दोस्तों अगर आप बीटीसी, बीएड कोर्स या फिर uptet,ctet, supertet,dssb,btet,htet या अन्य किसी राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आप जानते हैं कि इन सभी मे बाल मनोविज्ञान विषय का स्थान प्रमुख है। इसीलिए हम आपके लिए बाल मनोविज्ञान के सभी महत्वपूर्ण टॉपिक की श्रृंखला लाये हैं। जिसमें हमारी साइट istudymaster.com का आज का टॉपिक सृजनात्मकता का अर्थ एवं परिभाषाएं / सृजनात्मकता के सिद्धांत एवं क्षेत्र है।
सृजनात्मकता का अर्थ एवं परिभाषाएं / सृजनात्मकता के सिद्धांत एवं क्षेत्र
सृजनात्मकता का अर्थ
सृजनात्मक शब्द अंग्रेजी के क्रिएटिविटी (Creativity) से बना है, जिसका अर्थ है – सृजन करना व उत्पन्न करना। सृजनात्मकता जन्मजात व अर्जित होती है। यह सार्वभौमिक होती है। सृजनात्मकता का विकास बाल्यावस्था से प्रारम्भ हो जाता है एवं 30 वर्ष की आयु तक सृजनात्मकता अपने चरम सीमा पर पहुंच जाती है। जिन बालकों को उचित वातावरण व आवश्यक संसाधन नहीं मिल पाते हैं उनके सृजनात्मकता का दमन हो जाता है। अधिक नियन्त्रण व कठोर अनुशासन में रखने से भी बालकों की सृजनात्मकता का दमन हो जाता है। सृजनात्मकता व बुद्धि का सकारात्मक सम्बन्ध होता है। औसत से अधिक बुद्धि वाला कोई भी बालक सृजनशील हो सकता है। सृजनात्मकता अपसारी चिन्तन पर आधारित होती है, जबकि बुद्धि अभिसारी चिंतन पर आधारित होती है।
सृजनात्मकता की परिभाषाएं
जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “सृजनात्मकता मुख्यतः नवीन रचना या उत्पादन में होती है।”
क्रो एण्ड को के अनुसार,“सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को व्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया है।”
स्टेन के अनुसार,” जब किसी कार्य का परिणाम नवीन है, जो किसी समय में समूह द्वारा उपयोगी मान्य हो, वह कार्य सृजनात्मरता कहलाता है।”
कोल एवं बुस के अनुसार, “सृजनात्मकता एक मौलिक उत्पादन के रूप में मानव मन की ग्रहण करके अभिव्यक्त करने और गुणांकन करने की योग्यता एवं क्रिया है।”
सृजनात्मकता की विशेषताएं
(1) सृजनात्मकता की योग्यता लोगों में भिन्न-भिन्न पायी जाती है।
(2) सृजनात्मकता वह योग्यता है जिसके द्वारा व्यक्ति नवीन विचारों एवं तथ्यों को जन्म देता है।
(3) सृजनात्मकता वह योग्यता है जिसके आधार पर व्यक्ति किसी समस्या का वास्तविक हल खोज सकता है।
(4) सृजनात्मकता से उत्पन्न नये विचार, नये तथ्य, मानव जीवन के लिए उपयोगी है।
(5) सृजनात्मकता का उद्देश्य लोक कल्याण होता है।
(6) सृजनात्मकता समूह या समाज द्वारा मान्य होती है।
नोट– सृजनात्मकता अपसारी चिंतन पर आधारित होती है, जबकि बुद्धि अभिसारी चिंतन पर आधारित होती है।
सृजनशील बालक किसे कहते हैं
ऐसे बालक जो स्वयं की प्रेरणा से तथा नया विचारों प्रतिभाओं के साथ किसी नई वस्तु का सृजन व निर्माण करते हैं वे सृजनशील बालक कहलाते हैं।
सृजनशील बालकों की पहचान
(Identification of Creative Students)
मनोवैज्ञानिकों ने सृजनशील व्यक्तियों को पहचानने के लिए कई अध्ययन किये हैं, जिनसे उनकी विशेषताओं या गुणों का पता चलता है। मनोवैज्ञानिक बेरोन (Barron) ने सृजनशील व्यक्तियों का गहन अध्ययन करके उनकी विशेषताओं की निम्न सूची प्रस्तुत की है-
(1) उसमें स्वतंत्र निर्णय शक्ति होती है। (Independence of Judgement)
(2) वे अपनी बात पर दृढ़ रहते हैं। (Self-assertiveness)
(3) वे जटिल घटनाओं (Complex Phenomena) में रुचि लेते हैं एवं उन्हें प्राथमिकता देते हैं।
(4) वे विविध प्रकार के तत्त्वों को सम्बन्धित या पूर्ण करने की क्षमता रखते हैं।
(5) एक समय में बहुत से विचारों पर ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता रखते हैं।
सृजनशील बालक की विशेषताएं
(1) कल्पनाशीलता
(2) मौलिकता
(3) संवेदनशीलता
(4) विनम्रता या लोचशीलता
