विभिन्न अवस्थाओं में बालक में सृजनात्मक क्षमता का विकास / development of creativity capacity in hindi

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विभिन्न अवस्थाओं में बालक में सृजनात्मक क्षमता का विकास / development of creativity capacity in hindi

विभिन्न अवस्थाओं में बालक में सृजनात्मक क्षमता का विकास / development of creativity capacity in hindi
विभिन्न अवस्थाओं में बालक में सृजनात्मक क्षमता का विकास / development of creativity capacity in hindi

development of creativity capacity in hindi / विभिन्न अवस्थाओं में बालक में सृजनात्मक क्षमता का विकास

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सृजनात्मकता का अर्थ / meaning of Creativity

‘सृजनात्मक शब्द अंग्रेजी के क्रियेटिविटी (Creativity) से बना है। इस शब्द के समानान्तर विधायकता, उत्पादन, रचनात्मकता डिस्कवरी आदि का प्रयोग होता है। फादर कामिल बुल्के ने क्रियेटिक शब्द के समानान्तर, सृजनात्मक, रचनात्मक, सर्जक शब्द बताए। डा. रघुवीर ने इसका अर्थ सर्जन, उत्पन्न करना, सर्जित करना, बनाना बताया है।

सृजन (Creativity) वह अवधारणा है जिसमें उपलब्ध साधनों से नवीन या अनजानी बस्तु, विचार या धारणा को जन्म दिया जाता है। सृजनात्मक से अभिप्राय है रचना सम्बन्धी योग्यता, नवीन उत्पाद की रचना । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सृजनात्मक स्थिति अन्वेषणात्मक होती है। सृजनात्मकता ज्ञान, सूचना तथा कौशल के क्षेत्र में पाई जाती है। नवीन तथ्यों, सिद्धान्तों का प्रतिपादन. सूचना ग्रहण करने तथा कराने की नवीन प्रणालियों तथा नवीन वस्तु, विचार की प्रस्तुति सृजनात्मकता के अन्तर्गत आती है।

सृजनात्मकता की परिभाषा

क्रो और क्रो के अनुसार, “सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को अभिव्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया है।”

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जेम्स ड्रेवर का कथन है, “सृजनात्मकता मुख्यतः नवीन रचना या उत्पादन में होती है।”

कोल और ब्रूस के विचार में, “सृजनात्मकता एक मौलिक उत्पादन के रूप में मानव-मन की ग्रहण करने, अभिव्यक्त करने और गुणांकन करने की योग्यता एवं क्रिया है।”

रूसो के अनुसार-सृजनात्मकता मौलिकता है जो वास्तव में किसी भी प्रकार की क्रिया में घटित होती है।

स्टीन के अनुसार, “सृजनात्मकता एक नवीन कार्य है जो किसी समय बिन्दु पर एक समूह द्वारा तर्कसंगत या उपयोगी या सन्तोषजनक रूप से स्वीकृत हो।”

उपर्युक्त परिभाषाओं में एक सामान्य तथ्य यह स्पष्ट होता है कि सृजनात्मकता का सम्बन्ध मौलिक उत्पादन से है। मनोवैज्ञानिक मोर्स और विंगो (W.C Morse and G.M. Wingo) के अनुसार, “सृजना स्थितियों के साथ नवीन सम्बन्ध स्थापित करना अथवा स्थिति विशेष के प्रति नवीन दृष्टिकोण करना है।

विभिन्न अवस्थाओं में सृजनात्मकता का विकास

1. शैशवावस्था में सृजनात्मक विकास (Development of Creativity in Infancy)

सृजनात्मकता उस योग्यता को बताती है, जो किसी वस्तु को खोजने या सृजन से सम्बन्धित होती है। शैशवावस्था में शिशु बहुत कल्पनाशील होता है। वह अपनी कल्पना के आधार पर ही नई वस्तुओं का सृजन करता है, जैसे-कागज की नाव बनाना, पतंग बनाना, उड़ने वाला जहाज बनाना, कागज पर तरह-तरह के चित्र बनाना व कल्पना के आधार पर उनमें रंग भरना आदि। शैशवावस्था में सृजनात्मक क्षमता का विकास भली-भाँति होना आवश्यक है, क्योंकि इसमें हम बालक की कल्पना शक्ति का पूरा प्रयोग करते है। इस क्षमता का विकास करके हम उनके भावी जीवन का निर्माण करते हैं व शिशु के व्यक्तित्व का उचित विकास करते हैं।

2. बाल्यावस्था में सृजनात्मक विकास (Development of Creativity in Childhood)

