थार्नडाइक के अधिगम या सीखने के नियम / laws of learning in hindi

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थार्नडाइक के अधिगम या सीखने के नियम / laws of learning in hindi

थार्नडाइक के अधिगम या सीखने के नियम / laws of learning in hindi

अधिगम के नियम / थार्नडाइक के सीखने के नियम

थार्नडाइक अधिगम मनोविज्ञान का प्राण है। अधिगम को यदि मनोविज्ञान से विलग कर दिया जायेगा तो मनोविज्ञान मृतप्राय हो जायेगा। इसका प्रमुख कारण-व्यवहार एवं अस्तित्व । अधिगम की जाने वाली हर क्रिया व्यवहार द्वारा संचालित होती है। मनोविज्ञान में प्रयोगात्मक परीक्षणों ने सीखने के सिद्धान्तों की व्याख्या करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उस सिद्धान्त को समझने के लिये दूसरा अत्यावश्यक होता है। प्रयोग एवं परीक्षण के मध्य उठायी गयी समस्याएँ निष्कर्ष निकलते ही गौण हो जाती हैं।

थॉर्नडाइक ने अधिगम की क्रिया में प्रभाव को अधिक महत्व दिया है।
उद्दीपन का प्रभाव प्राणी पर अवश्य पड़ता है। उद्दीपन के कारण ही वह किसी भी क्रिया को रुचिपूर्वक ग्रहण करता है। प्राणी जिस कार्य निष्पादन के पश्चात् सन्तोष प्राप्त करता है, उपयोगिता का अनुभव करता है उसी कार्य को करता है तभी वह उस कार्य को करने में रुचि लेता है। अनेकों प्रयोगों के पश्चात् थॉर्नडाइक ने कुछ प्रमुख नियमों की रचना की है। थार्नडाइक ने अपने प्रयोगों के आधार पर कुछ सीखने के नियमों का प्रतिपादन किया है। जिन्हें दो वर्गों में विभक्त किया गया है – मुख्य नियम तथा गौण नियम।

मुख्य नियम ( main laws of learning)

(1) तत्परता का नियम (Law of Readiness)
(2) प्रभाव का नियम ( Law of effect)
(3) अभ्यास का नियम ( Law of Experience )

गौण नियम ( secondary laws of learning)

(1) बहु अनुक्रिया का नियम
(2) मानसिक स्थिति का नियम
(3) आंशिक क्रिया का नियम
(4) सादृश्य अनुक्रिया का नियम
(5) साहचर्य स्थानान्तरण का नियम

सीखने ( अधिगम ) के मुख्य नियम / थार्नडाइक के मुख्य नियम ( main laws of learning)

(1) तत्परता का नियम ( laws of readiness)

सीखने की दशा में तन्त्रिका तन्त्र में उद्दीपकों और प्रतिक्रियाओं के बीच संयोग बन जाता है। इन संयोगों को (SR) सूत्र द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। थॉर्नडाइक ने लिखा है–“जब कोई संवहन इकाई संवहन के लिये तैयार होती है, तब उसके लिये संवहन करना सन्तोषप्रद होता है। जब कोई संवहन इकाई संवहन करने को तैयार नहीं होती है, तब उसके लिये संवहन करना असन्तोषप्रद होता है। जब कोई संवहन इकाई संवहन के लिये तैयार हो, तब उसके लिये संवहन न करना भी खिजाने वाला होता है।”

इस नियम का तात्पर्य या आधार सीखने के लिए हमेशा या तत्पर रहना है। जैसे- बालक जिस पाठ को पढ़ने के लिए तैयार रहता है वह पाठ उसे शीघ्र याद हो जाता है। थार्नडाइक के मतानुसार जब सीखने की क्रिया को सम्पादित करने के लिए कोई जीव प्रस्तुत होता है, तो क्रिया के सम्पादन में सन्तोष मिलता है। जब व्यक्ति कार्य करने के लिए तत्पर नहीं होता है तो उसे कार्य से असंतोष मिलता है। भाटिया के अनुसार,”तत्परता या किसी कार्य के लिए तैयार होना, युद्ध को आधा विजय कर लेना है।”

