ध्यान या अवधान का अर्थ व परिभाषाएं / ध्यान को प्रभावित करने वाले कारक

दोस्तों अगर आप बीटीसी, बीएड कोर्स या फिर uptet,ctet, supertet,dssb,btet,htet या अन्य किसी राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आप जानते हैं कि इन सभी मे बाल मनोविज्ञान विषय का स्थान प्रमुख है। इसीलिए हम आपके लिए बाल मनोविज्ञान के सभी महत्वपूर्ण टॉपिक की श्रृंखला लाये हैं। जिसमें हमारी साइट istudymaster.com का आज का टॉपिक ध्यान (अवधान) का अर्थ व परिभाषाएं / ध्यान को प्रभावित करने वाले कारक है।

ध्यान या अवधान का अर्थ व परिभाषाएं / ध्यान को प्रभावित करने वाले कारक

ध्यान या अवधान का अर्थ व परिभाषाएं / ध्यान को प्रभावित करने वाले कारक

Meaning of Maditation ध्यान का अर्थ

ध्यान के अन्तर्गत मुख्य रूप से मन को नियन्त्रित किया जाता है जिससे कि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में मन चंचलता से बाधा उत्पन्न न हो। मन की एकाग्रता एवं मन की स्थिरता के लिये ध्यान किया जाता है। इसको परिभाषित करते हुए प्रो. एस. के. दुबे. लिखते हैं कि “ध्यान एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास हेतु मन की स्थिरता एवं एकाग्रता का विकास किया जाता है जिससे व्यक्ति मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ दृष्टिगोचर होता है।” इससे यह स्पष्ट होता है कि ध्यान में अनेक प्रकार के आसनों एवं क्रियाओं के द्वारा व्यक्ति को मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ बनाया जाता है। एक स्वस्थ व्यक्ति द्वारा ही आध्यात्मिक एवं भौतिक क्रियाओं के सफलतम सम्पादने की आशा की जाती है। अत: ध्यान इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति के लिये आवश्यक है।

ध्यान या अवधान की परिभाषाएं  (Definition of Attention)

अवधान की कुछ प्रमुख परिभाषायें निम्नलिखित हैं-

मैक्डूगल— “अवधान केवल उस चेष्टा या इच्छा को कहते हैं जिसका प्रभाव ज्ञान प्रक्रिया पर पड़ता है।”

रॉस -“अवधान विचार की किसी वस्तु को मस्तिष्क के सामने स्पष्ट रूप से उपस्थित करने की प्रक्रिया है।”

मन -“किसी भी दृष्टि से देखने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि अवधान एक अभिप्रेरणात्मक क्रिया है।”

वैलेन्टायन -“अवधान मस्तिष्क की शक्ति न होकर सम्पूर्ण रूप से मस्तिष्क की क्रिया या अभिवृत्ति है।”

डमविल–“किसी दूसरी वस्तु के स्थान पर एक ही वसतु पर चेतना का केन्द्रीयकरण अवधान है।”

स्टाउट -“अवधान सरल रूप में उस सीमा तक किया जाता है जहाँ तक वस्तुओं के पूर्ण ज्ञान से उसकी सन्तुष्टि होती है।”

अवधान के प्रकार
(Types of Attention)

अवधान का वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है-

1. ऐच्छिक अवधान (Voluntary Attention)

जब व्यक्ति किसी उद्दीपन पर अपनी सभी शक्तियों को केन्द्रित कर देता है तो इस अवस्था को ऐच्छिक अवधान कहते हैं। इस प्रकार के अवधान को सक्रिय अवधान भी कहते हैं। इस दशा में अवधान को इच्छापूर्वक क्रिया में लगाया जाता है। आयु के साथ-साथ अर्थात् आयु बढ़ने पर ऐच्छिक अवधान में भी विकास होने लगता है। जब व्यक्ति वातावरण के सम्पर्क में आता है तो इस दशा का पूर्ण विकास होता है।