प्रत्येक बच्चे में सृजन की क्षमता जन्मजात होती है. छोटे बच्चों के खेलों में यह सृजनात्मक शक्ति स्पष्ट रूप से झलकती है। रचनात्मक कार्यों द्वारा वह सीखते और आगे बढ़ते हैं। इसके लिए हम बच्चों को कुछ स्वयं करने का अवसर दें, आस-पास की वस्तुओं का ज्ञान वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त करें और अनुभव करे । बच्चों की कल्पना निरीक्षण व स्मरण शक्ति के विकास द्वारा ही उनकी सृजनात्मक क्षमता विकसित होगी। सृजनात्मक क्षमता के विकास द्वारा ही वह भावी जीवन की तैयारी करेंगे। बच्चों की सृजनात्मक शक्ति का विकास हम कई प्रकार की क्रियाओं द्वारा कर सकते हैं, जैसे- खेल, कला, नृत्य, अभिनय और बेकार की वस्तुओं से सामग्री तैयार करना आदि।

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3. किशोरावस्था में सृजनात्मक विकास (Development of Creativity in Adolescence)

किशोरावस्था परिवर्तन की अवस्था है। इस अवस्था में उसके अन्दर बहुत सारे शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक व सामाजिक परिवर्तन होते हैं। वह न तो बच्चा रहता है न प्रौद । इस कारण से वह अपने को वातावरण से भली-भाँति समायोजित नहीं कर पाते। उसमें कल्पना की अधिकता होती है. वह सृजनात्मक कार्य करके अपनी कल्पना को यथार्थ का रूप देना चाहते हैं। यदि किशोर/किशोरी की सृजनात्मक क्षमता को उचित वातावरण देकर उसका अधिकतम विकास किया जाये, तो वह जीवन में बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल कर सकता है तथा अपनी शक्ति का सदुपयोग करके अपने को कुण्ठा व निराशा से बचा सकता है।

सृजनात्मकता और शिक्षक (Teacher and Creativity)

बालकों में सृजनात्मकता का विकास करना, व्यक्ति तथा समाज, दोनों के हित में है।

क्रो एवं क्रो के अनुसार-“जैसे-जैसे बालक में प्रतिबोध एवं संबोध
का विकास होता जाता है, वह अपने वातावरण में परिवर्तन करना चाहता। जबकि प्रौढ़ व्यक्ति परिस्थितिनुगत यथार्थ होता है। छोटा बालक अत्यधिक कल्पनाशील होता है। वह अपने खिलौनों को अलग ले जाता है और उनको दूसरे में ले जाता है। घटनाओं की पुनर्गणना में वह इतना व्यस्त हो जाता है। कि उनको पहचानने में भी कठिनाई होने लगती है।”

शिक्षक को चाहिए कि बालकों में सृजनात्मकता का विकास करने के लिए उपाय करे।

1. समस्या के स्तरों की पहचान (Identification of Problem)

स्टेनले ग्रे के शब्दों में समस्या समाधान की योग्यता दो पदों पर निर्भर करती है। एक, व्यक्ति के सीखने की या अधिगम पाने को बुद्धिवादो क्षमता या बुद्धि और दूसरा, यह कि क्या उक्त व्यक्ति ने क्षमता के भीतर अधिगम पा लिया है।

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2. तथ्यों का अधिगम (Learning of Facts)-

समस्या को हल करने मेंकौन-कौन से तथ्यों को सिखाया जाय, शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए।

3. मौलिकता (Originality)-

शिक्षक को चाहिए कि वह तथ्यों के आधार पर मौलिकता के दर्शन कराये।

4. मूल्यांकन (Evaluation)-

छात्रों में अपना मूल्यांकन स्वयं करने की तह प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए।

5. जाँच (Verification)-

छात्रों में जाँच करने की कुशलता का अर्जन कराया जाय।

6. पाठ्य-सहगामी क्रियायें (Co-curricular Activities)

विद्यालय में बुलेटिन बोर्ड, मैगजीन, पुस्तकालय, वाद-विवाद, खेलकूद, स्काउटिंग, एन.सी.सी. आदि क्रियाओं द्वारा नवीन उदभावनाओं का विकास करना चाहिए।

सृजनात्मकता बालकों में निहित विशिष्ट गुण है। इस गुण का विकास किया जाना आवश्यक है। शिक्षक को इस बात से परिचित होना चाहिये कि सृजनशील बालक स्वतन्त्र निर्णय शक्ति वाले होते हैं, अपनी बात पर दृढ़ होते हैं, वे जटिल समस्याओं के समाधान में रुचि लेते हैं, वे उच्च स्तर की प्रतिक्रिया करते है।


                                        निवेदन

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