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थॉर्नडाइक ने इस नियम के अन्तर्गत अन बातों की व्याख्या की है

(i) व्यवहार करने वाली संवाहक इकाई (Conductor unit) तत्पर होती है तो व्यवहार करने से संतोष की अनुभूति होती है।

(ii) व्यवहार करने वाली इकाई जब कार्य करने को तत्पर नहीं होती तो उस समय कार्य करना मानसिक तनाव उत्पन्न करता है जिससे कष्ट की अनुभूति होती है।

(iii) जब बात व्यवहार करने वाली इकाई को (प्राणी को) बलपूर्वक कार्य करवाने का प्रयास किया जाता है तब भी उसे असन्तोष, कष्ट एवं तनाव की अनुभूति होती है।

तत्परता के नियम का कक्षा शिक्षण में प्रयोग और महत्व

(i) नवीन ज्ञान देने से पूर्व छात्रों को मानसिक रूप से नये ज्ञान को
ग्रहण करने के लिये तैयार करना चाहिए । इसमें छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नता को भी दृष्टि में रखना चाहिए।

(ii) छात्र नवीन ज्ञान को ग्रहण करने हेतु जब तक मानसिक रूप से तैयार न हो जायें, उन्हें बाध्य नहीं करना चाहिए। इस नियम को मानसिक तत्परता का नियम कहा जाता है।

(iii) कक्षा शिक्षण से पूर्व छात्रों की रुचियों, अभिक्षमताओं योग्यता आदि का परीक्षण कर लेना चाहिए जिससे छात्रों के सीखने का ढंग ज्ञात हो जाये।

(iv) छात्रों में मानसिक तत्परता तथा सीखने की रुचि नवीन शिक्षण विधियों द्वारा उत्पन्न की जा सकती हैं।

(v) बालकों में अधिगम के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करनी चाहिए।

(2) प्रभाव का नियम ( Law of effect)

इस नियम को ‘सन्तोष एवं असन्तोष’ का नियम भी कहते हैं। थॉर्नडाइक ने स्पष्ट किया है-“जब एक स्थिति और प्रतिक्रिया के बीच एक परिवर्तनीय सम्बन्ध बन जाता है और सन्तोषजनक अवस्था उत्पन्न हो जाती है, तो उस संयोग की शक्ति बढ़ जाती है। जब इस संयोग के साथ या इसके बाद दुःखदायी स्थिति पैदा हो जाती है है, तो उसकी शक्ति घट जाती है।”  इसके अनुसार जिस कार्य को करने से प्राणी को हितकर परिणाम प्राप्त होते हैं और जिसमें सुख वा सन्तोष प्राप्त होता है उसी को व्यक्ति दोहराता है। इस कार्य में अधिगम की मात्रा बढ़ जाती है।  इसके विपरीत यदि परिणाम असन्तोषप्रद हुआ तो बुरा प्रभाव पड़ता है और दुखद फल मिलता है उसे व्यक्ति नहीं दोहराना चाहता। इस कार्य में अधिगम की मात्रा घट जाती है।

हिलगार्ड तथा बॉअर (Hilgard and Bower, 1975) ने इस नियम की व्याख्या करते हुये कहा है– ”प्रभाव के नियम में किसी उद्दीपक व अनुक्रिया का सम्बन्ध उसके प्रभाव के आधार पर मजबूत या कमजोर होता है। यह सम्बन्ध ऐसा होता है कि उससे जब व्यक्ति में सन्तोषजनक प्रभाव होता है तो इसमें सम्बन्ध की शक्ति बढ़ जाती है तथा जब सम्बन्ध ऐसा होता है कि उससे व्यक्ति में असंतोषजनक प्रभाव होता है तो उसकी शक्ति स्वतः कम होती जाती है।”

प्रभाव के नियम का कक्षा शिक्षण में प्रयोग और महत्व

(i) छात्रों को सीखने के लिये प्रोत्साहित तथा अभिप्रेरित किया जाये। क्रिया की समाप्ति पर पुरस्कार तथा दण्ड की व्यवस्था की जाये। इससे अधिगम प्रभाव स्थायी हो जाते हैं।

