बाल्यावस्था का अर्थ व परिभाषाएं / बाल्यावस्था की विशेषताएं एवं शिक्षा

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बाल्यावस्था का अर्थ व परिभाषाएं / बाल्यावस्था की विशेषताएं एवं शिक्षा

बाल्यावस्था का अर्थ व परिभाषाएं / बाल्यावस्था की विशेषताएं एवं शिक्षा
बाल्यावस्था का अर्थ व परिभाषाएं / बाल्यावस्था की विशेषताएं एवं शिक्षा

Definitions of Childhood / बाल्यावस्था का अर्थ

शैशवावस्था यदि विकास की नींव है तो बाल्यावस्था उसकी आधारशिला है जिसके ऊपर आगामी जीवन का सम्पूर्ण भार झेलना होगा। बाल्यावस्था 6 से 12 तक की आयु होती है। मनोवैज्ञानिकों के द्वारा इस अवस्था को ‘प्रारम्भिक विद्यालय की आयु’ भी कहा जाता है।शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है। यह अवस्था, बालक के व्यक्तित्व के निर्माण की होती है। बालक में इस अवस्था में विभिन्न आदतो, व्यवहार, रुचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है।

बाल्यावस्था की परिभाषाएं

इस अवस्था के बारे में मनोवैज्ञानिकों ने निम्नलिखित कथन दिए हैं –

(1) कार्ल एवं ब्रूस के अनुसार,”बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल हैं।”

(2) रॉस के अनुसार, “बाल्यावस्था मिथ्या परिपक्वता का काल है।”

(3) स्ट्रैग के अनुसार, “ऐसा शायद ही कोई खेल हो जिसे 10 वर्ष के बालक खेलते न हो”

(4) किलपैट्रिक के अनुसार, “बाल्यावस्था प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण का काल है।”

(5) सिगमंड फ्रायड के अनुसार, “बाल्यावस्था जीवन की निर्माणकारी एवं काम की प्रसुप्तावस्था है।”

(6) ब्लेयर-जोन्स व सिम्पसन के अनुसार, “शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवनचक्र में बाल्यावस्था से महत्वपूर्ण और कोई अवस्था नहीं है।”

(7) ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के अनुसार-“शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से अधिक कोई महत्त्वपूर्ण अवस्था नहीं है। जो शिक्षक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं, उन्हें बालकों का, उनकी आधारभूत आवश्यकताओं का, उनकी समस्याओं एवं उनकी परिस्थितियों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती है।”

बाल्यावस्था के अन्य नाम / बाल्यावस्था को और किन नामों से जाना जाता है

(1) निर्माणकारी काल
(2) अनोखा काल
(3) प्रारम्भिक विद्यालय की आयु
(4) गैंग एज (टोली दल समूह)
(5) मिथ्या/छद्म परिपक्वता का काल
(6) खेल की आयु
(7) प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण का काल
(8) मूर्त चिन्तन की अवस्था
(9) उत्पाती अवस्था

बाल्यावस्था की विशेषतायें

(1) शारीरिक व मानसिक स्थिरता

इस आयु में बालक में शारीरिक और मानसिक स्थिरता जाती है। वह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करती है। फलस्वरूप, उसका मस्तिष्क परिपक्व-सा और वह स्वयं वयस्क-सा जान पड़ता है।

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(2) जिज्ञासा की तीव्रता (क्या, क्यों, कैसे)

इस आयु में बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, उनके बारे में प्रश्न पूछ कर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है। उसके ये प्रश्न शैशवावस्था के साधारण प्रश्नों से भिन्न होते हैं। अब वह शिशु के समान यह नहीं पूछता है-‘वह क्या है ?’ इसके विपरीत, वह पूछता है-‘यह ऐसे क्यों है ?”यह ऐसे कैसे हुआ है ?’

(3) रचनात्मक कार्यों एवं खेलों में रुचि

इस आयु में बालक विशेष रूप से रचनात्मक कार्यों एवं खेलों में रुचि लेते हैं। इस आयु में बालक कला बनाना बहुत पसंद करते हैं।

(4) बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास

इस आयु में बालक अपना व्यक्तित्व बहिर्मुखी के रूप में प्रदर्शित करते हैं। जैसे वह सब से अपनी बातों को बताते हैं। अपनी स्कूल की बातें घर में बताते हैं । कक्षा में भी अगर उन्हें किसी प्रश्न का उत्तर आता है तो वह उसे खड़े होकर देते हैं।

(5) संग्रह करने की प्रवृत्ति (गोली, टिकट आदि)

इस आयु में बालक छोटी-छोटी वस्तुओं का संग्रह करता है। जैसे दोस्तों के द्वारा दी गई ग्रीटिंग या कई तरह के खिलौने ,किसी प्रकार के टिकट गोली या अन्य प्रकार की वस्तुएं।

(6) चोरी करना व झूठ बोलना

इस आयु में बालक झूठ बोलना भी सीख जाता है तथा कुछ बालक तो चोरी करना भी सीख जाते हैं।

(7) मूर्त चिन्तन की अवस्था

इस अवस्था में बालक केवल मूर्त चिंतन ही कर पाता है। अर्थात वह केवल प्रत्यक्ष वस्तुओं पर ही चिंतन कर पाता है।

(8) सामाजिक गुणों का विकास (सहयोग,परोपकार)

बालक, विद्यालय के छात्रों और अपने समूह के सदस्यों के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है। अतः उसमें अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे-सहयोग, सद्भावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता आदि। इस अवस्था में बालक दूसरों का सहयोग करता है । तथा छोटे-छोटे परोपकार की भावनाओं के कार्य निभाता है।

