विरोधाभास अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / विरोधाभास अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

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विरोधाभास अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / विरोधाभास अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

विरोधाभास अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / विरोधाभास अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

विरोधाभास अलंकार की परिभाषा

जब दो विरोधी पदार्थों का संयोग एक साथ दिखाया जाय, तब विरोधाभास अलंकार होता है। काव्य में जहाँ वास्तविक विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास मात्र हो, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है।

उदाहरण –  सुलगी अनुराग की आग वहाँ,
                जल से भरपूर तड़ाग जहाँ ।

स्पष्टीकरण – यहाँ जल और आग दो विरोधी पदार्थों का संयोग एक साथ दिखाया गया है।

उदाहरण –  या अनुरागी चित्त की, गति समुझे नहिं कोय।
               ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम-रँग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय ॥

स्पष्टीकरण –  भक्त का चित्त घनश्याम के काले रंग में ज्यों-ज्यों डूबता है, त्यों-त्यों वह सफेद होता जाता है। काले रंग में डूबने से वस्तु काली हो जाती है, उजली नहीं। इस प्रकार श्वेत और श्याम का संयोग दिखाने के कारण विरोधाभास अलंकार है।

उदाहरण –  भर लाऊँ सीपी में सागर
               प्रिय ! मेरी अब हार विजय क्या ?

              
उदाहरण – सीपी में भला सागर कैसे भरा जा सकता है ? अतः यहाँ विरोधाभास अलंकार है।

उदाहरण – मूक गिरिवर के मुखरित ज्ञान।

स्पष्टीकरण – यहाँ मूक गिरिवर के ज्ञान को मुखरित कहनें में विरोधाभास है।

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विरोधाभास अलंकार के अन्य उदाहरण

(1) बैन सुन्या जबते मधुर, तबते सुनत न बैन ।

(2) रूद्रन को हॅसनाप ही तो गात ।

(3) भर लाऊँ सीपी में सागर ।

(4) प्रिय मेरी अब हार विजय का ।

(5) जब से है आँख लगी तबसे न आँख लगी।

(6) यह अथाह पानी रखता है यह सूखा-सा गात्र।

(7) प्रियतम को समक्ष पा कामिनी
     न जा सकी न ठहर सकी।

(8) आई ऐसी अद्भुत बेला
    ना रो सका न विहँस सका।

(9) ना खुदा ही मिला ना बिसाले सनम
      ना इधर के रहे ना उधर के रहे।

(10) “या अनुरागी चित्त की, गति सम्झै नहिं कोय।
        ज्यों ज्यों बूडै स्याम रंग, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।”

(11) जाकि कृपा पंगु गिरि लांघै।

(12) शीतल ज्वाला जलती है, ईंधन होता दृग जल का ।
     यह व्यर्थ सांस चल चलकर करती है काम अनिल का । ।

(13) विकसते मुरझाने को फूल, दीप जलता होने को मंद।
      बरसते भर जाने को मेघ, उदय होता छिपने को चांद ।।

(14) लहरों में प्यास भरी थी, भँवर पात्र था खाली ।
     मानस का सबरस पीकर, तुमने लड़का दी प्याली ।।

(15) सुलगती अनुराग की आग जहाँ, जल से भरपूर तड़ाग वहाँ ।

(16) जाकी सहज स्वासि स्रुति चारी । सो हरि पढ़ कौतुक भारी ।।

(17) बैन सुन्या जब ते मधुर, तब ते सुनत न बैन

(18) तरी को ले जाओ मझधार डूबकर हो जाओ पार ।।

(19) मूक होइ वाचाल, पंगु चड़इ गिरिबर गहन ।
       जासु कृपा सो दयाल, द्रवउ सकल कलि मल दहन ||



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                            ★★★ निवेदन ★★★

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