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किशोरावस्था का अर्थ व परिभाषाएं / किशोरावस्था की विशेषताएं एवं शिक्षा
(Definitions of Adolescence)किशोरावस्था का अर्थ
सर्वप्रथम किशोरावस्था का क्रमबद्ध एवं वैज्ञानिक अध्ययन अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्टेनली हाल के द्वारा किया गया। किशोरावस्था (TEENAGE) 12 से 18 वर्ष के बीच की अवधि होती है। यह युवावस्था की ड्योढ़ी है। जिसके पास जीवन का सारा भविष्य पाया जाता है। तथा विकास की चरमावस्था इसे माना जाता है। इसलिए तो स्टेनली हाल ने इसे ‘आँधी व तूफान’ की वेगावस्था कहा है। वह अवस्था बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था के बीच की सन्धिकाल है। मानव जीवन के विकास की प्रक्रिया में किशोरावस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अवस्था की विडम्बना होती है-बालक स्वयं को बड़ा समझता है और बड़े उसे छोटा समझते है।
शैशवावस्था की परिभाषाएं
शैशवावस्था के बारे में मनोवैज्ञानिकों ने निम्नलिखित कथन दिए हैं –
स्टेनली हॉल के अनुसार,“किशोरावस्था प्रबल दबाव व तनाव, तूफान एवं संघर्ष की अवस्था है।”
स्टेनली हॉल के अनुसार,”किशोरों में जो शारीरिक मानसिक व संवेगात्मक परिवर्तन हैं, वे अकस्मात होते हैं”
वैलेन्टाइन के अनुसार,”व्यक्तित्व एवं घनिष्ट मित्रता किशोरावस्था की विशेषतायें हैं”
बैलेन्टाइन के अनुसार,”किशोरावस्था अपराध प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है” –
जरशील्ड के अनुसार, “किशोरावस्था परिपक्वता प्राप्त करने की अवस्था है”
एरिक्सन/जोंस/रॉस के अनुसार,“किशोरावस्था शैशवास्था की पुनरावृत्ति है”
रॉस के अनुसार,”किशोरावस्था समाजसेवा के आदर्श उपस्थित करने की अवस्था है”
स्किनर के अनुसार, “किशोरों को निर्णय लेने का कोई अनुभव नहीं होता”
कुल्हन के अनुसार, “किशोरावस्था बाल्यावस्था एवं प्रौढ़ावस्था के मध्य का परिवर्तन काल है।”
आसूबेल के अनुसार,“किशोरावस्था जैविक और सामाजिक स्थिति में संक्रमण काल होता है।”
क्रो एवं क्रो ने कहा है-“किशोर ही वर्तमान की शक्ति और भावी आशा को प्रस्तुत करता है।
हैडो कमेटी रिपोर्ट में गया है-“ग्यारह या बारह वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उतना आरम्भ हो जाता है, इसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है, यदि इस ज्वार का समय रहते उपयोग कर लिया जाये और इसकी शक्ति तथा धार के साथ-साथ नई यात्रा आरम्भ कर दी जाये तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।
किशोरावस्था के अन्य नाम / किशोरावस्था को और किन नामों से जाना जाता है
(1) जीवन का सबसे कठिन काल
(2) समस्याओं की आयु
(3) उलझन की आयु
(4) झंझावट की आयु
(5) आंधी-तूफान की आयु
(6) तनाव-संघर्ष की आयु
(7) तीव्र विकास की अवस्था
(8) तार्किक/अमूर्त चिन्तन की अवस्था
(9) स्वर्णकाल
(10) बसन्त आयु
(11) परिवर्तन की आयु
(12) संक्रमण की अवस्था
(13) विशिष्टता की खोज की आयु
(14) ‘BEAUTY & TEEN’Age
किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त
(Theories of Development of Adolescence)
किशोरावस्था के विकास के दो सिद्धान्त हैं-
