बालक पर वंशानुक्रम और वातावरण का प्रभाव / influence of heredity and environment in child in hindi

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बालक पर वंशानुक्रम और वातावरण का प्रभाव / influence of heredity and environment in child in hindi

बालक पर वंशानुक्रम और वातावरण का प्रभाव / influence of heredity and environment in child in hindi
बालक पर वंशानुक्रम और वातावरण का प्रभाव / influence of heredity and environment in child in hindi

अनुवांशिकता या वंशानुक्रम का अर्थ

बालक में वे सभी गुण जो उसके माता-पिता का पूर्वजों से जन्मजात प्राप्त होते हैं, इसे ही वंशानुक्रम कहते हैं। माता-पिता से उनके बच्चों में शारीरिक गुणों तथा संगठनों के जीन्स द्वारा होने वाले संचरण (transmission) का अध्ययन करने वाले विज्ञान को आनुवंशिकी की संज्ञा दी जाती है। इन्हीं जीन्स के द्वारा व्यक्ति अपने माता-पिता से उनके गुणों एवं शारीरिक संगठनों को प्राप्त करता है। इसे ही हम आनुवंशिकता कहते हैं।

वंशानुक्रम की परिभाषाएँ

बुडवर्थ के अनुसार- “वंशानुक्रम में वे सभी बातें समाहित रहती है जो जीवन का प्रारम्भ करते समय, जन्म के समय नहीं वरन जन्म से लगभग 9 माह पूर्व गर्भाधान के समय व्यक्ति में उपस्थित थे।”

बी.एन.झा के अनुसार ,“वंशानुगत व्यक्ति की जन्मजात विशेषताओं का पूर्ण योग है।

जेम्स ड्रेबर के अनुसार,“ माता-पिता की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का सत्ताओं में हस्तान्तरण होना वंशानुक्रम है।”

रूथबैंडिक्ट के अनुसार,“ वंशानुक्रम माता-पिता से सन्तान को प्राप्त करने वाले गुणों का नाम है।”

अरस्तू के अनुसार,” वंशानुगत सिद्धान्त का बीज रूप प्राप्त होता है।”

थॉम्पसन के अनुसार,”परंपरागत संतति के मध्य उत्पत्ति के सम्बंध दर्शाने वाला उपयुक्त शब्द वंशानुक्रम है।”

वंशानुक्रम का सिद्धांत

इसका सिद्धांत हम निम्न बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं –

(1) वंशानुगत सिद्धान्त के प्रतिपादक ग्रेनर जॉन मेण्डल थे।
(2) ग्रेगर जान मेण्डल ने अनुवांशिकी का सिद्धान्त हेतु ‘मटर के पौधे’ पर प्रयोग किया। (1866 में)
(3) मटर का वैज्ञानिक नाम ‘पाइसम सैटाइवम’ है।
(4) वंशानुक्रम की इकाई जीन होती है।
(5) वंश परंपरा के मुख वाहक जीन (पित्र्यैक) होते हैं।
(6) सामान्य पुरुष में गुणसूत्र होता है जबकि सामान्य महिला में गुणसूत्र होते हैं। इन्हीं गुणसूत्रों से लिंग का निर्धारण होता है।

महिला (X X)      पुरुष ( X Y)

लड़का (XY)       लड़की (XX)

