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हमारी राष्ट्र भाषा अथवा राष्ट्र भाषा के रूप में हिन्दी पर निबंध / essay on Hindi language in hindi
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) संवैधानिक स्थिति, (3) वर्तमान स्थिति,(4) प्रयास, (5) उपसंहार ।
प्रस्तावना-
प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र की अपनी एक भाषा अवश्य होती है। राष्ट्रीय स्तर पर देश के प्रत्येक नागरिक को यह अवश्य पढ़ाई जाती है। विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम भी यही भाषा होती है, जिसे राष्ट्र भाषा कहा जाता है। सरकार का प्रत्येक कार्यालय, प्रत्येक संस्था और संस्थान अपना सभी कार्य राष्ट्र भाषा में ही करता है। इससे गौरव और आत्म-सम्मान का अनुभव होता है। सरकार के देखा-देखी आम नागरिक भी अपने सभी कार्य उसी भाषा में करते हैं। उसी में साहित्य की रचना होती है। ऐसी भाषाएँ स्वतः ही समृद्ध और उन्नत जाया करती हैं।
संवैधानिक स्थिति-
भारत में स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस पार्टी ने बहुमत से निर्णय कर लिया था कि स्वतन्त्र भारत का काम-काज चलाने वाली व्यावहारिक राज्य भाषा और राष्ट्र भाषा हिन्दी होगी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सन् 1950 में जब देश का अपना संविधान लागू हुआ, भारत को गणतन्त्र घोषित किया गया, तब संवैधानिक स्तर पर हिन्दी को स्वतन्त्र भारतीय गणतन्त्र की राष्ट्र भाषा और राज्य भाषा या सम्पर्क भाषा के रूप में घोषित किया गया। परन्तु प्रश्न उठता है कि इतना सब होने के बाद भी हिन्दी भाषा क्या अपना घोषित पद प्राप्त कर सकी है ? उत्तर है नहीं, अभी तक तो नहीं प्राप्त कर सकी है। वर्तमान स्थिति इस प्रकार के योग्य, सम्पन्न और उन्नत साहित्यिक परम्पराओं वाली होते हुए भी हिन्दी अपना घोषित पद क्यों प्राप्त नहीं कर सकी? इसके कई कारण हैं।
मुख्य कारण तो यह है कि जिस दिन से संविधान लागू हुआ, उसी दिन से राष्ट्र भाषा हिन्दी को लागू कर दिया और सन् 1965 तक की अवधि निश्चित कर दी गई कि तब तक तकनीकी शब्दावली आदि की तैयारी कर ली जाय, दूसरे विशेषकर दक्षिणी राज्य भी हिन्दी को राष्ट्र एवं राज्य भाषा घोषित करने को तैयार हो जायँ, तब तक अंग्रेजी ही काम काज की भाषा बनी रहेगी।
यही वह पहली गलती थी, जिसके कारण स्वतन्त्रता प्राप्त किये हुए पचास से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी राष्ट्र भाषा के रूप में हिन्दी जहाँ की तहाँ खड़ी नहीं रही, बल्कि उससे भी कहीं अधिक पिछड़ चुकी है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के तत्काल बाद हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने का जो उत्साह था, वह इस घोषणा के बाद दो-तीन वर्षों में स्वतः ही समाप्त हो गया। उसके स्थान पर महानगर तो क्या कस्बों और गाँवों तक अंग्रेजी का वर्चस्व, पढ़ने-पढ़ाने का उत्साह बढ़ने लगा, आज भी निरन्तर बढ़ रहा है। कुकरमुत्तों की तरह उगे अंग्रेजी पढ़ाने वाले स्कूल इसके साक्षात प्रमाण हैं।
प्रयास-
इस बीच राष्ट्र भाषा के रूप में हिन्दी के लिए बस इतना ही हुआ कि हिन्दी की अस्वाभाविक लगने वाली तकनीकी शब्दावली का निर्माण किया गया। साल भर में सरकारी तौर पर एक हिन्दी सप्ताह मना कर रस्म पूरी कर दी जाती है। हिन्दी में काम करने की घोषणाएँ भी होती हैं। घोषणापट भी लगाए जाते हैं, पर उन पर कोई भी काम हिन्दी में नहीं होता।
किसी सरकारी विभाग को हिन्दी में लिखे पत्र का पहले तो उत्तर ही नहीं दिया जाता, यदि दिया जाता है तो अंग्रेजी में। संसद में यदि कोई हिन्दी में प्रश्न पूछता है, तो उत्तर हिन्दी भाषी प्रान्त का मन्त्री भी अंग्रेजी में ही उत्तर देता है। राष्ट्र भाषा हिन्दी साथ यही सब हो रहा है। यह अपने घर में बेमानी है। संसद में दो-दो बार संकल्प पारित होने के बाद भी यू० पी० एस० सी० आदि की परीक्षाएँ हिन्दी भाषा में देने का अधिकार नहीं है। माँग करने वालों पर डण्डे बरसाये जाते हैं और उन्हें जेलों में ठूंस दिया जाता है।
उपसंहार-
हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी है लेकिन उसे विदेशी बना दिया गया है। ऐसी स्थिति में यदि विश्वविद्यालय के एक परिचित हिन्दी अध्यापक अपने आपको विदेशी भाषा का अध्यापक कहकर अपना परिचय देते हैं, तो क्या गलत है? वास्तव में हिन्दी जन-भाषा थी और लगता है उसे जन भाषा रहकर ही फलना-फूलना होगा, राष्ट्र भाषा बनकर नहीं।
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◆◆◆ निवेदन ◆◆◆
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