2. अनैच्छिक अवधान (Non-voluntary Attention)—


जब हमारा ध्यान हमारी बिना इच्छा के किसी वस्तु पर केन्द्रित हो जाता है तो ऐसी स्थिति को अनैच्छिक अवधान कहते हैं। पढ़ते-पढ़ते हमारा ध्यान रेडियो के गाने पर (जो हमारा प्रिय है) चला जाता है। किसी सुन्दर फूल को देखकर हमारा ध्यान हमारी बिना इच्छा के उस ओर चला जाता है। ऐसी स्थिति को निष्क्रिय अथवा प्रयासहीन अवस्था भी कहते हैं। अनैच्छिक अवधान को स्वाभाविक (Spontanous) या आदतजन्य (Habitual) अवधान भी कहा जाता है।

3. मूर्त अवधान (Concrete Attention)-

यदि किसी निश्चित आकार की वस्तु की ओर ध्यान केन्द्रित किया जाता है तो वह मूर्त अवधान कहलाता है। उदाहरण के लिए पुस्तक, रेल, मोटर की ओर ध्यान केन्द्रित करना।

4. अमूर्त अवधान (Abstract Attention)-

ऐसा अवधान जिसमें केवल चिन्तन होता है, अमूर्त अवधान कहलाता है। शाश्वत गुणों की कल्पना करना इसी के अन्तर्गत आता है।

5. अर्जित अवधान (Derived Attention)–

यदि हम किसी वस्तु की ओर अवधान केन्द्रित नहीं करना चाहते परन्तु किसी कारण अवधान केन्द्रित करना पड़ता है तो ऐसे अवधान को अर्जित अवधान कहते हैं।
अंग्रेजी हमारा प्रिय विषय नहीं है, परन्तु पास करने के लिए हमें उस पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है तो इस अवधान को अर्जित अवधान कहते हैं।

6. तात्कालिक अवधान (Immediate Attention)-

जिन वस्तुओं पर बिना किसी विशेष प्रयत्न के अवधान केन्द्रित हो जाता है, उसे तात्कालिक अवधान कहते हैं। यह अवधान रुचिपूर्ण होता है।

अवधान का केन्द्रीयकरण (Concentration of Attention)

डमविल के अनुसार, “किसी दूसरी वस्तु के स्थान पर एक ही वस्तु पर चेतना का केन्द्रीयकरण अवधान कहलाता है।” अवधान के केन्द्रीयकरण का सबसे मुख्य आधार रुचि होती है। अवधान के केन्द्रीयकरण का एक आधार व्यक्ति का प्रशिक्षण होता है। ध्यान चंचल होता है और बहुत समय तक किसी एक विषय पर केन्द्रित नहीं होता हैं। पाठ पढ़ाते समय सहायक सामग्री का प्रयोग भी ध्यान को केन्द्रीयकरण में सहायता करता है।

ध्यान की विशेषताएँ Characteristics of Maditation

ध्यान के अर्थ एवं अवधारणा का विश्लेषण करने पर इसकी निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं –

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(1) ध्यान में मन को एकाग्र एवं स्थिर किया जाता है।

(2) ध्यान में मानसिक शक्तियों के विकास हेतु विभिन्न क्रियाएँ की जाती हैं जो योग से सम्बन्धित होती हैं।

(3) ध्यान में मनोविकार, क्रोध, ईर्ष्या एवं द्वेष आदि को दूर करने का प्रयास किया जाता है।

(4) ध्यान में व्यक्ति बिन्दु विशेष एवं विचार विशेष पर मनन एवं चिन्तन करता है।

(5) ध्यान मन को सांसारिकता से पृथक् कर बिन्दु विशेष पर केन्द्रित करता है।

ध्यान की शैक्षिक उपयोगिता
Educational Utility of Maditation

विद्यालयों में छात्रों को ध्यान एवं योग की शिक्षा प्रदान करने का मुख्य उद्देश्य छात्रों के सर्वांगीण विकास में सहयोग प्रदान करना तथा विकास के मार्ग को प्रशस्त करना माना जाता है। ध्यान की शैक्षिक उपयोगिता को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) ध्यान द्वारा छात्रों का मानसिक विकास किया जाता है जिससे कि अधिगम प्रक्रिया में तीव्रता एवं स्थायित्व लाया जा सके।