(7) वंश दर वंश संतान में माता-पिता एवं पूर्वजों के गुण कम होते जाते हैं। 1/2 (माता-पिता), 1/4 (दादा-दादी), 1/8 (परदादा-दादी), 1/6,1/3,1/64 (शेषांश अन्य पूर्वजों से)
(8) संयुक्त कोष (Zygote) दो उत्पादक कोषों मातृकोष (Ovum) एवं पितृकोष (Sperm) का योग होता है।
(9) पुरुष एवं स्त्री के प्रत्येक कोष में 23-23 गुणसूत्र होते हैं।
(10) संयुक्त कोष में 23 जोड़े – 46 गुणसूत्र होते है।।
(11) प्रसिद्ध वैज्ञानिक ‘मन’ ने लिखा है- “हमारी सब असंख्य परम्परागत विशेषतायें इन 46 गुणसूत्रों में निहित रहती है।”
जीन (पित्र्यैक) शारीरिक एवं मानसिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में पहुँचाने का काम करते हैं अर्थात वाहक होते हैं।
(12) लड़कियों की तुलना में लड़कों का जन्म Y गुणसूत्र हल्का होने के कारण अधिक होता है।
(13) वर्णान्धता एवं हीमोफीलिया (रक्तस्रावण रोग) ये दोनों वंशानुगत रोग माने जाते हैं।
(14) वर्णान्धता (Colour Blindness) से ग्रसित व्यक्ति लाल एवं हरे रंग में भेद नहीं कर पाता है इस प्रोटीन दोष या डेल्टोनिज्म भी कहते हैं।

वंशानुक्रम के नियम (सिद्धान्त)

पी0 जिस्बर्ट के अनुसार- “प्रकृति में प्रत्येक पीढ़ी का कार्य माता-पिता द्वारा संतानों में कुछ जैवकीय या मनोवैज्ञानिक विशेषताओं का हस्तांतरण करना है। इस प्रकार हस्तांतरित विशेषताओं की मिली-जुली गठरी को वंशानुक्रम के नाम से पुकारा जाता है।” विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा वंशानुक्रम के अनेक सिद्धान्त बताये गये हैं।”

(1) बीजकोष की निरन्तरता का नियम
(2) समानता का नियम
(3) विभित्रता का नियम
(4) प्रत्यागमन का नियम
(5) अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम (लैमार्क)
(6)  मैंडल का नियम (प्रेमर जॉन मेण्डल)

वंशक्रम (Heredity) मनोवैज्ञानिकों तथा जीववैज्ञानिकों (Biologists) के लिए अत्यन्त रोचक तथा रहस्यमय विषय है। वंशक्रम जिन नियमों तथा सिद्धान्तों पर आधारित है, यह विषय भी अध्ययन के नये आयाम प्रस्तुत करता है। वंशानुक्रम के ये नियम सर्वाधिक प्रचलित हैं-

1. बीजकोष की निरन्तरता का नियम (Law of Continuity of Germ Plasm)

इस नियम के अनुसार,बच्चे को जन्म देने वाला बीजकोष कभी नष्ट नहीं होता। इस नियम के प्रतिपादक वीजमैन (Weismann) का कथन है-“बीजकोष का कार्य केवल उत्पादक कोषों (Germ Cells) का निर्माण करना है, जो बीजकोष बालक को अपने माता-पिता से मिलता है, उसे वह अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देता है। इस प्रकार, बीजकोष पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।” वीजमैन के ‘बीजकोष की निरन्तरता’ के नियम को स्वीकार नहीं किया जाता है।

2. समानता का नियम (Law of Resemblance)

इस नियम के अनुसार, जैसे माता-पिता होते हैं, वैसी ही उनकी सन्तान होती है (Like tends of beget like) | इस नियम के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए सोरेनसन (Sorenson) ने लिखा है-“बुद्धिमान माता-पिता के बच्चे बुद्धिमान, साधारण माता-पिता के बच्चे साधारण और मन्द बुद्धि माता-पिता के बच्चे मन्द-बुद्धि होते हैं। इसी प्रकार, शारीरिक रचना की दृष्टि से भी बच्चे माता-पिता के समान होते हैं। यह नियम भी अपूर्ण है क्योंकि प्रायः देखा जाता है कि काले माता-पिता की संतान गोरी, मंद बुद्धि माता-पिता की संतान बुद्धिमान होती है। इस नियम के अनुसार माता-पिता की विशेषतायें बालक के मूल रूप में आनी चाहिए।

3. विभिन्नता का नियम (Law of Variation)