(1) त्वरित विकास का सिद्धान्त (Theory of Saltatory Development)-
इस सिद्धान्त का समर्थन स्टेनले हॉल (Stanley Hall) ने अपनी ‘एडोलसेन्स’ नामक पुस्तक में किया है। इनका कहना है कि किशोरों में अनेकों क्रान्तिकारी परिवर्तन आकस्मिक रूप से होते हैं, जिनका शैशवावस्था या बाल्यकाल से कोई सम्बन्ध नहीं होता। स्टेनले हॉल महोदय के शब्दों में, “किशोर अथवा किशोरी में जो शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होते हैं, वे एकदम छलांग मारकर आते हैं।”
(2) क्रमिक विकास का सिद्धान्त (Theory of Gradual Development)-
इस सिद्धान्त के समर्थक थार्नडाईक, किंग और हालिंगवर्थ (Thorndike, king and Hollingworth) हैं। इनका कथन है कि किशोरावस्था में शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक परिवर्तनों के फलस्वरूप जो नवीनताएँ दिखाई देती हैं, वे एकदम न आकर धीरे-धीरे क्रमशः आती हैं। इस सम्बन्ध में किंग महोदय का कथन है, “जिस प्रकार एक ऋतु के आगमन के चिन्ह दिखाई देने लगते हैं, उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था एक दूसरे से सम्बन्धित रहती हैं।”
किशोरावस्था की विशेषताएं
(1) शारीरिक विकास (भार-लम्बाई, माँसपेशियाँ, दाढ़ी-मूंछ, मासिक स्राव) – इस अवस्था में बालक का शारीरिक विकास पूरी तरह से हो जाता है। बालक की लंबाई उसका वजन और मांसपेशियों का पूर्ण रूप से विकास हो जाता है। इस अवस्था में बालक में दाढ़ी मूछ भी आ जाती है। इस अवस्था में बालिकाओं में मासिक स्राव भी होने लगता है। इस अवस्था में बालक एवं बालिकाओं में यौन अंगों का पूर्ण विकास हो जाता है।
(2) मानसिक विकास (दिवा स्वप्न 16 वर्ष तक मस्तिष्क का पूर्ण विकास) – इस अवस्था में बालक का मानसिक विकास भी बहुत हो जाता है। वह कल्पना करना, तर्क करना,सोचने समझने की क्षमता आदि सीख जाता है। इस अवस्था मे कुछ अन्य मानसिक गुणों का भी विकास हो जाता है। जैसे – दिवास्वप्नों की बहुलता, बुद्धि का अधिकतम विकास, सोचने-समझने और तर्क करने की शक्ति में वृद्धि, विरोधी मानसिक दशायें।
(3) व्यक्तिगत व घनिष्ट मित्रता – इस आयु में बालक केवल एक या दो बालकों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है, जो उसके परम मित्र होते हैं और जिनसे वह अपनी समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से बातचीत करता है।
(4) स्वतन्त्रता एवं विद्रोह की भावना – इस आयु में बालक स्वतंत्र रहना चाहता है। उसे अपने परिवार या घर का टोकना पसंद नहीं होता है,वह इस चीज का विरोध करता है। वह बड़ों के आदेशों, विभिन्न परम्पराओं, रीति-रिवाजों और अन्धविश्वासों के बन्धनों में न स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करना चाहता है। अतः यदि उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाया जाता है, तो उसमें विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ती है। इस प्रकार बालक में स्वतंत्रता एवं विद्रोह की भावना उत्पन्न हो जाती है।
(5) काम शक्ति की परिपक्वता (आत्मीय, समलिंगीय, विषम लिंगीय) – इस अवस्था में बालक में यौन अंगों का पूर्ण विकास हो जाता है इसलिए उसमें काम प्रवृत्ति बढ़ जाती है। बालक बालिकाओं की तरफ तथा बालिकाएँ बालक की तरफ आकर्षित होती हैं।