(2) ध्यान द्वारा छात्रों को मानसिक विकारों से मुक्त किया जाता है जिससे उनकी स्मृति में वृद्धि एवं संवेगात्मक परिपक्वता प्राप्त होती है।

(3) ध्यान द्वारा छात्रों में प्रेम एवं सहयोग की भावना का विकास होता है क्योंकि यह गुण स्वस्थ मानसिकता से युक्त व्यक्ति में पाये जाते हैं।

(4) ध्यान द्वारा छात्रों का शारीरिक विकास किया जाता है जिससे वह समाजोपयोगी कार्य एवं स्वयं के आवश्यक कार्यों को
सरलता से सम्पन्न करता है।

(5) छात्रों को सांसारिक संघर्षों का सामना करने के लिये मानसिक एवं शारीरिक शक्ति प्रदान करना।

(6) छात्रों को इन्द्रिय सुखों को दास न बनाकर आवश्यक एवं अनिवार्य साधनों पर ही आश्रित बनाना।

(7) छात्रों में मानसिक थकान को दूर करने में ध्यान की प्रमुख भूमिका होती है। ध्यान के बाद छात्र पुनः अध्ययन प्रक्रिया में संलग्न हो सकता है।

(8) ध्यान द्वारा मन को स्थिर किया जाता है जिससे छात्रों की किसी तथ्य विशेष एकाग्रता में वृद्धि होती है तथा शिक्षण के प्रति रुचि उत्पन्न होती है।

(9) ध्यान शिक्षक एवं छात्र दोनों पक्षों के लिये आवश्यक है। इसलिये अप्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्ष रूप से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सरल एवं बोधगम्य बनाने के लिये ध्यान उपयोगी है।

(10) छात्रों में ध्यान से संवेगात्मक स्थिरता एवं शारीरिक स्वस्थता होती है जिससे छात्रों एवं स्व-अनुशासन की भावना उत्पन्न होती है।

(11) ध्यान के माध्यम से छात्रों में प्रतिदिन के शैक्षिक एवं अशैक्षिक कार्यों के सम्पादन के लिये ऊर्जा प्राप्त होती है।

ध्यान को प्रभावित करने वाले कारक / Factors Affecting to Meditation in hindi

अवधान की विस्थापना में उद्दीपक परिस्थितियाँ प्रमुख भूमिका का निर्वहन करती हैं, इसीलिये एक बार में हम केवल एक ही उद्दीपक पर अपना ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं। अत: हम ध्यान को प्रभावित करने वाले कारकों का आन्तरिक और बाह्य दो भागों में बाँटकर अध्ययन करेंगे-

ध्यान को प्रभावित करने वाले आन्तरिक कारक

अवधान को प्रभावित करने वाले आन्तरिक कारक इस प्रकार हैं-

1. आवश्यकता (Need) – ध्यान और आवश्यकता का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब हमें भूख या प्यास लगती है, तो शरीर में आन्तरिक परिवर्तन होने लगते हैं। ये परिवर्तन हमारे ध्यान को आवश्यकतापूर्ति उद्दीपक पर केन्द्रित कर देते हैं।

2. रुचि (Interest) – प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल के विचार से रुचि किया हुआ ध्यान और ध्यान करना ही रुचि है। अत: व्यक्ति का ध्यान रुचि के आधार पर स्थापित होता है।

3. लक्ष्य (Goal) – चयन किये गये लक्ष्यों के उद्देश्यों को पूरा करने के प्रति व्यक्ति क्रियाशील रहता है। अतः अवसर मिलते ही उसका ध्यान अपने लक्ष्य की ओर स्वत: ही  विस्थापित हो जाता है; जैसे- छात्र का ध्यान पढ़ाई पर स्थापित होता है।

4. सूझ या समझ (Understanding) – स्पियरमैन ने मानव बुद्धि में विशिष्ट तत्त्व’ एवं ‘सामान्य तत्त्व’ बताये हैं, जो व्यक्ति अपनी विशिष्टता किसी क्षेत्र में प्रकट कर चुके हैं, उस उद्दीपक के मिलते ही उसका ध्यान उस ओर चला जाता है; जैसे-कलाकार का कलावृत्ति की ओर और संगीतकार का संगीत की ओर।