इस नियम के अनुसार, बालक अपने माता-पिता के बिल्कुल समान न होकर उनसे कुछ भिन्न होते हैं। इसी प्रकार, एक ही माता-पिता के बालक एक-दूसरे के समान होते हुए भी बुद्धि, रंग और स्वभाव में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। कभी-कभी उनमें पर्याप्त शारीरिक और मानसिक विभिन्नता पाई जाती है। इसका कारण बताते हुए सोरेनसन (Sorenson) ने लिखा है-“इस विभिन्नता का कारण माता-पिता के उत्पादक-कोषों की विशेषतायें हैं। उत्पादक कोषों में अनेक पित्रयैक होते हैं, जो विभिन्न प्रकार से संयुक्त होकर एक-दूसरे से भिन्न बच्चों का निर्माण करते हैं।”

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भिन्नता का नियम प्रतिपादित करने वालों में डार्विन (Darwin) तथा लेमार्क (Lemark) ने अनेक प्रयोगों तथा विचारों द्वारा यह मत प्रकट किया है कि उपयोग न करने वाले अवयव तथा विशेषताओं का लोप आगामी पीढ़ियों में हो जाता है। नवोत्पत्ति (Mutation) तथा प्राकृतिक चयन (Natural Selection) द्वारा वंशक्रमीय विशेषताओं का उन्नयन होता है।

4. प्रत्यागमन का नियम (Law of Regression)

इस नियम के अनुसार, बालक में अपने माता-पिता के विपरीत गुण पाये जाते हैं। इस नियम का अर्थ स्पष्ट करते हुए सोरेनसन (Sorenson) ने लिखा है-“बहुत प्रतिभाशाली माता-पिता के बच्चों में कम प्रतिभा होने की प्रवृत्ति और बहुत निम्नकोटि के माता-पिता के बच्चों में कम निम्नकोटि होने की प्रवृत्ति ही प्रत्यागमन है। इस नियम के अनुसार, बालक अपने माता-पिता के विशिष्ट गुणों का त्याग करके सामान्य गुणों को ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि महान् व्यक्तियों के पुत्र साधारणतः उनके समान महान् नहीं होते हैं, उदाहरणार्थ-बाबर, अकबर और महात्मा गाँधी के पुत्र उनसे बहुत निम्न कोटि के थे।

5. अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम (Inheritance of Acquired Traits)

इस नियम के अनुसार, माता-पिता द्वारा अपने जीवन-काल में
अर्जित किये जाने वाले गुण उनकी सन्तान को प्राप्त नहीं होते हैं। इस नियम को अस्वीकार करते हुए विकासवादी लेमार्क (Lemarek) ने लिखा है-“व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया जाता है, वह उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले व्यक्तियों को संक्रमित किया जाता है। इसका उदाहरण देते हुए लेमार्क ने कहा है कि जिराफ पशु की गर्दन पहले बहुत-कुछ घोड़े के समान थी, पर कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण वह लम्बी हो गई और कालान्तर में उसकी लम्बी गर्दन का गुण अगली पीढ़ी में संक्रमित होने लगा। लेमार्क के इस कथन की पुष्टि मैक्डूगल (McDougall) और पावलव (Pavlov) ने चूहों पर एवं हैरीसन (Harrison) ने पतंगों पर परीक्षण करके की है।आज के युग में विकासवाद या अर्जित गुणों के संक्रमण का सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया जाता है।

6. मैंडल का नियम (Law of Mendel)

आनुवंशिकता की क्रियाविधि का वर्णन करने के लिए जोहान ग्रिगोर मैंडल (Johann Gregor Mendel) ने महत्वपूर्ण कार्य किया। अपनी छोटी-सी वाटिका में उन्होंने विभिन्न तरह के मटरों का संकरित कर आनुवंशिकता के आधारभूत नियमों का प्रतिपादन किया। उन्होंने अपने विस्तृत प्रयोगों के परिणाम को 1866 में प्रकाशित किया, लेकिन कई कारणों से उनके प्रयोगों की ओर 1900 तक लोगों का ध्यान बहुत नहीं गया। उसी साल तीन शोधकर्ता नेदरलैण्ड, आस्ट्रिया तथा जर्मनी में स्वतंत्र रूप से प्रयोग कर उसी परिणाम पर पहुँचे जिस पर मैंडल करीब 34 साल पहले ही पहुंचे थे। इन तीन शोधकर्ताओं ने मैंडल के नियमों को वैध ठहराया और उन्हें आनुवंशिकता का आधारभूत नियम’ (Cardinal Principle or Law of Heredity) की संज्ञा दी।

