भारत में चुनाव सुधार पर निबंध / essay on Election Reformation in hindi

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भारत में चुनाव सुधार पर निबंध / essay on Election Reformation in hindi

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रूपरेखा—(1) प्रस्तावना, (2) चुनाव सुधार, (3) न्यायपालिका तथा विधायिका में टकराव, (4) उपसंहार ।

प्रस्तावना –

भारत में चुनाव सुधार एक ऐसा जटिल मुद्दा है जिस पर जनता तथा न्यायपालिका लगभग एकमत है, लेकिन भ्रष्टाचार के गर्त में गोते लगाते राजनीतिज्ञों की पकड़ वाली विधायिका इसके प्रतिकूल अपना अलग मत रखती है। अब यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है कि लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के ही नहीं, स्थानीय निकायों का चुनाव जीतने के लिए भी उम्मीदवारों द्वारा अवैध तरीकों को अपनाया जाता है। सामान्यतौर पर उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि, अवैध तरीके से जमा की गई अकूत सम्पत्ति एवं आपराधिक व्यक्तियों के साथ उनकी साँठ-गाँठ तथा उन्हें चुनावों को अपने पक्ष में कर लेने के अवसर उपलब्ध कराती है। आपराधिक पृष्ठभूमि के सहारे ही मतदान स्थलों पर जबरन कब्जा कर लेने, फायरिंग करके अथवा डरा-धमकाकर वैध मतदाताओं का मतदान करने से रोकने अथवा फर्जी मत डलवाने जैसी घटनाएँ होना सम्भव हो पाती हैं।

चुनाव सुधार–

चुनाव प्रणाली को साफ-सुथरी बनाने की मुहिम चलाई जा रही है। चुनाव सुधारों के लिए अब तक तारकुण्डे समिति, गोस्वामी समिति, इन्द्रजीत गुप्त समिति अपने प्रतिवेदन सरकार को सौंप चुकी हैं। इन समितियों के सुझावों से इतर मुख्य चुनाव आयुक्त टी० एन० शेषन, गिल तथा लिंगदोह ने अपने स्तर और विधि संगत अधिकारों का प्रयोग करके चुनाव प्रणाली की खामियों को दूर करने का प्रयास किया है। इसी क्रम में भारत के उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय भी समय-समय पर चुनाव सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहे हैं। यह और बात है कि संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देकर भारत के राजनीतिज्ञ सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों को निष्प्रभावी करते रहने में भी पीछे नहीं रहे हैं।

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न्यायपालिका तथा विधायिका में टकराव-

हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए यह व्यवस्था दी थी कि लोक सभा, राज्यसभा, विधानसभा एवं विधान परिषद् का चुनाव लड़ने वाला प्रत्येक उम्मीदवार अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि, अपनी और अपनी पत्नी के नाम की समस्त सम्पत्ति और आय के स्रोतों और अपनी शैक्षणिक योग्यता का ब्यौरा, रिटर्निंग अधिकारी को दे। सर्वोच्च न्यायालय की इस व्यवस्था से राजनीतिज्ञों में खलबली मच गई।

इस निर्णय के विरुद्ध सत्तापक्ष एवं विपक्ष में सर्व-सम्मति कायम हो गई और मई, 2002 में चुनाव सुधार कानून बनाकर मात्र यह व्यवस्था की गई कि उम्मीदवार केवल उन्हीं आपराधिक मामलों की जानकारी देंगे जिन्हें न्यायालय ने संज्ञान में ले लिया सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध प्यूपिल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, लोक सत्ता तथा एसोसिएशन फॉर डेमाक्रेटिक रिफार्म्स ने नए सिरे से सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खण्ड-पीठ के न्यायमूर्ति एम० बी० शाह, न्यायमूर्ति पी० वी० रेड्डी एवं न्यायमूर्ति डी० एस० धर्माधिकारी ने जन प्रतिनिधित्व कानून में किए गए संशोधनों को असंवैधानिक करार दे दिया।

अलग-अलग लेकिन लगभग एक जैसे निर्णय में तीनों ही न्यायाधीशों ने कहा कि केन्द्र सरकार द्वारा जारी चुनाव सुधार अध्यादेश विधायिका के लिए, उचित उम्मीदवार चुनने के लिए मतदाताओं को सूचना पाने के अधिकारों में कटौती करता है, इसलिए यह पूरी तरह से असंवैधानिक है। न्यायाधीशों का मानना है कि पाने का अधिकार, संविधान के अनुच्छेद-19 के अन्तर्गत प्रायः एक मौलिक अधिकार है तथा यह प्रत्येक प्रकार से मतदाताओं के सूचना पाने के अधिकार से सम्बद्ध है।

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उपसंहार-

चुनाव सुधारों की दिशाएँ सर्वोच्च न्यायालय की उपर्युक्त पहल, निश्चित तौर पर स्वागत योग्य है, लेकिन इससे यह आशा करना रेत में पानी खोजना जैसा होगा कि अब आपराधिक पृष्ठभूमि अथवा अवैध कारोबार से अर्जित की गई सम्पत्ति का कोई स्वामी चुनाव नहीं जीत सकेगा। भारत की न्यायपालिका और न्यायिक प्रक्रिया में जिस प्रकार की खामियाँ हैं, उसके चलते किसी भी निर्णय को लागू करना आसान नहीं है। लेकिन फिर भी “अँधेरे को कोसने से अच्छा है कि एक दीप जलाया जाए” की उक्ति पर चलते हुए चुनाव प्रणाली को उत्तरोत्तर सुधारों की ओर ले जाने का मार्ग तो प्रशस्त होता ही है।

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