5. आदत (Habit) – मनोवैज्ञानिकों ने आदत को जीव में सक्रियता प्रदान करना माना है। अतः जिन कार्यों की आदत विकसित हो जाती है, उन पर हमारा ध्यान स्वतः ही केन्द्रित हो जाता है; जैसे-सुबह की चाय, अखबार और शाम को खेलना आदि।

6. मानसिक दशा (Mental condition) – ध्यान के केन्द्रीकरण में मानसिक दशा अपना प्रमुख प्रभाव डालती है। हमारा मन कभी प्रसन्न और कभी अप्रसन्न रहता है। जब वह किसी उद्दीपक पर स्थिर हो जाता है, तो वह अपनी मानसिक दशा के अनुसार व्यवहार करता है; जैसे-हम कभी-कभी पत्नी की अत्यधिक प्रशंसा भी करते हैं और कभी-कभी उसके कार्यों में दोष भी निकालते हैं।

7. पूर्व-ज्ञान (Previous knowledge) – थॉर्नडाइक एवं हरबर्ट आदि ने स्पष्ट कर दिया है कि बालक की शिक्षा पर उसके पूर्व-ज्ञान का प्रभाव पड़ता है। पाठ के प्रति ध्यान को लगाने के लिये पूर्व-ज्ञान को जागृत करना पड़ता है। इस प्रकार पूर्व-ज्ञान सीखने में सहायता देता है और ध्यान को केन्द्रित करता है।

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ध्यान को प्रभावित करने वाले बाह्य कारक

वातावरण या परिवेश में उत्पन्न होने वाले आकर्षण व्यक्ति के ध्यान को खींचते हैं। अतः हम यहाँ पर ध्यान को प्रभावित करने वाले बाह्य कारकों का वर्णन करते हैं-

(1) विशेष ऊँचा तापमान (Abnormal Temperature) भी ध्यान को छिन्न-भिन्न करता है। हम सभी जानते हैं कि अत्यन्त गर्म तापमान में अथवा बहुत अधिक सर्दी में हम काम नहीं कर पाते। हमारे देश में इसी कारण गर्मियों में विद्यालय बन्द कर दिये जाते हैं। कहीं-कहीं सर्दियों का अवकाश (Winter Vacation) भी होते हैं।

(2) अपर्याप्त प्रकाश (Improper Light Arrangement) विघ्न डालता है। यदि कमरे में अपर्याप्त प्रकाश है तो हमारा ध्यान स्वाभविक रूप से इधर-उधर चला जाता है। हम एक वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते।

(3) असुविधाजनक बैठने का स्थान (Uncomfortable Seat) भी हमारे ध्यान में विघ्न डालता है। बैठने में जैसे ही कुछ कष्ट होता है, हमारा ध्यान मूलवस्तु से हट जाता है। हम अपने अवधान का केन्द्रीयकरण नहीं कर पाते हैं।

(4) खराब स्वास्थ्य (Ill Health) भी हमारे ध्यान को केन्द्रित नहीं होने देता। यदि किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य खराब है तो बार-बार वह अपने स्वास्थ्य की ओर सोचने को विवश हो जाता है। उसके ध्यान का केन्द्रीयकरण नहीं हो पाता है।

(5) थकान (Fatigue) भी ध्यान को छिन्न-भिन्न करने वाला एक तत्त्व है। जब व्यक्ति थका हुआ होता है तो उसे आराम की आवश्यकता होती है। थकान के लक्षण बताते समय हमने बताया था कि जब बालकों में थकान हो जाती है तो उनके शरीर के विभिन्न अंगों में समायोजन समाप्त हो जाता है। उसमें परिश्रम करने की शक्ति समाप्त हो जाती हैं वे बार-बार आसन बदलते हैं उनके द्वारा कार्य करने की गति धीमी हो जाती है। बालकों के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है।