(ii) विद्यालय में शिक्षक छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं तथा उनके मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुये अधिगम क्रियायें कराये । इससे छात्रों को नवीन विषयवस्तु को सीखने में सफलता मिलती है ।

(iii) शिक्षक को कक्षा शिक्षण में नवीन क्रियाओं को सिखाते समय शिक्षण विधियों में भी विविधता लानी चाहिए, उसकी उपयोग में ली गई शिक्षण विधियाँ भी नवीन तथा रोचक हो।

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(iv) शिक्षण कार्य करते समय अध्यापक को ऐसी विधियाँ अपनानी चाहिए जिससे छात्रों को सन्तोषप्रद अनुभव प्राप्त हो सकें। छात्रों को ज्यादा भला-बुरा नहीं कहना चाहिए।

(3) अभ्यास का नियम ( Law of experience)

इस नियम का तात्पर्य सीखने की क्रिया बार-बार करने या दोहराने से वह याद हो जाता है और उसकी आदत पड़ जाती है जबकि छोड़ देने पर अथवा न दोहराने पर वह भूल जाती है, अर्थात यह नियम अभ्यास करने या अभ्यास न करने पर आधारित है। जैसे- कविता और पहाड़े याद करने के लिए उन्हें बार-बार दोहराना पड़ता है तथा अभ्यास के साथ-साथ उपयोग में भी लाना पड़ता है। ऐसा न करने पर सीखा हुआ काम भी भूलने लगता है। इसे थार्नडाइक ने उपयोग का नियम भी कहा है।

इसी सन्दर्भ में रहीम दास’ जी ने कहा है-

करत-करत अभ्यास ते जड़मत होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निसान।”

अभ्यास का नियम दो भागों में विभक्त है-

(अ) उपयोग का नियम (Law of Use) यह नियम इस बात पर बल देता है कि मनुष्य जिस कार्य को बार-बार दोहराता है, उसे शीघ्र ही सीख जाता है।

(ब) अनुपयोग का नियम (Law of Disuse)-जब हम किसी पाठ या विषय को दोहराना बंद कर देते हैं तो हम उसे धीरे-धीरे भूलते चले जाते हैं। इसे ही अनुपयोग का नियम कहा जाता है।

अभ्यास के नियम का कक्षा शिक्षण में प्रयोग और महत्व

(i) इस नियम के अनुसार बालकों को सिखायी जाने वाली क्रिया को दृढ़ करने के लिये उन्हें पर्याप्त अभ्यास कराया जाये।

(ii) कक्षा-कक्ष में पढ़ाई गई विषयवस्तु का मौखिक अभ्यास कराया जाये।

(iii) कक्षा में पढ़ाई गयी विषयवस्तु का (पाठों का) शिक्षक द्वारा समय-समय पर पुनर्निरीक्षण अवश्य होते रहना चाहिए। इससे बालकों का मस्तिष्क ज्ञान के प्रति सचेष्ट बना रहता है।

(iv) कक्षा-कक्ष में छात्रों को समयानुकूल वाद-विवाद कराया जाये। इससे बालक की मौखिक अभिव्यक्ति का विकास होता है।

सीखने ( अधिगम ) के गौण नियम / थार्नडाइक के गौण नियम ( secondary laws of learning)

(i) बहु-अनुक्रिया का नियम (Law of Multiple Response)

इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति के सामने कोई भी समस्या आती है तो वह उसे सुलझाने के लिये अनेक प्रकार की अनुक्रियायें करता है और इन अनुक्रियाओं के करने का क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि वह सही अनुक्रिया के रूप में समस्या का समाधान नहीं कर लेता। इस प्रकार अपनी समस्या के सुलझने पर व्यक्ति संतोष का अनुभव करता है।

(ii) मानसिक स्थिति का नियम (Law of Mental Set)

किसी भी प्राणी के सीखने की योग्यता उसकी अभिवृत्ति (Attitude) तथा मनोवृत्ति (Disposition) द्वारा निर्देशित होती है। यदि व्यक्ति की किसी कार्य को सीखने में रुचि व तत्परता है तो वह उसे शीघ्र ही सीख लेता है किन्तु यदि प्राणी मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिये तत्पर नहीं है तो वह उस क्रिया को या तो सीख ही नहीं पायेगा या फिर उसे कठिनाइयों से जूझना पड़ेगा।

