बालक का मानसिक विकास / भिन्न अवस्थाओं में मानसिक विकास / mental development of child in hindi

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mental development of child in hindi / बालक का मानसिक विकास / भिन्न अवस्थाओं में मानसिक विकास

बालक का मानसिक विकास / भिन्न अवस्थाओं में मानसिक विकास / mental development of child in hindi
भिन्न अवस्थाओं में मानसिक विकास / mental development of child in hindi

बालक का मानसिक विकास

बालक जब पैदा होता है तो वह असहाय अवस्था में होता है तथा मानसिक क्षमता में भी पूर्ण अविकसित होता है। उम्र की वृद्धि एवं विकास के साथ-साथ बालकों की मानसिक योग्यता में भी वृद्धि होती है। इस पर वंशानुक्रम एवं वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।

मानसिक विकास एक सतत् प्रक्रिया है। जैसे-जैसे आयु वृद्धि के साथ-साथ मस्तिष्क विकसित होता जाता है वैसे ही वैसे उसका मानसिक विकास होता जाता है। मानसिक विकास के कारण ही प्राणी अपने चारों ओर के वातावरण का ज्ञान प्राप्त कर धीरे-धीरे उसके साथ समायोजन करता है।

जैसे – शैशवावस्था में शिशु केवल अपनी भूख की आवश्यकता को महसूस करता है और भूख होने पर रोने लगता है, लेकिन आयु वृद्धि के साथ-साथ वह विभिन्न सकेतों से अपने आसपास रहने वाले व्यक्तियों को यह आभास कराता है कि वह भूखा है। एक वर्ष का बालक अपनी दूध की बोतल उठाकर माँ के पास ले जाता है। तथा भाषा विकास होने पर वह बोलकर खाने-पीने की वस्तुओं को माँगता है।

जेम्सईवर के अनुसार “व्यक्ति के जन्म से परिपक्वता तक मानसिक क्षमता एवं मानसिक उत्तरोत्तर प्रकरण एवं संगठन की प्रक्रिया को मानसिक विकास कहा जाता है।” आयु एवं अवस्था की दृष्टि से मानसिक विकास को निम्न अवस्थाओं में वर्गीकृत किया गया है।
(i) शैशवावस्था
(ii) बाल्यावस्था
(iii) किशोरावस्था

विलियम जेम्स के अनुसार,” जन्म के समय बच्चे का मन साफ स्लेट की तरह होता है।

रूसो के अनुसार,” बालक का मन कोरा कागज होता है।”

बालक का मस्तिष्क कोरा स्लेट होता है।-प्लेटो

बालक का मस्तिष्क कोरा कागज होता है। जिस पर अनुभव लिखता है। – जॉन लाक

हरलॉक के अनुसार-“मानसिक दृष्टि से परिपक्व व्यक्ति वह है जो
बौद्धिक रूप से चरम सीमा तक पहुंच चुका है।”

जेम्स ड्रेवर (1984) ने मानसिक विकास को परिभाषित करते हुए लिखा है कि-“व्यक्ति के जन्म से लेकर परिपक्वावस्था तक की मानसिक क्षमताओं एवं मानसिक कार्यों के उत्तरोत्तर प्रकटन (Appearence) एवं संगठन (Organisation) की प्रक्रिया को मानसिक विकास की प्रक्रिया कहा जाता है।

मानसिक विकास की विशेषताएँ (Characteristics of Mental Devel-opment)

बालक के मानसिक विकास की निम्न विशेषताएँ हैं-

(1) मानसिक विकास शिशु की आयु के साथ बढ़ता रहता है।

(2) मानसिक विकास के फलस्वरूप बालक की बुद्धि एवं अभिरुचियों में फैलाव होता है।

(3) नवीन विचारों एवं चिन्तन का विकास मानसिक विकास के फलस्वरूप होता है।

(4) मानसिक विकास के साथ-साथ बालकों को समय का सही-सही ज्ञान हो जाता है।

(5) मानसिक विकास के साथ-साथ बालक अपनी मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति हावभाव के माध्यम से करने लगता है।

(6) मानसिक विकास की एक विशेषता यह है कि इससे बालकों में योजना बनाने की क्षमता का विकास हो जाता है।

(7) बौद्धिक विकास में क्रमबद्धता पायी जाती है।

(8) इसके विकास से बालक गत अनुभवों से लाभ उठाने लगता है।

(9) इसके विकास से बालकों में निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो जाता है।

शैशवावस्था में मानसिक विकास

सोरेनसन का मानना है कि जैसे-जैसे दिन प्रतिदिन बालक की आयु बढ़ती है वैसे-वैसे ही उसके मानसिक शक्तियों का विकास भी तीव्र हो जाता है। बालक के जन्म के बाद ही उसमें संवेदना की क्षमता, तीन महीने तक संवेगात्मक विकास एक वर्ष में दृष्टि कल्पना आदि का विकास प्रारम्भ हो जाता है।

