भारत में जातिप्रथा पर निबंध / essay on caste system in hindi

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भारत में जातिप्रथा पर निबंध / essay on caste system in hindi

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रूपरेखा—–(1) प्रस्तावना, (2) जाति प्रथा का प्रारम्भ, (3) जाति प्रथा का वर्तमान रूप, (4) उपसंहार।

प्रस्तावना —

प्रथा कोई भी क्यों न हो, उसका इतिहास पढ़ने पर हम उसकी बुनियाद मानव जीवन और समाज के हित पर ही रखी हुई पाते हैं। यह अलग बात है कि मानव की स्वार्थी मनोवृत्ति के कारण काफी समय बाद प्रथाएँ कुप्रथाएं बन जाया करती हैं। ऐतिहासिक काल-क्रम की दृष्टि से जाति प्रथा के साथ भी ऐसा ही हुआ है। मानव जीवन और समाज की भलाई की नींव पर रखी गई जाति प्रथा कभी उचित तो थी ही, लाभदायक मानी जाती थी। लेकिन आज की वैज्ञानिक मानवता इसे कुप्रथा और मानवता के माथे पर कलंक मानने लगी है। विचार करने की बात है, ऐसा क्यों हुआ?

जाति प्रथा का प्रारम्भ–

जब मानव सृष्टि का आरम्भ हुआ, तब यहाँ किसी की कोई जाति नहीं थी। सभी जंगलों में, पेड़ों पर और गुफाओं में रहा करते थे | शिकार करके अपना पेट भरते थे और आराम से पड़े रहते थे। धीरे-धीरे मानव जाति का विकास हुआ। वह समूह बनाकर रहने लगा। विकास के चरण में उसने गुफाओं से बाहर निकलकर पेड़ों से नीचे उतरकर झोंपड़ियाँ जैसे घर बनाने प्रारम्भ कर दिये। कुछ फसतें उगानी, आग जलानी सीखी और इस प्रकार मानवता का विकास हुआ । इस प्रकार उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए काम-धन्धे भी बढ़ते गये। जो जैसा काम-धन्धा करने में समर्थ होता, उसे वैसा ही काम दिया जाने लगा।

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यदि कुछ समय पश्चात् वह किसी भी कारणवश उस कार्य को करने के योग्य न रहता, तो उस कार्य को दूसरे को देकर उसे किसी अन्य कार्य में लगा दिया जाता। धीरे-धीरे काम-धन्धे रूढ़ होकर वर्ग एवं जाति प्रथा के जनक बन गये। अर्थात् एक जैसा कार्य करने वालों की एक जाति या वर्ग, दूसरे प्रकार का काम करने वालों की दूसरी जाति या वर्ग बन गये। जो अच्छे काम करने में समर्थ थे, वे उच्च जाति या वर्ग के कहे जाने लगे और निम्न कार्य करने वाले निम्न जाति या वर्ग के कहे जाने लगे तथा मध्य स्तर का काम करने वाले मध्य वर्ग या जाति के कहे जाने लगे।

ऐसा हो जाने पर भी काफी समय तक समाज में कार्य के आधार पर वर्ग या जाति में अपने आप परिवर्तन आता रहा अर्थात् निम्न काम करने वाला व्यक्ति यदि उच्च कार्य करने की योग्यता प्रदर्शित करता तो उसको अपने आप उच्च वर्ग या जाति का मान लिया जाता।

इसी प्रकार उच्च कार्य करने वाला व्यक्ति यदि निम्न कार्य करने लगता तो कार्य के आधार पर अपने आप ही उसकी जाति या वर्ग निम्न हो जाती। काफी समय तक यही स्थिति चलती रही बाद में जैसे-जैसे आदि मानव का विकास होता गया, उसकी स्वार्थपूर्ण मनोवृत्तियाँ भी विकसित होती गईं। फलस्वरूप अब वह कर्म से नहीं जन्म या जाति पर अपना अधिकार समझने और जताने लगा। आज जिस जाति प्रथा को कुप्रथा के रूप में बताया जाता है, कहा जा सकता है कि उस सबका आरम्भ यहीं से हुआ।

जाति प्रथा का वर्तमान रूप-

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आगे चलकर जैसे-जैसे समाज के साथ-साथ रहकर तरह-तरह के उपायों और वस्तुओं का भी विकास होता गया, अपना जातिगत अधिकार बनाये रखने की प्रवृत्ति भी विकास पाती गई। फलस्वरूप सब प्रकार से पतित और नीच कार्य करने वाला भी ब्राह्मण के घर में जन्म लेने वाला ब्राह्मण ही कहलाया। दूसरी ओर हर प्रकार से योग्य उच्चतम कार्य कर पाने में समर्थ होने पर भी शूद्र घर-परिवार में जन्मे व्यक्ति को शूद्र ही मानकर उसे उचित मानवीय अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता था। उच्च कही जाने वाली जातियों के हाथों में स्वार्थी लाठी का बल था, इसलिए समाज रूपी भैंस को वही हाँकने लगे। मध्य काल तक आते-आते इस जाति प्रथा का रूप और भी घिनौना, क्रूर और कुरूप हो गया ।

आधुनिक काल के आरम्भ में मानव समाज अधिक जागरूक और मानवतावादी दृष्टि वाला हो जाने के कारण जाति प्रथा को घृणित और कुप्रथा मानने लगा। इसमें सुधार लाने के लिए देश भर में अनेकों आन्दोलन चले। कुई बलिदान भी हुए, तब कहीं जाकर इस कुप्रथा का सामाजिक, व्यावहारिक और कानूनी रूप में कुछ निराकरण हो पाया है। आज भारतीय समाज में संवैधानिक रूप में जातिवादी कुप्रथा का अन्त घोषित कर सभी को उन्नति और विकास का समान अवसर तथा समान सुविधाएँ पाने का पूर्ण अधिकार प्रदान किया गया है।

उपसंहार –

संविधान की दृष्टि से कानून बनाकर जाति प्रथा यद्यपि समाप्त कर दी गयी है लेकिन व्यावहारिक रूप से अभी इसका समाप्त होना बाकी है। इसके लिए बहुत प्रयत्न करने की आवश्यकता है। नगरों और महानगरों में तो आज जातिगत विशेष पहचान नहीं रह गयी है, लेकिन कस्बों और ग्रामों में तो आज इस प्रथा के घिनौने रूप का ताण्डव या नंगा नाच प्रायः होता रहता है। बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान आदि प्रदेशों में विशेष रूप से अभी बहुत अधिक काम करने की आवश्यकता है, उसके बाद हीं इस कुप्रथा से छुटकारा पाया जा सकता है।

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