(5) निरन्तरता/धारा प्रवाह विचार
(6) विस्तार पूर्णता
(7) दूर वृद्धि व अतवृद्धि
(8) जिज्ञासा
(9) कार्य में निष्ठा
(10) समस्या समाधान की योग्यता
(11) दृढ़ निश्चयी
(12) जोखिम उठाने को उत्सुक
सृजनात्मकता का क्षेत्र (Scope of Creativity)
सृजनात्मकता के विभिन्न क्षेत्र हो जाते हैं। मानव के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के समस्त कार्य इस क्रिया की ही उत्पादनात्कता के परिणाम हैं। सृजनात्मकता के क्षेत्र के अंतर्गत मानव का सम्पूर्ण जीवन आ जाता है। मनुष्य को हम वैज्ञानिक, कलाकार, चित्रकार, मूर्तिकार, साहित्यकार, कारीगर आदि विभिन्न रूपों में देखते हैं। वह उसके सृजनात्मकता के ही क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। विभिन्न विचारकों के अनुसार सृजनात्मकता के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
(1) विज्ञान-इसके अन्तर्गत भौतिकी, रसायन, औषधि-निर्माण आदि से सम्बन्धित हर प्रकार के आविष्कार एवं अनुसंधान आ जाते हैं।
(2) कला-कौशल-संगीत, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला तथा धातु, काष्ठ, चर्म, कागज आदि से सम्बन्धित कौशल भी सृजनात्मक के अंतर्गत आते हैं।
(3) तकनीकी-इसमें विशेष रूप से मशीनों, उनके यंत्रों और पुर्जों आदि के निर्माण का क्षेत्र आ जाता है।
(4) साहित्य-इसके अन्तर्गत कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि की रचना तथा भाषणकला, लेखन-कला सम्मिलित है।
(5) सामाजिक क्षेत्र-व्यक्ति को समाज में आपस में एक-दूसरे के सहयोग द्वारा अनेक प्रकार के सामाजिक क्रियाओं-धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, राजनैतिक आदि को सम्पादित करना पड़ता है और अनेक समस्याओं का समाधान करना पड़ता है। इन सभी अवसरों पर व्यक्ति अपनी सृजनात्मक शक्ति का प्रयोग करता है।
(6) व्यक्तिगत क्षेत्र-व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी व्यवसाय, उद्योग या कार्य में लगा रहता है। वह सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षिक, प्रशासनिक जिस क्षेत्र में भी रहता है, अपनी सृजनात्मकता का प्रयोग करता है।
(7) मानसिक प्रक्रियाओं का क्षेत्र-विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं जैसे कल्पना, चिन्तन, तर्क, समस्या-समाधान और भावाभिव्यक्ति में सृजनात्मकता का प्रमुख भाग होता है।
सृजनात्मकता का परीक्षण व मापन
सृजनात्मकता को मापने का प्रमुख प्रयास ‘गिलफोर्ड ने किया था। इन्होंने सृजनात्मकता की पहचान के लिए अनेक परीक्षण किये जो निरन्तरता, लोचनीयता, मौलिकता तथा विस्तार का मापन करता है। इनके परीक्षण निम्नलिखित है।
1- वृत्त परीक्षण
2- चित्र पूर्ति परीक्षण
3- प्रोडक्ट इन्यूवमेंट टारक
4-टीन के डिब्बे का परीक्षण
सृजनात्मकता के सिद्धांत
(1) आकस्मिक लाभवृत्ति सिद्धान्त (कैनन एवं मैकलीन)
(2) सहाचर्यवाचक सिद्धान्त (विल्सन)
(3) मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (सिगमण्ड फ्रायड)
(4) प्रतिभा का सिद्धान्त (स्पीयर मैन)
(5) द्विकारक का सिद्धान्त (स्पीयर मैन)
(6) अभिप्रेरणात्मक सिद्धान्त (रोजर्स)
(7) संज्ञानात्मक सिद्धान्त (पियाजे)
(8) मानसिक स्वास्थ्य का सिद्धान्त (मास्लो)
(9) बुद्धि विद्वान का सिद्धांत (गिलफोर्ड)
सृजनात्मकता के विकास में शिक्षा व्यवस्था की भूमिका
(1) सृजनात्मकता के विकास के लिए बालकों को पूर्ण स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।
(2) कक्षा-कक्ष का वातावरण अधिकार व दबाव से मुक्त तथा प्रजातान्त्रिक होना चाहिए।
3) उचित वातावरण अधिकार व दबाव से मुक्त तथा
(4) अध्यापक का उच्च स्तरीय व्यवहार नियन्त्रण बच्चों में शाब्दिक चिन्तक की वृद्धि करता है।
(5) बालकों की कल्पनाशीलता को सकारात्मक रूप से देखना चाहिए।