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आयु                                 मानसिक विकास

जन्म से 2 सप्ताह – वह केवल अपनी शारीरिक दशाओं के अनुसार प्रतिवर्त क्रियायें; जैसे-रोना, सास लेना, अधिक सर्दी लगने पर कांपना, आदि प्रदर्शित करता है।

पहला माह – भूख का अनुभव, रोना, जोर की आवाज (डर एवं खुशी) सहसा चौंकना। अकेला छोड़े जाने पर रोने लगता है और माँ तथा अन्य व्यक्तियों के सामने आने पर उनको गोद में जाने के लिये हाथ उठा देता है या उन्हें पकड़ने की चेष्टा करता है।

द्वितीय माह–प्रकाश एवं ध्वनि के प्रति आकर्षण, ध्वनियाँ उत्पन्न करना, किसी वस्तु को ध्यान से देखना। कोई व्यक्ति और वस्तुयें उसके सामने आती है उन्हें ध्यान से देखने लगता है। माँ को देखकर प्रसन्न होता है और अस्पष्ट ध्वनि मुँह से निकालने लगता है।

तीसरा माह – 3 माह का शिशु वस्तुओं पर और अधिक ध्यान केंद्रित करने लगता है। कोई भी वस्तुओं को हाथों से कसकर पकड़ लेता है।तीन माह के शिशु में ध्यान और विवेक की योग्यता का विकास होने लगता है।

चौथा माह– किसी वस्तु को पकड़ना, परिचित को देखकर मुस्कुराना, कुछ शब्दों की ध्वनियाँ करना। इस अवधि में शिशु क्रोध और स्नेह में अन्तर समझने लगता है। इस समय उसमें जिज्ञासा का भाव भी देखा जाता है। क्योंकि जब उसके पास से वस्तुओं को हटा लिया जाता है तो वह उन्हें खींचने का प्रयास
करता है।

पाँचवा माह – माँ को अच्छी तरह पहचानने लगता है इसलिये उसी के सम्पर्क में रहना चाहता है। माँ के साथ प्रसन्नता का अनुभव करता है और माँ से अलग होने पर कंपन करता है।

छठा माह–आवाज का अनुकरण करना, प्रेम एवं क्रोध में अन्तर जानना वस्तुओं को मुंह में डालना। इस अवस्था में बालक में अनुकरण की क्षमता का विकास हो जाता है। वह बड़ों के हावभावों का अनुकरण करने लगता है।

सातवाँ माह – सात माह का शिशु विभिन्न वस्तुओं को स्पष्ट रूप से पहचानने लगता है, जैसे यदि उसे दूध के समय पानी देने पर वह स्पष्ट रूप से नकारात्मक उत्तर देता है। इस समय उसकी इन्द्रियों का पर्याप्त विकास हो जाता है अत: ठंडा,गर्म, खट्टा, मीठा, प्रकाश, अंधकार आदि वस्तुओं का ज्ञान होने लगता है।

आठवाँ माह–मनपसन्द खिलौने लेना, आपसी बच्चों में खेलना।अनुकरण शक्ति का विकास और अधिक हो जाता है। वह अपनी विभिन्न वस्तुओं को पहचानता है इसलिये उसका खिलौना दूसरे बालक द्वारा ले लिये जाने पर क्रोधित हो जाता है।

नवां माह-शिशु की अवबोधन शक्ति बढ़ जाती है। समान आयु के
बच्चों को पहचानकर उनके साथ खेलता है। सामूहिक क्रियाओं में उसे आनंद आता है।

दसवाँ माह– घुटनों के बल चलना, दूसरों की गतिविधियों का अनुकरण करना। इस अवस्था में वह सहयोग और विरोध दोनों का प्रकाशन करता है। इस समय ईर्ष्या प्रवृत्ति भी बालकों में देखी जाती है। अपनी भाषा द्वारा दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करता है।

ग्यारहवाँ व बारहवाँ माह-भाषा विकास अधिक हो जाता है। इस समय वह अस्पष्ट एक अक्षरीय भाषा का प्रयोग करता है। भिन्नता की भावना का विकास होता है जिससे अन्य लोगों के साथ रहना भी सीखता है। निरीक्षण क्षमता का विकास होता है फलस्वरूप वह विभिन्न वस्तुओं को उठाकर और छूकर देखता है।

प्रथम वर्ष–छोटे-छोटे शब्द बोलना जैसे- मा, मामा, मम, पापा आदि। वह अपनी भाषा द्वारा दूसरों तक अपने विचारों को पहुँचाने का प्रयास करता है। एक शब्दीय वाक्यों को बोलता है।

