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आरक्षण की समस्या पर निबंध / essay on problems of reservation in hindi
रूपरेखा (1) प्रस्तावना, (2) जन्म पर आधारित व्यवस्था, (3) आरक्षण का इतिहास, (4) आरक्षण की सीमा, (5) आर्थिक आधार का औचित्य, (6) मेधावी छात्रों के साथ अन्याय, (7) उपसंहार।
प्रस्तावना-
सन् 1978 के पश्चात् आरक्षण विरोधी आन्दोलन तीव्र होने लगे। राष्ट्रव्यापी स्तर पर इस आन्दोलन को भड़काने का प्रयास किया गया। चुनाव के अवसर पर गुजरात 18 प्रतिशत तथा मध्य प्रदेश में 29 प्रतिशत अतिरिक्त । चुनावों के पश्चात् इसे स्थगित कर दिया गया। सवर्ण हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग जो कि हरिजनों एवं अनुसूचित जातियों की तरह ही बेकारी और है कि यह आरक्षण कहीं स्थायी व्यवस्था अशिक्षा से पिस रहा है, इस आरक्षण का विरोध कर रहा है। यह वर्ग चिन्तित नहीं बन जाएगा? आरक्षण का आधार जाति क्यों, निर्धनता क्यों नहीं? इस प्रकार के असंख्य प्रश्न सवर्णों के मन में उठते रहते हैं। आरक्षण पर विचार करने के लिए हमें इसकी ऐतिहासिक में पृष्ठभूमि में जाना होगा।
जन्म पर आधारित व्यवस्था –
गुण एवं कर्म के आधार पर स्थापित जाति व्यवस्था क्रमशः जन्म पर आधारित हो गई। जाति विशेष में उत्पन्न व्यक्ति के लिए कर्म तथा प्रतिष्ठा पहले ही सुरक्षित की जाने लगी। हिन्दू समाज अत्यन्त संकीर्ण हो गया। हरिजनों के लिए मन्दिरों के दरवाजे बन्द हो गए, सवर्णों के कुओं से वे पानी नहीं भर सकते थे, शिक्षा उनकी पहुँच से दूर कर दी गई,धर्म-ग्रन्थों को वे छू नहीं सकते थे। निम्न जाति का व्यक्ति उच्च पद पर पहुँच कर भी सम्मान का अधिकारी नहीं था। जाति-व्यवस्था से उत्पन्न विसंगतियों के कारण आज देश के अधिकांश अशिक्षित एवं गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों में हरिजन, आदिवासी तथा पिछड़ी जातियों के हैं।
भारत के 75 प्रतिशत नागरिक ऐसे हैं जो कि शिक्षा, शासन, सम्पत्ति एवं सम्मान के अधिकार से वंचित हैं। इन लोगों की उन्नति के बिना राष्ट्रीय विकास असम्भव है। । कुछ लोग आरक्षण को नागरिकों के समान अवसर के अधिकार का उल्लंघन मानते हैं। परन्तु यह सच्चाई नहीं है क्योंकि अवसर की समानता, समान लोगों को देने पर ही न्याय हो सकता है परन्तु जो पहले से ही पिछड़े हुए हैं उन्हें सवर्णों के मुकाबले खड़े करना अनुचित है क्योंकि वे उनसे प्रतियोगिता में जीत नहीं सकते। समानता पर आधारित जिस समाज की रचना करना चाहते हैं, वह कल्पित अवसर की समानता से नहीं आ पाएगा तथा पिछड़े हुए लोग पिछड़े ही रह जायेगे।
आरक्षण का इतिहास –
काका कालेलकर आयोग 29 जून, 1953 को गठित हुआ और उसने सन् 1955 में अपनी रिपोर्ट दी। परन्तु रिपोर्ट सर्वसम्मत न होने के कारण इस रिर्पोट को महत्त्व नहीं दिया गया। 1 जनवरी, 1979 को मण्डल आयोग का गठन किया गया और उसने 31 दिसम्बर, 1980 को अपनी रिपोर्ट दी। उसने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए अलग से 27 प्रतिशत आरक्षण का सुझाव दिया ताकि अनुसूचित और जन-जातियों के लिए किए गए आरक्षण के साथ मिलकर यह आरक्षण 50 प्रतिशत हो जाए। इसी प्रकार 10 राज्यों में 15 कमीशनों का गठन किया गया।
आरक्षण की सीमा –
सेवा तथा शिक्षा सम्बन्धी आरक्षण के लिए काल सीमा का कोई बन्धन संविधान में नहीं है। लोक सभा तथा राज्य विधान मण्डलों के लिए यह अवधि पहले-पहल 10 वर्ष रखी गई थी बाद में यह 10-10 वर्ष के लिए और बढ़ाकर 2000 तक कर दी गई।
आर्थिक आधार का औचित्य-
आरक्षण के प्रश्न पर पहला विरोधी स्वर इस बात को लेकर उठा कि आरक्षण यदि होना ही है तो आर्थिक आधार पर क्यों नहीं? सवर्ण जातियों के निर्धनों को भी विशेष अवसर मिलने चाहिए। पिछड़ी जातियों की दुर्दशा केवल आर्थिक कारणों से नहीं। उनका सामाजिक तथा शैक्षिक पिछड़ापन उनकी निर्धनता का कारण भी बना है। जाति मनुष्यों का एक वर्ग है यदि सामान्यतः पूरा वर्ग पिछड़ा है तो जातीय आधार पर पिछड़ापन मानना अनुचित नहीं है।
मेधावी छात्रों के साथ अन्याय-
यह भी कहा जा सकता है कि जिन मेधावी छात्रों को आरक्षण के कारण अवसर नहीं मिलता उनके साथ अन्याय होता है। इस समस्या का दूसरा पहलू यह भी है कि यदि आरक्षण समाप्त भी हो जाए तब क्या सभी को व्यावसायिक महाविद्यालयों में प्रवेश मिल जाएगा या नौकरियाँ मिल जायेंगी ? निश्चय ही उत्तर नकारात्मक है परन्तु ऐसा करने से पिछड़ी जातियाँ पिछड़ी ही रह जायेंगी।
उपसंहार-
आरक्षण का एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह है कि राजनीतिज्ञों ने इसे वोट पाने और अपनी गद्दी स्थिर करने का साधन बना लिया है। पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए आरक्षण भी एक उपाय है परन्तु इसे एक मात्र उपाय नहीं माना जा सकता।
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◆◆◆ निवेदन ◆◆◆
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