(6) समाज सेवा, देशभक्ति की भावना – इस आयु में बालक में देशभक्ति की भावना जागृत होती है वह अपने देश की सेवा करना चाहता है। वह समाज के लिए भी सबकी सहायता और परोपकार करना चाहता है। अर्थात उसमें एक समाज सेवा की भावना जागृत होती है।
(7) ईश्वर व धर्म में विश्वास – इस अवस्था में बालक ईश्वर और अपने धर्म के प्रति अपने विश्वास को और अधिक मजबूत करता है। उसकी ईश्वर और धर्म में आस्था और विश्वास बढ़ जाता है।
(8) अपराध प्रवृत्ति – इस अवस्था में बालक में अपराध प्रवृति बढ़ जाती है। वह छोटे छोटे अपराध जैसे – लड़ाई झगड़ा करना, गाली गलौज करना तथा उल्टे सीधे जवाब देना आदि सीख जाता है।
(9) व्यवसाय के चुनाव की समस्या – इस आयु में बालक अपने व्यवसाय का चुनाव नहीं कर पाता है । वह यह नहीं सोच पाता है कि आगे उसे किस क्षेत्र में जाना चाहिए।
(10) यौन विकास – इस अवस्था में बालक एवं बालिकाओं का यौन विकास पूर्ण रूप से हो जाता है।
(11) आत्मसम्मान को महत्व – इस अवस्था में बालक अपने आत्मसम्मान को बहुत अधिक महत्व देता है। यदि कोई उसे कुछ कहता है जो उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है तो उसे दुख होता है।
(12) समायोजन का अभाव – इस अवस्था में बालक अपने को समाज में अन्य जगह ढंग से समायोजित नहीं कर पाता है। उसमे समायोजन का अभाव होता है।
(13) अपनों से बिछुड़ने का गम – इस अवस्था में बालक को अपनों से बिछड़ने का गम भी बहुत अधिक होता है।
(14) संवेगात्मक परिवर्तन में तीव्र गति – इस अवस्था में बालक में संवेगात्मक परिवर्तन बहुत तीव्र गति से होते हैं । बालक में सभी प्रकार के संवेगों का विकास हो जाता है।
(15) समलिंगीय या विषमलिंगीय समूह/साथी – इस अवस्था में बालक अपने साथी बनाता है और उसके साथी समलिंगी और विसमलिंगी दोनों होते हैं। बालक चाहता है कि उसकी दोस्त एक बालिका हो उसी प्रकार बालिका चाहती है कि उसका एक अच्छा दोस्त बालक हो।
(16) नेतृत्व की भावना – इस अवस्था में बालक में नेतृत्व करने की भावना विकसित हो जाती है । वह अपने विद्यालय में या परिवार और समाज में कई कार्यो को लेकर नेतृत्व करता है।
(17) आत्मनिर्भर बनने की इच्छा – इस अवस्था में बालक आत्मनिर्भर बनना चाहता है । वह अपने परिवार पर आश्रित नहीं रहना चाहता है । इस आयु में बालक सोचता है कि वह कुछ ऐसा करें जिसे उसके परिवार को उस पर गर्व हो। वह खुद ही अपने पैसों पर जीवन व्यतीत करें।
(18) मादक व नशीली पदार्थों का सेवन – इस अवस्था में बालकों को गलत संगति में पड़कर मादक और नशीले पदार्थों की लत लग जाती है । तथा वह इनका सेवन भी चुपचाप करने लगते हैं।
(19) आत्महत्या की प्रवृत्ति का विकास – इस अवस्था में बालक अपने आत्मसम्मान की बहुत अधिक इच्छा करता है। उसे किसी का डांटना फटकारना या कुछ कह देना बहुत बुरा लगता है। कुछ बालक में इस अवस्था में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति भी बहुत विकसित हो जाती है।
(20) अमूर्त चिन्तन की योग्यता – बालक बाल्यावस्था तक केवल मूर्त चिंतन ही कर पाता है किंतु किशोरावस्था आते आते अब वह अमूर्त चिंतन भी करने लगता है। वह उन चीजों के बारे में सोचने लगता है जो उसके सामने प्रत्यक्ष रूप से नहीं है।
