दृष्टांत अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / दृष्टांत अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

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दृष्टांत अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / दृष्टांत अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

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दृष्टांत अलंकार की परिभाषा

जहाँ पहले कोई बात कहकर, उससे मिलती-जुलती बात द्वारा दृष्टान्त दिया जाय; लेकिन समानता किसी शब्द द्वारा प्रकट न हो, वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है।
अर्थात
जब दो वाक्यों में दो भिन्न बातें बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव से प्रकट की जाती हैं, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं। इस प्रकार दृष्टान्त में उपमेय, उपमान और उनके साधारण धर्म बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।

उदाहरण –  सठ सुधरहिं सत संगति पाई।
                  पारस परस कुधात सुहाई ॥

स्पष्टीकरण –  यहाँ सत्संगति से सठ का सुधरना वैसा ही है, जैसे पारसमणि के स्पर्श से कुधातु का चमकना। यहाँ प्रथम वाक्य की सत्यता प्रतिपादित करने के लिए दृष्टान्त रूप से दूसरा वाक्य आया है।

उदाहरण –  सठ सुधरहिं सत संगति पाई।
                पारस परसि कुधातु सोहाई।।

स्पष्टीकरण – यहाँ प्रथम वाक्य की सत्यता प्रतिपादित करने के लिए दृष्टांत रूप में दूसरा वाक्य आया है और दोनों में एक ही विचार बिन्दु है- अच्छे के साथ से बुरे का अच्छा हो जाना। इस प्रकार, दोनों वाक्यों में बिम्ब- प्रतिबिम्ब भाव होने से यह दृष्टांत अलंकार है।

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उदाहरण – एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकती हैं।
             किसी और पर प्रेम नारियाँ पति का क्या सह सकती हैं?

स्पष्टीकरण – यहाँ एक म्यान में दो तलवारों का रहना वैसे ही असंभव है, जैसे एक पुरुष का दो नारियों पर अनुरक्त रहना। इस प्रकार यहाँ दोनों वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। अतः दृष्टांत अलंकार है।

दृष्टांत अलंकार के अन्य अलंकार

(1) दुसह दुराज प्रजानु को क्यों न बढ़े दुःख द्वन्द्व ?
     अधिक अँधेरौ जग करै, मिलि मावस रवि चन्द |

(2) सुख-दुःख के मधुर मिलन से,
        यह जीवन हो परि पुरन।
       फिर धन में ओझल हो शशि,
       फिर राशि में ओझल हो घन ॥ “

(3) श्रम ही सों सब मिलत है, निन श्रम मिलै न काहि।
     सीधी अंगुरी घी जम्यो, क्यों हू निकसत नांहि।।

(4) मनुष जनम दुरलभ अहै, होय न दूजी बार।
     पक्का फल जो गिरि परा, बहुरि न लागै डार।।

(5) पानी मनुज भी आज मुख से राम नाम निकालते।
     देखो भयंकर भेङिये भी, आज आँसू ढालते।।

(6) परी प्रेम नंदलाल के, हमहिं न भावत जोग।
      मधुप राजपद पाय के, भीख न मांगत लोग।।

(7) करत-करत अभ्यास के, जङमति होत सुजान।
     रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान।।

(8) रहिमन अँसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रकट करेइ।
      जाहि निकारौ गेह तें, कस न भेद कहि देइ।।



                            ★★★ निवेदन ★★★

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