द्वितीय वर्ष–अपना नाम बताना, दो तीन शब्दों का वाक्य बनाना। बालक छोटे-छोटे शब्दों, अंकों आदि को सीख जाता है।

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तृतीय वर्ष–संख्याओं को दोहराना, 5-7 शब्दों का वाक्य बनाना। इस अवस्था में जिज्ञासा शक्ति बढ़ती है अतः बालक विभिन्न वस्तुओं के सम्बन्ध में प्रश्न करने लगता है। मानसिक शक्ति का विकास होता है जिससे वह अपना नाम, कुछ फल, अपने शरीर के अंग आदि को संकेतों से बता देता है। दैनिक प्रयोग की विभिन्न वस्तुयें माँगने पर उठाकर ले आता है।

चतुर्थ वर्ष–छोटे बड़ों की समझ, कम ज्यादा का समझ, अक्षर ज्ञान, गिनती पढ़ना। बालक को सौ तक के अंकों का ज्ञान हो जाता है और पैसों के बारे में जानता है। वह छोटी और बड़ी रेखा में अंतर जानता है।

पंचम् वर्ष–रंगों को पहचानना, बड़े वाक्यों को बोलना, नाम लिखने लगना।इस अवस्था में उसे विभिन्न वस्तुओं के तुलनात्मक अध्ययन की जानकारी होती जाती है वह अपना नाम, पता, परिवार के लोगों का नाम तथा पास-पड़ोस के बारे में जानकारी रखता है। विभिन्न प्रत्ययों जैसे-रंग, समय, दिन, भार, संख्या आदि का ज्ञान हो जाता है।

को एण्ड क्रो’ के मतानुसार जब शिशु 6 वर्ष का हो जाता है, तो उसमें रुचि, जिज्ञासा, चिन्तन, स्मरण और समस्या समाधान जैसे गुणों का मानसिक विकास हो जाता है।

बाल्यावस्था में मानसिक विकास

इस अवस्था में बच्चों के मानसिक विकास पर शिक्षक, मित्रगण, अभिभावक एवं सामाजिक वातावरण इत्यादि का प्रभाव पड़ने लगता है, जिससे बालक का मानसिक वृद्धि एवं उन्नति होती है। शरीर व मस्तिष्क के बढ़ने के साथ विचार करने स्मरण करने कल्पना करने, भाषा का प्रयोग करने को प्रकट करने और समझने में काफी वृद्धि होती है। इसी कारण कार्ल एवं बूस ने इस अवस्था को जीवन का अनोखा काल’ कहा है। यह काल 6 से 12 वर्ष तक चलती है।

आयु                        मानसिक विकास

छठा वर्ष – चित्र में बनी वस्तुओं का नाम, सरल प्रश्नों के उत्तर दे देना, 12-14 तक की गिनती बिना हिचके सुना देना, शारीरिक अंगों के नाम बता देना। ध्यान की क्षमता में भी विकास होता है। विभिन्न प्रश्नों के उत्तर अपनी तर्क क्षमता के आधार पर देने लगता है।

सातवां वर्ष – दो वस्तुओं के बीच का अन्तर ज्ञान, जटिल एवं संयुक्त समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश करना, छोटी-छोटी घटनाओं को बताना। विभिन्न प्रत्ययों, जैसे-स्वाद, रंग, रूप, गंध आदि का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। विभिन्न वस्तुओं में परस्पर समानता और अंतर समझने लगता है। जिज्ञासा प्रवृत्ति बढ़ जाने के कारण छोटे-छोटे प्रश्न पूछता है।

आठवां वर्ष–  प्रतिदिन की समस्याओं का समाधान करना, छोटी-छोटी कहानियों या कविताओं को दोहराना,5-6 प्रश्नों के उत्तर याद रखना। भाषा और अधिक विकसित हो जाती है। भाषा की अभिव्यक्ति में प्रवाह आ जाता है। वाक्य रचना शुद्ध हो जाती है। बालक 15-16 शब्दीय वाक्य आसानी से बोल लेता है।  स्मरण शक्ति का विकास अधिक हो जाता है जिससे वह छोटी-छोटी कविताओं और कक्षा में बतायी गयी विभिन्न बातों को आसानी से याद कर लेता है।

नौवां वर्ष – बालक दिन, समय, तारीख, वर्ष, रुपया-पैसा का ज्ञान होना कहानी या धारावाहिक की आधे से ज्यादा बातों को बता देना। जोड़ घटाना-गुणा-भाग के बारे में जानना। इस अवस्था में बालक की भाषा, स्मृति, कल्पना, चिन्तन और ध्यान आदि क्षमताओं का और अधिक विकास हो जाता है। इस अवस्था में वह समय, दूरी, ऊँचाई. लम्बाई, दिन, समय, तारीख, महीना और वर्ष आदि को आसानी से बता देता है, विभिन्न प्रकार के सिक्कों और नोटों का सही मूल्य बता सकता है।

