संदेह अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / संदेह अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

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संदेह अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / संदेह अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

संदेह अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / संदेह अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

संदेह अलंकार की परिभाषा

जहाँ किसी वस्तु को देखकर संशय बना रहे, निश्चय न हो वहाँ संदेह अलंकार होता है। काव्य में जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति को देख कर संशय होने का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो वहाँ सन्देह अलंकार होता है। सन्देह अलंकार में आवश्यक तत्व है – विषय का अनिश्चित ज्ञान। यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो। अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो।

उदाहरण –  यह काया है या शेष उसी की छाया ।
                क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया।

स्पष्टीकरण – दुबली-पतली उर्मिला को देख कर लक्ष्मण यह निश्चय नहीं कर सके कि यह उर्मिला की छाया है या उसका शरीर। यहाँ सन्देह बना है।

उदाहरण – कैंधों ब्योम बीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
                 कैंधों चली मेरु तैं क़सानुसरि भारी हैं।

स्पष्टीकरण – लंकादहन के उपर्युक्त वर्णन में हनुमान की पूँछ को देखकर यह निश्चय नहीं हो पा रहा है कि आकाश में अनेक पुच्छल तारे हैं या पर्वत से अग्नि की नदी-सी निकल रही है। अत: यहाँ सन्देह अलंकार है।

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संदेह अलंकार के अन्य उदाहरण –

(1) सारी बीच नारी है, कि नारी बीच सारी है,
     कि सारी ही की नारी है, कि नारी ही की सारी है?

(2) मद भरे ये नलिन नयन मलीन हैं।
     अल्प जल में या विकल लघु मीन हैं।

(3) वह पूर्ण चन्द्र उगा है या सिकी सुन्दरी का मुखड़ा ।
       बदन सौंदर्य विखेर रहा है।

(4) कहूँ मानवी यदि मैं तुमको तो ऐसा संकोच कहाँ?
    कहू दानवी तो उसमें है यह लादण्य की लोच कहाँ ?
    वन देवी समझू तो वह तो होती है भेली-भाली ।

(5)  कैंधौ रितुराज काज अवनि उसाँस लेत।
          किधौं यह ग्रीषम की भीषण लुआर है।

(6) ये छीटें है उड़ते अथवा मोती बिखरे रहे है।

(7) की तुम तीन देव महँ कोऊ ?
       नर नारायण की तुम दोऊ ?

(8) कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं।
राम-लखन सखि। होहिं कि नाहीं।।

(9)  क्या शुभ्र हासिनी शरद घटा अवनी पर आकर है छायी।
        अथवा गिरकर नभ से कोई सुरबाला हुई धराशायी।।

(10) तुम हो अखिल विश्व में,
      या यह अखिल विश्व है तुममें ?
      अथवा अखिल विश्व तुम एक ?

(11) निद्रा के उस अलसित वन में, वह क्या भावी की छाया।
        दृग पलकों में विचर रही या वन्य देवियों की माया।।

(12) विरह है अथवा यह वरदान।

(13) मन मलीन तन सुन्दर कैसे।
      विषरस भरा कनक घट जैसे।।

(14) परिपूरण सिंदूर पूर कैधों मंगलघट |
किधौ शक्र को छत्र मढ्यो, किधौ मणिक मयूख पट ।।

(15) को तुम्ह श्यामल गौर सरीरा, छत्री रुप फिरहु बन बीरा ।
की तुम्ही देवमहं कोऊ, नर नारायण की तुम्ह दोऊ ।।


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                          ★★★ निवेदन ★★★

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