बालक का संवेगात्मक विकास / भिन्न अवस्थाओं में संवेगात्मक विकास / emotional development of child in hindi

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भिन्न अवस्थाओं में संवेगात्मक विकास / emotional development of child in hindi

बालक का संवेगात्मक विकास / भिन्न अवस्थाओं में संवेगात्मक विकास / emotional development of child in hindi
बालक का संवेगात्मक विकास / भिन्न अवस्थाओं में संवेगात्मक विकास / emotional development of child in hindi

बालक का संवेगात्मक विकास

शारीरिक एवं मानसिक विकास के साथ बालक में संवेगात्मक विकास भी होता चलता है। संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा को प्रदर्शित करता हैं। संवेग जन्मजात होता है। सभी संवेगों का विकास एक साथ न होकर धीरे-धीरे होता है। मनोवैज्ञानिक वाटसन ने बताया कि नवजात बच्चे में 3 संवेग ही पाये जाते हैं जो क्रमशः भय, क्रोध, प्रेम हैं। संवेग एक विशेष मानसिक दशा है जिसमें व्यक्ति की, मानसिक दशा तथा व्यापार में परिवर्तन होता है।

प्राणी के विकास क्रम में संवेगात्मक विकास का बड़ा महत्व है। संवेग प्राणी के व्यक्तित्व का निर्धारण करते हैं। यदि किसी व्यक्ति का संवेगात्मक विकास सुचारु रूप से नहीं होता है तो उसका व्यक्तित्व निर्माण भी सही प्रकार से नहीं होता है क्योंकि संवेगों द्वारा ही व्यक्ति में ‘सृजन’ और ‘विनाश’ की भावनायें विकसित होती हैं। सृजन’ की भावना सन्तुलित व्यक्तित्व निर्माण का द्योतक है और विनाश’ की भावना व्यक्तित्व के विघटन का सूचक है। ‘प्रेम’ संवेग प्राणी को आनन्द प्रदान करता है और उसे रचनात्मक कार्यों की ओर प्रेरित करता है। इसके विपरीत दुख, घृणा तथा ईर्ष्या सृजन के लिए अभिशाप है। ये प्राणी को विनाश की ओर ले जाते हैं।

शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास

(1) जन्म के समय बालक में मात्र ‘उत्तेजना’ नामक संवेग रहता है।

(2) इन संवेगों पर बच्चों का नियंत्रण नहीं रहता।

(3) शैशवास्था में संवेग अत्यधिक अस्थिर रहता है।

(4) बच्चे अपने संवेगों को प्रदर्शित करते हैं।

(5) 3 वर्ष की आयु से शिशु में अपने साथियों के प्रति प्रेम का विकास हो जाता है। और उसके साथ खेलने व हंसने लगता है। –जस्टिन

(6) 2 वर्ष की आयु में बालक में जानवरों के प्रति डर का अभाव रहता है जबकि तीसरे वर्ष में डर की भावना का विकास होने लगता है।

(7) बालक में प्रेम भावना एवं काम प्रवृत्ति का इस अवस्था में विकास हो जाता है।

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(8) शैशवावस्था में मुख्यतया भय, क्रोध व प्रेम आदि तीन ही संवेगों का विकास होता है।

(9) शिशु थोड़ी-थोड़ी देर में अपने संवेगों को बदलते रहते हैं। वो कभी रोता है, कभी हँसता है और कभी-कभी दोनों का प्रकटीकरण साथ-साथ ही करने लगता है।

(10) शैशवावस्था के अन्तिम चरण में वातावरण संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने लगता है।

(11) मनोवैज्ञानिक वाटसन के अनुसार नवजात शिशु में तीन मूल संवेग पाये जाते हैं-भय, क्रोध और स्नेह ।