(9) जीवन की वास्तविकता के प्रति झुकाव

इस अवस्था में बालक, शैशवावस्था के काल्पनिक जगत का परित्याग करके वास्तविक जगत में प्रवेश करता है। वह उसकी प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होकर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।

(10) अनुभवों की वृद्धि एवं संचय

इस आयु तक शिशु के पास कई तरह के अनुभव में वृद्धि हो जाती है तथा वह अनुभवों को संचित भी रखता है। अर्थात वह अपने आसपास जिन कार्यों या अन्य लोगों के अनुभवों को सुनता है। तो वह भी उनसे अनुभव लेता है और उन्हें हमेशा याद रखता है।

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(11) संवेदों का दमन व प्रदर्शन

इस आयु में बालक अपने संवेगों का दमन करना भी सीख जाता है । जैसे –  अगर उसे किसी वस्तु को पाने की इच्छा है या उसे भूख लगी है तो वह अब इस पर नियंत्रण करना सीख जाता है। इस प्रकार व अपनी इच्छाओं का या संवेगों का दमन करता है। समय पड़ने पर वह अपने संवेगों का प्रदर्शन भी करता है।

(12) रुचियों में परिवर्तन

इस आयु में बालक की रुचियों में बहुत अधिक परिवर्तन हो जाता है। जहां शैशवावस्था में उसे खिलौनों में या कई तरह के खेल खेलने में रुचि थी अब बाल्यावस्था में ऐसा नहीं है।

(13) भाई-बहनों में झगड़ा

इस आयु में बालक का अपने भाई बहनों या मित्रों से छोटी-छोटी बातों को लेकर झगड़ा भी हो जाता है।

(14) मानसिक योग्यता में वृद्धि

बाल्यावस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती है। उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्तियों में वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है। वह साधारण बातों पर अधिक देर तक अपने ध्यान को केन्द्रित कर सकता है। उसमें अपने पूर्व-अनुभवों को स्मरण रखने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है।

बाल्यावस्था का महत्त्व (Importance of Childhood)

शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है। बाल्यावस्था में प्रवेश करने तक बालक का इतना विकास हो चुका होता है कि वह अपने वातावरण की परिस्थितियों से कुछ परिचित-सा होने लगता है। मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्था को “बालक का निर्माणकारी” काल कहा है। इस काल में बालक जिस व्यक्तिगत, सामाजिक और शिक्षा सम्बन्धी आदतों, व्यवहार, रुचियों एवं इच्छाओं के प्रतिरूप (Patterns) का निर्माण कर लेता है, कि उनको रूपान्तरित करना सरल नहीं होता है। जीवन में बाल्यावस्था के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन के विचार इस प्रकार हैं-“शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन-चक्र में बाल्यावस्था से अधिक महत्त्वपूर्ण और कोई अवस्था नहीं होती। जो अध्यापक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं, उन्हें बालकों का, उनकी आधारभूत आवश्यकताओं का, उनकी समस्याओं का और उनकी परिस्थितियों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए, जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती हैं।”

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप

बच्चों के विकास में बाल्यावस्था का विशेष महत्त्व है। शैशवावस्था में उसका अधिकांश समय घर पर ही व्यतीत होता है परन्तु बाल्यावस्था में बच्चा विद्यालय जाने लगता है, बाल्यावस्था में मूल्यों का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है। इस अवस्था में बच्चों की शिक्षा के निर्धारण में निम्नवत् बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिये-

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(1) बच्चों के शारीरिक विकास के लिये उन्हें स्वस्थ रखने के लिये पौष्टिक भोजन तथा खेलकूद का अवसर देना चाहिये।

(2) शिक्षक एवं अभिभावकों को बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिये ताकि वे बच्चे को उचित शिक्षा दे सकें।

(3) इस अवस्था में बच्चों में रचनात्मक कार्यों के प्रति विशेष रुचि होती है। अत: बच्चों की शिक्षा में हस्त कार्य पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।

(4) बाल्यावस्था में बच्चे की रुचियों में विभिन्नता और परिवर्तन-शीलता होती है। अत: पाठ्य सामग्री का चयन विविधता तथा रोचकता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये।

(5) 6 से 12 वर्ष तक की अवस्था में बच्चे के मस्तिष्क का विकास पर्याप्त हो जाता है। वह प्रत्येक बात को समझने का प्रयास करता है और अनेक प्रश्न पूछता है। अत: बालकों की जिज्ञासा का सन्तोषजनक ढंग से समाधान किया जाना चाहिये।

(6) बाल्यावस्था में संवेगों का विकास तीव्रता से होता है। बाल्यावस्था संवेगात्मक विकास का अनोखा काल है। अत: शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह बालकों के संवेगों का दमन न कर यथा सम्भव उन्हें अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करे।

(7) इस अवस्था में बच्चे समूह में रहना अधिक पसन्द करते हैं। इस प्रवृत्ति की तृप्ति के लिये विद्यालय में सामूहिक कार्यों तथा खेलों का आयोजन किया जाना चाहिये।

(8) बच्चों की विभिन्न रुचियों की सन्तुष्टि के लिये और विभिन्न क्षमताओं के प्रदर्शन के लिये विद्यालय में विभिन्न पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना चाहिये।

(9) इस अवस्था में बच्चों में बिना उद्देश्य इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति की सन्तुष्टि के लिये स्थानीय भ्रमण की समय-समय पर योजनाएँ बनायी जानी चाहिये।


                                        निवेदन

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