(21) स्वतन्त्र निर्णय की क्षमता – इस अवस्था में बालक का इतना मानसिक विकास हो जाता है कि वह स्वयं स्वतंत्र निर्णय ले सकता है। अतः इस अवस्था में बालक में स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता आ जाती है।
किशोरावस्था व्यवहार का निरीक्षण
(Observation of the Behaviour in Adolescence)
किशोरावस्था एक संक्रमण की अवस्था है, जिसमें बालक न बालक रहता है न ही प्रौढ़। इसे सामान्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-पूर्व किशोरावस्था और उत्तर किशोरावस्था पूर्व किशोरावस्था जीवन का वह काल है, जिसे प्रायः तूफान और तनाव का काल कहा जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस आयु में नवकिशोर का माता-पिता, शिक्षकों और मित्रों के साथ अनेक बार संघर्ष हो जाता है। उसकी संवेगशीलता, बाल्यावस्था की अपेक्षा बढ़ जाती है तथा उसके साथ रहना या काम करना मुश्किल होता है। वे समझते हैं प्रौढ़ उन्हें सामूहिक रूप से निन्दा, आलोचना और तिरस्कार का लक्ष्य बनाते हैं। नवकिशोर के व्यवहार का अध्ययन करने के पश्चात् निम्न लक्षण सामने आते हैं जैसे-
1. नवकिशोर अस्थिर होते हैं।
2. नवकिशोर के सामने अनेक समस्याएं होती हैं।
3. नवकिशोर दुःखी और असन्तुष्ट होते हैं।
4. नवकिशोरों में विभिन्न संवेगों यथा-क्रोध, भय, आकुलता, ईर्ष्या, स्पर्धा, स्नेह, जिज्ञासा आदि की प्रमुखता रहती है।
5. अब सामाजिक, व्यवहार परिवर्तित होता है।
6. वे समूह निर्माण, मंडलियाँ, भीड़ और मित्र मण्डली आदि बनाने में अग्रसर रहते हैं।
7. उनमें विषम लिंगीय प्यार भी पाया जाता है।
8. उनमें समलिंगीय काम भावना भी पायी जाती है।
9. नवकिशोर में कल्पना का बाहुल्य होता है।
10. उनमें आत्म-सम्मान की भावना प्रबल होती है।
उनके व्यवहार का अध्ययन करने के लिए उनसे सम्बन्धित प्रश्नावली बनाकर उसका निरीक्षण किया जा सकता है जैसे-उनका संक्षिप्त परिचय, उनकी प्रमुख समस्याएँ आदि।
किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप
शैक्षिक दृष्टि से किशोरावस्था का अपना महत्त्व है। यह वह अवस्था है जब बालक संवेगात्मक अस्थिरता तथा मौन आवेग से ग्रसित होने के साथ साथ एक नवीन उत्साह और आदर्श से प्रेरित होते हैं। यदि किशोरों को उचित मार्गदर्शन मिल जाता है तो वे भावी जीवन में बहुत कुछ कर सकते हैं। इस अवस्था में शिक्षा के निर्धारण में निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिये-
(1) किशोरावस्था में शरीर में अनेक परिवर्तन होते हैं। अत: उचित शिक्षण प्रदान करके शरीर को सबल तथा सुडौल बनाया जाता है।
(2) किशोरों की मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम और अधिकतम विकास करने के लिये शिक्षा का स्वरूप उनकी रुचियों, रुझानों, दृष्टिकोणों और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिये|
(3) किशोर अनेक प्रकार के संवेगों से संघर्ष करता है। इन संवेगों में से कुछ उत्तम और कुछ निकृष्ट होते हैं। अतः शिक्षा में इस प्रकार के विषयों और पाठ्य सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिये जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गान्तरण और उत्तम संवेर्गों का विकास करें।