(12) ब्रिजिस (Bridges) के अनुसार दो वर्ष की आयु तक उसमें लगभग सभी संवेगों का विकास इस प्रकार होता है-
(क) जन्म के समय – उत्तेजना।
(ख) 3 मास की आयु — उत्तेजना, कष्ट (Distress ), प्रसन्नता (Delight)।
(ग) 6 मास की आयु — उत्तेजना, कष्ट, प्रसन्नता, भय, घृणा, क्रोध।
(घ) 12 मास की आयु — उत्तेजना, कष्ट, प्रसन्नता, भय, क्रोध, घृणा, आनन्द (Elation) बड़ों के प्रति स्नेह।
(ङ) 18 मास की आयु–उत्तेजना, कष्ट, प्रसन्नता, भय, घृणा, क्रोध, स्नेह तथा (बड़ों तथा बच्चों के प्रति) ईर्ष्या।
(च) 24 वर्ष की आयु-उपर्युक्त सभी संवेग तथा उल्लाह।

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास

(1) बाल्यावस्था के दौरान बालकों के संवेगों में परिवर्तन आने लगता है।
(2) बालक अपने संवेगों पर नियन्त्रण करने लगता है। एवं उसके संवेगों पर थोड़ी स्थिरता आ जाती है।
(3) समाज के नियमों व संवेगों में समायोजन करना सीख जाता है।
(4) प्रत्येक क्रिया के प्रति प्रेम, ईष्या, घृणा व प्रतिस्पर्धा की भावना प्रकट करना प्रारम्भ करता है।
(5) बालक इस अवस्था में प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश करने लगता है।
(6) भाई बहनों से ईर्ष्या
(7) सामूहिक व सामाजिक भावनाओं का विकास
(8) बाल्यावस्था में बालकों में संवेगात्मक भय, क्रोध, ईर्ष्या, जिज्ञासा, स्नेह, प्रसन्नता का पूर्ण विकास ।
(9) माता-पिता द्वारा बताये कार्य के प्रति वह हो या न कहकर चुप रहता और बाद में झूठ बोलकर अपने को उपेक्षा से बचाता है।
(10) इस अवस्था के अन्तिम चरणों में वह संवेगों पर नियन्त्रण करना सीख जाता है।

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास की विशेषताएँ

1. संवेग का कम शक्तिशाली होना-उपर्युक्त संवेग शैशवकाल के समान बालक को उत्तेजित नहीं कर पाते। संवेगों का दमन करने की क्षमता आ जाने के कारण वे कम शक्तिशाली हो जाते हैं।

2. भय का संवेग (Fear)- इस समय शैशव की भाँति भय का संवेग नहीं उत्पन्न होता। उसमें भय और चिन्ता के कई कारण हो सकते हैं-जैसे-न पढ़ने पर परिवार तथा पाठशाला में दण्ड मिलने का भय, परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के लिये चिन्ता और असफलता का भय, अभिभावकों और शिक्षकों द्वारा कड़े व्यवहार का भय आदि। इस समय का भय अधिकतर भावी कार्यों से सम्बन्धित होता है।

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3. निराशा और असहायपन की भावना (Frustrations) – इस अवस्था में बालक इस भावना से अधिक पीड़ित दिखाई देता है। इस कारण, पारिवारिक तथा सामाजिक वातावरण, अभिभावकों का कड़ा नियंत्रण तथा शिक्षकों द्वारा लगाये गये कई अनुशासन सम्बन्धी नियम होते हैं, जो बालक की इच्छापूर्ति में बाधा डालते हैं, उन्हें मनचाही स्वतंत्रता नहीं मिलती।

4. ईर्ष्या-द्वैष (Jealousy )-  ईर्ष्या-द्वेष की भावना पहले घर में भाई-बहनों के प्रति होती है, धीरे- धीरे वह साथियों के प्रति स्थानान्तरित हो जाती है। बालक इस भावना को अधिकतर प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करते हुए देखे जा सकते हैं, जैसे व्यंग्य करना, चिढ़ाना, झूठे आरोप लगाना, तिरस्कार करना, निन्दा करना आदि।

5. क्रोध ( Anger) – इस अवस्था में क्रोध का कारण उसकी हताशाएँ (Frustrations) होती हैं। स्वतंत्रता तथा इच्छापूर्ति में बाधा पड़ने पर इन्हें क्रोध आता है। क्रोध का दूसरा कारण वयस्कों द्वारा उनके कार्यों की आलोचना करना हो सकता है। जैसे प्रायः माता-पिता अपने बच्चों की तुलना दूसरे के बच्चों से करते हैं, दूसरे बच्चों की सदा प्रशंसा करते रहते हैं और अपने बच्चों की बुराई करते हैं।