(6) सृजनात्मकता के विकास के लिए विचारवेश/ मस्तिष्क उद्वेलन/ब्रेन स्ट्रामिंग (तूफानजमी) जैसी- व्यूह रचना की व्यवस्था
करनी चाहिए।
(7) विद्यालय में प्रोजेक्ट कार्य, सामुदायिक विकास कार्यक्रमों में भागीदार, समाज उपयोगी, उत्पादन कार्यक्रम, शैक्षिक
भ्रमण तथा विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं के माध्यम से बालकों को सृजनात्मक अभिव्यक्ति के अवसर दिये जाने चाहिए।
शिक्षक को चाहिए कि बालकों में सृजनात्मकता का विकास करने के लिए उपाय करे।
1. समस्या के स्तरों की पहचान (Identification of Problem)-स्टेनले ग्रे के शब्दों में समस्या समाधान की योग्यता दो पदों पर निर्भर करती है।
2. तथ्यों का अधिगम (Learning of Facts)-समस्या को हल करने में कौन-कौन से तथ्यों को सिखाया जाय, शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए।
3. मौलिकता (Originality)-शिक्षक को चाहिए कि वह तथ्यों के आधार पर मौलिकता के दर्शन कराये।
4. मूल्यांकन (Evaluation)-छात्रों में अपना मूल्यांकन स्वयं करने की तह प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए।
5. जाँच (Verification)-छात्रों में जाँच करने की कुशलता का अर्जन कराया जाय।
6. पाठ्य-सहगामी क्रियायें (Co-curricular Activities)-विद्यालय में बुलेटिन बोर्ड, मैगजीन, पुस्तकालय, वाद-विवाद, खेलकूद, स्काउटिंग,एन.सी.सी. आदि क्रियाओं द्वारा नवीन उदभावनाओं का विकास करना चाहिए।
सृजनात्मकता और विद्यालय (Creativity and School)
विद्यालयों में सृजनात्मकता के विकास को सर्वाधिक सम्भावनायें तथा अवसर विद्यमान रहते हैं। विद्यालय में सृजनात्मकता का विकास पाँच पहलुओ के संगठन पर सम्भव है। ये पहलू अग्र प्रकार है-
1. विद्यालय का वातावरण-इसके अन्तर्गत अध्यापक तथा छात्र, दोनों को ही कार्य करना पड़ता है। विद्यालय की स्वच्छता तथा उसका सौन्दर्गीकरण आवश्यक है। छात्रों में समूह बनाकर उनकी प्रतियोगिताएँ कराई जा सकती हैं। विजेता समूह तथा छात्रों को विद्यालय की सभा के समक्ष प्रशंसा देनी चाहिए तथा पराजित समूह को सान्त्वना देनी चाहिए।
2. अनुशासन – संस्थान की प्रतिष्ठा छात्रों तथा अध्यापक मण्डल के अनुशासन पर निर्भर करती है। छात्रों को ऐसे अवसर दिये जाने चाहिए कि उनमें अनुशासन में रहने तथा अनुशासन में रहने देने की भावना विकसित हो। सेमीनार, कॉन्फ्रेंस, अध्यापक-अभिभावक संघ, काम देना, काम लेना,डाँट-फटकार आदि के माध्यम से अनुशासन का वातावरण उत्पन्न किया जाता है। छात्र संघ, छात्र दिवस, सदन प्रणाली, आचरण संहिता,समाज सेवा, सामूहिक खेल आदि द्वारा अनुशासन का विकास किया जा सकता है।
3. अध्यापक-छात्र सम्बन्ध-सृजनात्मकता का उचित विकास तभी सम्भव है जबकि अध्यापक तथा छात्रों के मध्य स्नेही तथा मधुर सम्बन्ध होंगे। अध्यापक को छात्रों की सम्पूर्ण पृष्ठभूमि तथा उनकी क्षमताओं का पता लगाना चाहिए। इस कार्य के लिये प्रधानाध्यापक के साथ भी सम्पर्क बनाये रखना आवश्यक है।
4. अध्यापक-प्रधानाध्यापक सम्बन्ध-अकेला अध्यापक बालक में
सृजनात्मकता की सम्भावनायें उत्पन्न करने में तथा उनका विकास करने में तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वह प्रधानाध्यापक का सहयोग नहीं लेता। प्रधानाध्यापक को अध्यापक की सलाह से सृजनशील बालकों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। अच्छे विद्यालयों में जाकर वहाँ की कार्यप्रणाली देखनी चाहिए। अध्यापकों को सृजनशील साहित्य का अध्ययन करना चाहिए।
5. विद्यालय-अभिभावक सम्बन्ध-विद्यालय बालक को शिक्षित करने का एक अभिकरण है। माता-पिता तथा परिवार के सदस्य दूसरे अभिकरण के रूप में कार्य करते हैं। इसलिये अध्यापक-अभिभावक संघों की भूमिका विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।
निवेदन
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