भाव का विस्तारपूर्वक वर्णन

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रस के भाग – अनुभाव, विभाव, संचारी भाव,स्थायी भाव का विस्तारपूर्वक वर्णन

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रस की परिभाषा / रस किसे कहते हैं

किसी काव्य (कविता) को पढ़ने या सुनने से पाठक या श्रोता को जो आनन्द की अनुभूति होती है, वह रस कहलाता है। रस को काव्य की आत्मा / प्राण तत्व माना जाता है। भरत मुनि ने कहा है विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रस निष्पत्तिः । स्थायी भाव अनुकूल परिवेश पाकर मन में जाग्रत होता है और विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भावों की संगति से पुष्टि प्राप्त करता हुआ रसरूप में परिणत हो जाता है। जिस प्रकार भोजन में जीभ के माध्यम से खट्टा, मीठा, तीखा आदि स्वादों का अनुभव होता है और आस्वाद अनुभूति को रस कहते हैं, वैसे ही साहित्य को पढ़ने या देखने से मन की जो आस्वादमय अनुभूति होती है उसे ही रस कहा जाता है।

रस के चार अवयव या अंग है-

(1) आश्रय
(2) विभाव
(3) अनुभाव
(4) भाव
(a) संचारी / व्याभिचारी भाव
(b) स्थायी भाव |

(1) आश्रय

जिसके मन में स्थायी भाव जाग्रत होता है, उसे आश्रय कहते हैं;
जैसे- राम, यशोदा आदि।

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(2) विभाव

विभाव का शाब्दिक अर्थ है कारण। अर्थात् स्थायी भावों को जागृत करने वाले कारण विभाव कहलाते है। वह पदार्थ अथवा बाह्य विकार जो एक व्यक्ति से अन्य व्यक्ति के हृदय में उद्बोधक के कारण उत्पन्न होता है, वह विभाव कहलाता है। विभाव दो प्रकार के होते हैं –

(1) आलम्बन विभाव
(2) उद्दीपन विभाव

आलम्बन विभाव : जिस व्यक्ति या वस्तु के कारण मन में कोई स्थायी भाव जाग्रत होता है, तो वह व्यक्ति या वस्तु उस भाव का आलंबन विभाव कहलाता है; जैसे- रास्ते में चलते समय अचानक बड़ा-सा साँप दिखाई देने से भय नामक स्थायी भाव जगाने से साँप आलंबन विभाव होगा।

उद्दीपन विभाव : जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव जाग्रत होता है, वह उद्दीपन विभाव कहलाता है। अर्थात् आलम्बन की वे क्रियाएँ जिनके कारण रस की उत्पत्ति होती है, उद्दीपन क्रियाएँ होती है। इसमें प्रकृति की क्रियाएँ भी शामिल हैं; जैसे- ठंडी हवा का चलना, चाँदनी रात का होना, कृष्ण का घुटनों के बल चलना। नायक के अंदर यदि, श्रृंगार रस के स्थायी भाव रति का संचार हुआ है तो एकांकी परिवेश, नदी का किनारा, खिले फूल, मंद हवा आदि उद्दीपन विभाव होंगे। नायिक के कटाक्ष, आभूषण, केश सज्जा आदि भी उद्दीपन हैं।

(3) अनुभाव

उत्पन्न होने वाले भाव की सूचना देनेवाले आंगिक विकारों को अनुभाव कहा जाता है। ओठों का फड़कना, आँखों का लाल होना और भृकुटी का तन जाना रौद्र रस के अनुभाव हैं, क्योंकि ये सूचित करते हैं कि आश्रय के अंदर क्रोध नामक स्थायी भाव का उदय हो चुका है। उस आश्रय को यदि अपनों का समर्थन, आलंबन (विपक्षी) की कटु बातें और किसी सबल के ललकार रूपी उद्दीपन, जो उसके उदित भाव को उद्दीप्त कर दें तो थोड़ी-बहुत दुविधा, भय, दया आदि संचारी भावों से गुजरता हुआ वह रस-रूप से निष्पन्न हो जाएगा।

अनुभाव दो प्रकार के होते हैं-
कायिक अनुभाव
सात्विक अनुभाव

कायिक अनुभाव : वे विकार व चेष्टाएँ जो शरीर के अंगों के व्यवहार के रूप में प्रकट होती हैं, कायिक अनुभाव कहलाते हैं; जैसे- क्रोध में भला-बुरा बोलना।

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सात्विक अनुभाव : जो चेष्टाएँ स्वाभाविक रूप से स्वतः उत्पन्न हो जाती है, उन्हें सात्विक भाव कहा जाता है। सात्विक अनुभाव 8 प्रकार के होते हैं – स्तम्भ, कम्प, स्वर-भंग, वैवर्ण्य, अश्रु, प्रलय, स्वेद, रोमांच । सात्विक अनुभाव एवं उनकी विशेषताएँ