6. जिज्ञासा (Curiosity ) –जिज्ञासु प्रवृत्ति का विकास 6-7 वर्ष की आयु से ही होने लगता है। बालक प्रत्येक नई वस्तु के विषय में पूरी जानकारी करना चाहता है। प्रारम्भ में वह कल-पुर्जे वाले खिलौने को खेलकर उसकी कार्य प्रणाली को जानने की उत्सुकता प्रकट करता है। बाद में वह घड़ी, रेडियो, टेलीफोन, टेलीविजन, ग्रामोफोन आदि के बारे में इसी प्रकार के प्रश्न करता है और जिज्ञासा के साथ आश्चर्य-संवेग को प्रकट करता है और वह नई बातों को सीखता है।

7. स्नेह भाव ( Affection )-उत्तर- बाल्यकाल में स्नेह-भाव की अभिव्यक्ति प्रारम्भिक बाल्याकाल की तुलना में कम होती है। वह स्नेह भावना की अभिव्यक्ति उन लोगों के प्रति करता है जो उसके मित्र होते हैं या जिसके साथ वह रहना चाहता है और सहायता करना चाहता है। स्नेह प्रदर्शित करने का तरीका शैशवकाल से भिन्न होता है। वह इस भावना को अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करता है।

8. प्रफुल्लता (Joy)-उत्तर बाल्यकाल में प्रफुल्लता की अभिव्यक्ति प्रारम्भिक बाल्यकाल के समान ही होती है। इस अवस्था में बालक विनोदप्रिय अधिक होता है और व्यंग्य-विनोद में उसे आनन्द मिलता है। वह असाधारण घटना को देखकर, किसी को गिरते देखकर, किसी को लड़ते या मारपीट करते देखकर बहुत प्रसन्न होता है।

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किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास

(1) “किशोरावस्था शैशवावस्था की पुनरावृत्ति का काल है-
इसलिए इस अवस्था में संवेगों में पुनः अस्थिरता आ जाती है।

(2) बालक-बालिकाओं में काम प्रवृत्ति का तीव्र हो जाना

(3) विषय लिंगीय एवं समलिंगीय तथा स्वयं के प्रति प्रेम विकास होना।

(4) किशोरावस्था का जीवन अत्यधिक भाव प्रधान होता है। जिसमें आत्मगौरव की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है।

(5) इस अवस्था में जिज्ञासा प्रवृत्ति पुनः प्रबल हो जाती है।

(6) इस अवस्था में किशोरों का जीवन दिवास्वप्नों एवं कल्पना की दुनिया में लिप्त रहते हैं।

(7) किशोरावस्था में प्रेम, नैतिकता, वीर-पूजा की भावना प्रबल रहती है।

(8) किशोरावस्था में लड़के-लड़कियों में अपने से सुन्दर दिखने की चाह बनी रहती है।

(9) किशोरावस्था में प्रवेश करने पर किशोर किशोरी से अनुशासित जीवन व्यतीत करने की आशा की जाती है, पर परिणाम ठीक इसके विपरीत होता है। हम उन्हें न तो बालकों की कोटि में रखते है न बड़ों की कोटि में। इस अवस्था में सबसे अधिक संवेगात्मक अस्थिरता पाई जाती है।

(10) किशोर किशोरी में प्रेम, दया, क्रोध, सहानुभूति आदि संवेग स्थायी रूप धारण कर लेते है। वह इन पर नियन्त्रण नही रख पाता। अतःसामान्यतः अन्यायी व्यक्ति के प्रति क्रोध व दुखी व्यक्ति के प्रति दया की अभिव्यक्ति करता है।

(11) किशोर किशोरी अनेकों बातों के बारे में चिन्तित रहते हैं। उदाहरणार्थ- अपनी आकृति, स्वास्थ्य, सम्मान, धन प्राप्ति, शैक्षिक प्रगति, सामाजिक सफलता आदि।


                                        निवेदन

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