(4) किशोर अपने समूह को अत्यधिक महत्त्व देता है और उसमें आचार व्यवहार की अनेक बातें सीखता है। विद्यालय में सामूहिक क्रियाओं का संगठन किया जाना चाहिये। इन क्रियाओं में भाग लेकर वह सामाजिकता की शिक्षा स्वाभाविक ढंग से प्राप्त कर सकता है।
(5) किशोरावस्था तक दृष्टिकोणों, भावनाओं और रुचियों में भिन्नता विकसित हो जाती है। अत: शिक्षा की योजना इस प्रकार की होनी चाहिये कि किशोरों की रुचियों और भावनाओं की सन्तुष्टि हो सके।
(6) ऐसी विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिये जिनसे किशोरों को आत्म निरीक्षण, विचार और तर्क करने के अवसर प्राप्त हो सकें।
(7) इस अवस्था में मानसिक द्वन्द होता है उसको समाप्त करने के लिये नैतिक तथा धार्मिक शिक्षा ऐसी हो जिससे वे उचित और अनुचित के मध्य अन्तर करना सीख सकें।
(8) किशोरों को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपे जाने चाहिये तथा उत्तर- दायित्व पूर्ण करने पर उनकी प्रशंसा की जानी चाहिये। विद्यालय अनुशासन स्थापना में भी बच्चों का सहयोग लिया जाना चाहिये। किशोर अवस्था जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल है। ऐसे में शिक्षकों एवं अभिभावकों का कर्तव्य है कि किशोरों की मूल आवश्यकताओं, रुझानों तथा समस्याओं का भली प्रकार समझें तथा उचित शिक्षण द्वारा उनको मार्गदर्शन प्रदान करें।
किशोरावस्था में शिक्षक की भूमिका
(Role of Teacher in Adolescence)
किशोरावस्था को तनाव और तूफान की अवस्था कहा गया है। यही अवस्था है जब किशोर न तो बालक रहता है और न पूर्ण प्रौढ़ बन पाता है। इसे परिवर्तन की अवस्था भी कहा गया है। इस अवस्था में परिवर्तन का अम्बार सा लगा रहता है। उसमें अनेक शारीरिक और मानसिक परिवर्तन होते हैं। उनके संवेगात्मक, सामाजिक और नैतिक जीवन का स्वरूप बदल जाता है। मानव जीवन के विकास में इस अवस्था का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अवस्था में किशोर में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। बिग्गी और हन्ट (Bigge & Hunt) के अनुसार, “किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप से प्रकट करने वाला एक शब्द है-परिवर्तन। परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक होता है।”
किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में एक नवीन शक्ति और एक अभूतपूर्व स्फूर्ति उत्पन्न हो जाती है। नवीन अभिलाषायें उनमें नवीन रूप से उठने लगती हैं। नई-नई उमंगें और भावनाएँ उन्हें आन्दोलित करती हैं। तन-मन विकसित होने से उनकी रुचियाँ बदलने लगती हैं और कल्पनाएँ उनके मस्तिष्क को भर सा देती हैं। उनमें प्रौढ़तासूचक चिन्ह प्रकट होने लगते हैं। शारीरिक परिवर्तन के कारण उनका संवेगात्मक सन्तुलन समाप्त हो जाता है। बेचैनी और अस्थायित्व आ जाता है, तनाव और संघर्ष पैदा हो जाता है। अतः ऐसी स्थिति में शिक्षक का दायित्त्व बनता है कि वह अपना पूर्ण सहयोग देकर उनका सही मार्गदर्शन करें। एक मित्र के रूप में व्यवहार कर उनकी जिज्ञासाओं को शान्त करें और अनेक प्रकार की शिक्षा दें।
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