सात्विक अनुभाव                       विशेषताएँ

1. स्तम्भ –                  प्रसन्नता, लज्जा आदि कारणों से शरीर
                                  की गति का रुक जाना।

2. कम्प –                  हर्षातिरेक, काम, भय आदि कारणों से।
                                शरीर का काँप जाना।

3. स्वर –                  भंग हर्षाधिक्य, शोक, भय मद आदि कारणों
                               से मुख की स्वाभाविक गति से वचनों
                               का न निकलना ।

4. वैवर्ण्य –                  भय, शोक, काम, शंकादि कारणों से
                                  शरीर का रंग उड़ जाना, पीला पड़ जाना।

5. अश्रु –                  आनन्दातिरेक, शोकादि कारणों से आँखों
                                में पानी भर आना।

6. प्रलय –                  विरह-जन्यदुःख, भय अथवा शोक के
                                  कारण इन्द्रियों का चेतना-शून्य हो जाना।

7. स्वेद –                  भय, लज्जा, प्रेम आदि के कारण शरीर
                                पर पसीना आ जाना।

8. रोमांच –                  काम, हर्ष, भय आदि के कारण रोंगटे
                                    खड़े हो जाना।

नोट : नौवां सात्विक अनुभाव के रूप में जृम्भा (जमुहाई) को माना
गया है, जिसे तनसंचारी भाव भी कहा जाता है।

(4) स्थायी भाव

देखिए स्थायी भाव उन भावों को कहा जाता है, जो संस्कार रूप में हर किसी के मन में सदा स्थित रहते हैं। सुषुप्तावस्था में स्थित वे भाव ही अनुकूल आलंबन और परिवेश पाकर जाग्रत होते हैं और अंततः रसनिष्पत्ति तक पहुँचते हैं। इनकी निश्चित संख्या नौ बताई गई है। रति के ही अन्य दो रूप वात्सल्य और भक्ति को भी परिवर्ती विद्वानों ने स्वतंत्र रस मान इसके भी दो स्थायी भाव स्वीकार कर लिए हैं। यानी स्थायी भाव कुल ग्यारह हैं और इनसे ही निष्पन्न रस भी कुल ग्यारह होते हैं।

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स्थायी भाव                       रस

रति                               श्रृंगार रस
शोक                              करुण रस
क्रोध                               रौद्र रस 
जुगुप्सा                           वीभत्स रस
निर्वेद(वैराग्य)                     शांत रस
ईश्वर                               भक्ति रस
हास                               हास्य रस
उत्साह                             वीर रस
भय                                भयानक रस
विस्मय                            अद्भुत रस
संतान                             वात्सल्य रस

(5) संचारी भाव या व्याभिचारी भाव

आलंबन के प्रति आश्रय के अंदर जाग्रत भाव उद्दाप्त होता हुआ रस निष्पत्ति तक पहुँचता है। इस अंतरात में चिंता, ग्लानि, विरक्ति,दीनता, आलस्य, मोह, लज्जा आदि छोटे-छोटे भाव आते-जाते रहते हैं। चूँकि ये स्थायित्व प्राप्त नहीं कर पाते इसलिए इन्हें संचारी (संचरण करने वाला) या व्याभिचारी भाव कहते हैं।

संचारी भाव के प्रकार

1.हर्ष                   2.विषाद                 3.त्रास ( भय)
4.लज्जा               5.ग्लानि                  6. चिंता
7.शंका                 8.अनसूया               9. अमर्ष
10. मोह              11. गर्व                  12. उत्सुकता
13. उग्रता            14. चपलता             15. दीनता
16. जड़ता           17. आवेग                18. निवेद
19. धृति              20. मति                  21. बिवोध
22. वितर्क            23. श्रम                  24. आलस्य
25. निद्रा             26. स्वप्न                  27. स्मृति
28. मद               29. उन्माद               30. अपस्मार (मूर्च्छा)
31. अवहित्था         32. व्याधि (रोग)       33. मरण

रस के प्रकार

1.हास्य रस           2.भयानक रस      3.अद्भुत रस
4.करुण रस         5.वीर रस           6.वीभत्स रस
7.शांत रस           8.रौद्र रस           9.श्रृंगार रस

नोट : भरत मुनि ने 8 ही रस माने हैं। शान्त-रस नवाँ रस माना गया है। दसवें, ग्यारहवें रस के रूप में क्रमशः वात्सल्य रस तथा भक्ति रस माना जाता है।




                          ★★★ निवेदन ★★★

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