बालक थकान की दशा में अपना अवधान स्थित नहीं रख पाते हैं। बालकों के बैठने का ढंग दूषित हो जाता है। वे पढ़ने में त्रुटियाँ करने लगते हैं। बालकों का अवधान विचलित हो जाता है। उनकी कलम, पुस्तक आदि इधर-उधर गिरने लगती है। बालकों को साधारण सी बात पर क्रोध आ जाता है। बालक अपने मस्तिष्क में भारीपन अनुभव करते हैं। इस प्रकार बालकों के अवधान तथा रुचि में कमी आ जाती है।

(6) भय (Fear) की स्थिति में भी बालक का ध्यान केन्द्रित नहीं हो पाता। इसी आधार पर आधुनिक मनोविज्ञान कक्षा में प्रेम और सहानुभूति के वातावरण पर बल देता है। यदि कक्षा में भय का साम्राज्य रहता है तो कक्षा में शिक्षण ठीक से नहीं हो सकता।

(7) चिन्ता (Worry) भी हमारे ध्यान में विघ्न डालते हैं। शब्दकोष के अनुसार चिन्ता का अर्थ एक ऐसी कष्टदायक मानसिक स्थिति से है जिनमें भारी विपत्तियों की आशंका से व्यक्ति व्याकुल हो जाता है। चिन्ता की व्याकुलता भय की व्याकुलता से भिन्न होती है। चिन्ता का विषय स्वयं व्यक्ति होता है। उसकी व्याकुलता स्वयं उसकी मानसिक स्थितिजन्य होती है। चिन्ता की आशंका विषयगति होती है। इस प्रकार चिन्ता हमारे अवधान में विघ्न डालती है।

(8) भारी वर्षा (Excessive Rains) भी ध्यान को केन्द्रित नहीं होने देती। पाठकों ने अनुभव किया होगा कि जब तेज वर्षा होती है तो हम पढ़ना-लिखना छोड़ कर बरामदे में बैठकर वर्षा का आनन्द लेते हैं।

(9) क्रोध (Anger) भी हमारे ध्यान को केन्द्रित नहीं रहने देता। जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है तो उसकी दशा अर्द्ध-विक्षिप्त सी हो जाती है।

(10) घृणा (Hate) भी ध्यान को छिन्न-भिन्न करने वाला एक तत्त्व है।

बच्चों का ध्यान केन्द्रित करने के उपाय
Measures to Attention the Meditation of Children

आज शिक्षा के क्षेत्र में यह प्रचलित है कि बालक अपना ध्यान पाठ की ओर नहीं लगाते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके परीक्षाफल असन्तोषजनक हो जाते हैं। अत: पाठ की ओर या शिक्षा की ओर बालकों का ध्यान कैसे लगाया जाय ? आज यह समस्या बन चुकी है। कक्षा के ध्यान को केन्द्रित करने के तरीके या उपाय निम्नलिखित हो सकते हैं-

1. उपयुक्त एवं शान्त वातावरण – अनुपयुक्त और अशान्त वातावरण अनवधान का कारण होता है। अतः पढ़ने में अवधान केन्द्रित करने के लिए घर तथा विद्यालय दोनों स्थानों का वातावरण कोलाहल रहित तथा शांतिपूर्ण हो। कक्षा के वातावरण को उपयुक्त बनाना शिक्षक का कार्य है। इस सम्बन्ध में बी. एन. झा ने कहा है—“नये शिक्षक को आरम्भ में यह आदेश दिया जाता है-कक्षा के अवधान को केन्द्रित रखिए।”

2. शिक्षक द्वारा विषय की तैयारी – शिक्षक को अपने विषय का पूरा ज्ञान होना चाहिए। शिक्षक को पढ़ाने के पूर्व पाठ की तैयारी भली-भाँति कर लेनी चाहिए। प्रायः ऐसे अवसर कक्षा में आ जाते हैं जब शिक्षक किसी बात को ठीक से नहीं समझ पाता। ऐसी स्थिति में बालक भी कक्षा में ठीक से ध्यान नहीं लगा पाते।