दसवां वर्ष – दैनिक कार्यों को स्वयं करने लगता है, छोटी-छोटी सूचनाओं का ज्ञान हो जाता, बोलने में कुशलता आ जाना। बालक के जीवन में नियमितता आ जाती है। आज्ञापालन की आदत का विकास होता है। गणितीय योग्यता का विकास भी होता है।

ग्यारहवां वर्ष – जिज्ञासा एवं निरीक्षण की प्रवृत्ति का हो जाना, तर्क-चिन्तन करना। गणितीय ज्ञान भी बहुत अधिक विकसित हो जाता है। अपने आसपास की विभिन्न वस्तुओं की जानकारी रखता है तथा उनसे सम्बन्धित समस्याओं के उचित समाधान भी प्रस्तुत करता है तथा अपने ज्ञानात्मक विकास के लिये निरंतन प्रत्यत्नशील रहता है। विभिन्न प्रकार की रुचियों का विकास होता है, जैसे-खेल, अभिनय, संगीत, नृत्य आदि।

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बारहवां वर्ष – समस्या समाधान और तार्किक क्षमता का विकास होना, वास्तविकता एवं यथार्थज्ञान का हो जाना। शब्द भण्डार बढ़ जाता है। वाक्-शक्ति अधिक हो जाती है | वाक्य रचना में शुद्धता आ जाती है। विभिन्न प्रश्नों के तर्कपूर्ण उत्तर देने में सफल रहता है। ध्यान और एकाग्रता बढ़ती है। यदि इस अवस्था में सीखने का अवसर मिले तो बालक एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान रख सकता है।

किशोरावस्था में मानसिक विकास

वुडवर्थ के अनुसार- “मानसिक विकास 15 से 20 वर्ष की आयु मे अपनी उच्चतम सीमा पर पहुंच जाता है।” इस अवस्था में हम बालक के विकास से सम्बन्धित मुख्य अंगों पर प्रकाश डाल रहे हैं-

(1) मस्तिष्क का पूर्ण विकास हो जाना

(2) स्मृति शक्ति का विकास हो जाना

(3) नैतिक सम्प्रत्यय की समझ हो जाना

(4) भाषा एवं पढ़ने की रुचि का विकास हो जाना

(5) कल्पना एवं चेतना का विकास हो जाना

(6) समस्या को अमूर्त संकेतों द्वारा समाधान करने की क्षमता का विकास हो जाना

(7) तथ्यों को सामान्यीकरण करने की क्षमता का विकास हो जाना।

(8) किशोरों में हास्य, कविता, देशप्रेम, रोमांस, प्रेम सम्बन्धी कहानियों व सेक्स सम्बन्धी साहित्य पढ़ने में रुचि उत्पन्न हो जाना ।

(9) लड़कों का लड़कियों के बारे में तथा लड़कियों का लड़कों के बारे में बात करने में रुचि उत्पन्न हो जाना।

(10) किशोरों में भविष्य सम्बन्धी योजनायें बनाना।

(11) सीखने की क्षमता का विकास

(12) बुद्धि का अधिकतम विकास-किशोरावस्था में बुद्धि का विकास भी अपनी उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है जिससे बालकों में निम्नलिखित बौद्धिक क्षमतायें दृष्टिगत होती है-

(अ) तर्क शक्ति
(ब) स्मरण शक्ति
(स) कल्पना शक्ति
(द) भाषा का विकास
(य) चिन्तन शक्ति
(र) ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता का विकास

(13) रुचियों का विकास-  प्रशिक्षण, उपयुक्त वातावरण तथा माता-पिता और शिक्षकों का सहयोग मिलने पर उनमें सृजनात्मकता का विकास होता है। किशोरों की रूचियाँ अध्ययन, खेल-कूद, ललितकला किसी भी क्षेत्र में हो सकती हैं। बालिकायें नृत्य, संगीत, ड्रामा,चित्रकारी आदि में रुचि रखती हैं जबकि बालक मानसिक खेलो तथा प्रतिस्पर्धात्मक कार्यों में रुचि रखते हैं।

(14) मानसिक योग्यताओं का विकास-इस अवस्था में मानसिक विकास में परिपक्वता आने से किशोरों में; जैसे-सोचने-विचारने, अंतर करने,निर्णय लेने तथा समस्याओं का समाधान करने की मानसिक योग्यतायें विकसित हो जाती है।

                                        निवेदन

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