(iii) आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity)

-यह नियम इस बात पर बल देता है कि कोई एक प्रतिक्रिया सम्पूर्ण स्थिति के प्रति नहीं होती। यह केवल संपूर्ण स्थिति के कुछ पक्षों अथवा अशों के प्रति ही होती है। अतः इस नियम के अनुसार किसी कार्य को अंशतः विभाजित करके किया जाता है तो वह शीघ्रता से सीखा जा सकता है।

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(iv) सादृश्य अनुक्रिया का नियम (Law of Similarity or Analogy)

इस नियम का आधार पूर्व अनुभव है। प्राणी किसी नवीन परिस्थिति या समस्या के उपस्थित होने पर उससे मिलती-जुलती अन्य परिस्थिति या समस्या का स्मरण करता है जिसे वह पहले भी अनुभव कर चुका है। वह उसके प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया करेगा जैसा कि उसने पहली परिस्थिति एवं समस्या के साथ की थी। समान तत्वों के आधार पर नवीन ज्ञान का पुराने अनुभवों से आत्मसात या समानता करने पर सीखने में सरलता तथा शीघ्रता होती है।

(v) साहचर्यात्मक स्थानान्तरण का नियम (Law of Associative Shifting)

इस नियम के अनुसार जो अनुक्रिया किसी एक उत्तेजक के प्रति होती है वही अनुक्रिया बाद में उस उतेजना से सम्बन्धित तथा
किसी अन्य उद्दीपक के प्रति भी होने लगती है। थार्नडाइक ने अनुकूलित- अनुक्रिया (Conditioned response) को ही साहचर्य परिवर्तन के नियम के रूप में व्यक्त किया।

सीखने के नियमों का शैक्षिक महत्त्व (Educational Implication of Laws of Learning)

विद्वानों ने सीखने की क्षमता को बढ़ावा देने के लिए सीखने के नियमों का शैक्षिक महत्व माना है जो निम्नवत है-

1. उद्देश्यों की स्पष्टता (Clarity of Aims)

शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान का उद्देश्य निश्चित, स्पष्ट एवं जीवनोपयोगी होना चाहिए। जब बच्चे उसे सीख लेगें तो स्वतः ही सीखने के क्षेत्र में अपने ध्यान को एकाग्र कर सकेगे।

2. उपयुक्त ज्ञान एवं क्रिया का चयन

बच्चे की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का मूल्यांकन करने के बाद ही सीखने वाले को उपयुक्त ज्ञान एवं क्रिया और विधि का चुनाव करना चाहिए। इससे उसे स्थानान्तरण एवं अभ्यास में सरलता होती है।

3. अभ्यास जागृत करना (To Awake Exercise)

शिक्षक को विषय अथवा पाठ बार-बार दोहराकर अभ्यास करना चाहिए। शिक्षक द्वारा छात्रों को यह बतलाना कि बार-बार अभ्यास करने से सीखा गया ज्ञान स्थाई रहता है तथा बिना अभ्यास के वह विस्मृत हो जाता है।

4. तत्परता जागृत करना (TO Awake Readiness)

बच्चा/छात्र अपने कार्य को तभी सीख सकते है जब वह सीखने के लिए तैयार होगें। तत्परता बच्चों की रुचि, उत्साह, शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य आदि पर निर्भर करता है।

5. स्वक्रिया पर बल (Stress on Self Action)

अधिगमकर्ता को स्वयं हाथों से कार्य को करके सीखना चाहिए। इससे उसका अनुभव मजबूत एवं स्थायी होता है। इससे स्वनिर्भरता का विकास होता है।

6. प्रेरकों का प्रयोग ( use of motives )

सीखने के नियमों से स्पष्ट है कि सीखन के लिये प्रेरकों का प्रयोग आवश्यक है। जब हम बालकों को पुरस्कार एवं दण्ड, प्रशंसा एवं निन्दा के द्वारा सीखने के लिये तैयार करते हैं, तो वे सीखने के प्रति उत्साह एवं रुचि को प्रकट करते हैं। अतः उनके सीखने में शीघ्र उन्नति होती है।


                                        निवेदन

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