भ्रांतिमान अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / भ्रांतिमान अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

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भ्रांतिमान अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / भ्रांतिमान अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

भ्रांतिमान अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण / भ्रांतिमान अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

भ्रान्तिमान अलंकार की परिभाषा

जहाँ समता के कारण किसी वस्तु में (उपमेयों में) अन्य वस्तु का (उपमान का) भ्रम हो जाए। सादृश्य के कारण प्रस्तुत वस्तु मे अप्रस्तुत वस्तु के निश्चयात्मक ज्ञान को भ्रांतिमान कहते हैं। वस्तुतः दो वस्तुओं में इतना सादृश्य रहता है कि स्वाभाविक रूप से भ्रम उत्पन्न हो जाता है तथा एक वस्तु दूसरी वस्तु समझ ली जाती है।

उदाहरण –  नाक का मोती अधर की कांति से,
                बीज दाड़िम का समझकर भ्रांति से,
                देख उसको ही हुआ शुक मौन है,
                 सोचता है अन्य शुक यह कौन है।

स्पष्टीकरण –  यहाँ घर के पाले शुक को, नायिका की नाक और मोती में अनार का दाना पकड़े शुक का भ्रम हो रहा है।

उदाहरण –  पाँय महावर देन को नाइन बैठी आय
                 पुनि पुनि जान महावरी एड़ी मोड़ति जाय ॥

स्पष्टीकरण – यहाँ नाइन एड़ी की लालिमा को महावर समझकर भ्रम वश उसे मोड़ती है।

उदाहरण –  वृदावन विहरत फिरै राधा नन्दकिशोर।
                नीरद यामिनी जानि संग डोलैं बोलें मोर ।।

स्पष्टीकरण –  वृन्दावन में राधा-कृष्ण विहार कर रहे हैं। रात में उन्हें सघन मेघ समझ मोर बोलते हैं और साथ-साथ चलते हैं।

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उदाहरण – कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब ।
जानि अशोक अँगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ।।

स्पष्टीकरण – यहाँ पर सीताजी श्रीराम की हीरकजटित अँगूठी को अशोक वृक्ष द्वारा प्रदत्त अंगारा समझकर उठा लेती हैं। अँगूठी (उपमेय) में अंगारे (उपमान) का निश्चयात्मक ज्ञान होने के कारण यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

भ्रांतिमान अलंकार के अन्य उदाहरण

(1) मुन्ना तब मम्मी के सर पर देख-देख दो चोटी,
    भाग उठा भय मानकर सर पर सॉपिन लोटी।

(2) नाक का मोती अधर की कांति से,
    बीज दाड़िम (अनार का दाना) का समझकर भ्रांति से,

(3) देख उसको ही हुआ शुक मौन है,
      सोचता है, अन्य शुक यह कौन है।

(4) फिरत घरन नूतन पथिक चले चकित चित भागि।
       फूल्यो देख पलास वन, समुहें समुझि दवागि ।।

(5) मुन्ना ने मम्मी के सिर पर देख-देख दो चोटी ।
    भाग उठा भय मानकर सिर पर सांपिन लोटी ।।

(6) कपि करि हृदय विचारि, दीन्हि मुद्रिका डारि तब ।
     जानि अशोक अंगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ।।

(7) अधरो पर अलि मंडराते, केशो पर मुग्ध पपीहा ।

(8) वृन्दावन विहरत भिरै, राधा नन्द किशोर ।
     नीरद यामिनी जानि संग डोलै बोलै मोर ।।

(9) कुहू निशा में परछाई प्रेत समझकर हुआ अचेत ।

(10) भ्रमर परत शुक तुण्ड पर, जानत फूल पलास ।
      शुकताको पकरन चहत, जम्बु फल की आस ।।

(11) ओस बिन्दु चुग रही हंसिनी मोती उसको जान ।

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