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3. विषय-सामग्री में परिवर्तन करते रहना – अवधान की एक विशेषता चंचलता और अस्थिरता है। बालक बहुत देर तक एक ही विषय पर अवधान केन्द्रित नहीं कर सकते। अतः शिक्षक को लगातार पाठ्य विषय की बातें करते समय बीच-बीच में विषय-सामग्री में परिवर्तन और नवीनता लाने का प्रयत्न करना चाहिए-जैसे विषय से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के रोचक दृष्टान्तों का प्रयोग करना। लगातार दो घंटे तक एक विषय को पढ़ने से जी शीघ्र ऊब जाता है। इसलिए समय-सारिणी में भी विषयों का क्रम मनोवैज्ञानिक ढंग से होना चाहिए तथा बीच-बीच में विश्राम देना चाहिए।

4. बालक की मूल प्रवृत्तियों का ज्ञान – बालक खेल और क्रिया में अधिक अभिरुचि लेते अवधान के कारणों को हैं। अतः शिक्षक को खेल-विधि, क्रिया-विधि, प्रयोगात्मक विधि तथा निरीक्षण विधि का प्रयोग करना चाहिए। दूर करने का एक सबसे अच्छा उपाय सक्रिय होकर कार्य करना है। प्रायः शिक्षक कक्षा में बालकों का अनवधान न लगाने के कारण जोर-जोर से डाँटते हैं या सजा देने की धमकी देते हैं। इससे बालक को जो अवधान लगाते हैं वह क्षणिक होता है। अतः शिक्षक को ध्यान केन्द्रित कराने के लिए मनोवैज्ञानिक विधियों से सहायता लेनी चाहिए। बालक की मूल प्रवृत्तियों और संवेगों को ध्यान में रखकर शिक्षा का आयोजन करना चाहिए ताकि बालक पढ़ने की ओर ठीक से ध्यान दे।

5. बालकों में अभिरुचि जाग्रत करना तथा अभिरुचि के प्रति अवधान देना – हम देख चुके हैं कि अभिरुचि और अवधान का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सफल अध्यापक बालकों की अभिरुचि की ओर पहले ध्यान देता है। इस सम्बन्ध में डम्विल का कथन है—”पाठ का आरम्भ बालकों की स्वाभाविक अभिरुचियों से करिये, फिर धीरे-धीरे अन्य विषयों में उनकी अभिरुचि जाग्रत करिए।”

6. पूर्व ज्ञान को नये ज्ञान से सम्बन्धित करना – शिक्षक को नये पाठ को पुराने पाठ से सम्बन्धित करके पढ़ाना चाहिए, क्योंकि बालक पुराने पाठ पर अच्छी तरह ध्यान केन्द्रित कर चुके होते हैं। इसलिए जब नया पाठ उससे सम्बन्धित हो जाता है, तब उन्हें अवधान लगाने में कोई कठिनाई नहीं होती।

7. शिक्षक का व्यवहार – बालक के प्रति शिक्षक का व्यवहार शिष्टता तथा सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए।

8. बालक को स्वयं प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करना – बालक को स्वयं करके सीखने का अवसर देना चाहिए। इससे वे अपने कार्य में अवधान देते हैं। जैसे-गणित के प्रश्न को एक बार अच्छी तरह समझा देने के बाद उन्हें स्वयं प्रयास करने देना चाहिए अन्यथा वे सदा दूसरों की सहायता से, बिना ठीक से अवधान दिये प्रश्न हल करते या करवा लेते हैं। मनोवैज्ञानिक जेम्स ने कहा है ‘बालकों के प्रयास की इच्छा को
जीवित रखिए।”

9. व्यक्तिगत भिन्नता पर ध्यान देना – शिक्षा में अवधान के लिए वैयक्तिक भिन्नता पर अवधान देना आवश्यक है। इसके अन्तर्गत बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को ध्यान में रखकर शिक्षा की आयोजना करनी चाहिए।

10. बालक को समझना (To understand the child) – कक्षा में बालकों के ध्यान को आकर्षित करने के लिये बालकों को समझना आवश्यक होता है।

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