मैंडल के इस आनुवंशिकता के सिद्धान्त में दो नियम सम्मिलित है-
(क) पृथक्करण का सिद्धान्त (Principle of’Segregation),
(ख) स्वतंत्र छटाई का सिद्धान्त (Principle of Independent Assort-ment)

पृथक्करण का सिद्धान्त यह बताता है कि जो गुण पहली संकर पीढ़ी में दबा रहता है या छिपा रहता है (अप्रबल जीन्स) वे समाप्त नहीं हो जाते, बल्कि बाद की संकर पीढ़ी के कुछ सदस्यों में दिखाई देते हैं। इस तरह से उनका कहना था कि दबे हुए गुण अन्य गुणों के साथ मिलकर अपना अस्तित्व नहीं खो देते हैं, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी और फिर इसी तरह दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी तक अपने मूल रूप में अलग अस्तित्व बनाए रखते हैं।

स्वतंत्र छटाई का सिद्धान्त यह बताता है कि किसी एक आनुवंशिक गुण का वितरण दूसरे आनुवंशिक गुण के वितरण से प्रभावित नहीं होता, अर्थात् स्वतंत्र होता है। जैसे मैडल ने अपने प्रयोग में पाया कि मटर के पौधे के फूल का रंग मटर के फली के आकार, डंठल की लम्बाई आदि गुणों से स्वतंत्र होता है।

व्यक्तियों की आनुवंशिकता के सम्बन्ध में निम्नलिखित बिन्दुओं का महत्व सर्वाधिक बताया गया है-

(i) बालक की आनुवंशिकता में केवल उसके माता-पिता की ही देन नहीं होती, बल्कि बालक की आनुवंशिकता का आधा भाग माता-पिता से, एक-चौथाई भाग दादा-दादी, नाना-नानी से, शेष भाग परदादा-परदादी, परनाना-परनानी आदि से मिलता है। इसलिए एक शिशु पूर्णत. अपने माता-पिता पर ही निर्भर नहीं करता और अपने पूर्वजों के गुणों को अपने में कुछ हद तक सम्मिलित किए रहता है।

(ii) क्रोमोसोम्स सदा जोड़े में रहते है। क्रोमोसोम्स में जीन भी जोड़े में होते हैं। इन्हीं जीन्स के आधार पर शिशुओं के गुणों का निर्धारण होता है। शिशु अपने माता या पिता के लक्षण सहित पैदा हो सकता है। जैसे मान लिया जाए कि पिता का कद नाटा और रंग गोरा है और माता का कद लम्बा तथा रंग साँवला है तो शिशु लम्बा और गोरा या नाटा एवं साँवला हो सकता है।

(ii) किसी भी नवजात शिशु को 23 क्रोमोसोम्स माता से तथा 23 क्रोमोसोम्स पिता से मिलते है। इस तरह से कुल 46 क्रोमोसोम्स या 23 जोड़े क्रोमोसोम्स नवजात शिशु में होते हैं। इनमें 22 जोड़े यानी 44 क्रोमोसोम्स बालक या बालिका में आकार एवं विस्तार में समान होते हैं। इन्हें आटोजोम्स कहा जाता है। 23वाँ जोड़ा यौन क्रोमोसोम्स होता है जो बालिका में समान अर्थात् xx होता है, परन्तु बालक में भिन्न अर्थात XY होता है। Y क्रोमोसोम्स X क्रोमोसोम्स की अपेक्षा छोटा होता है तथा इसमें X क्रोमोसोम्स की तुलना में कम जीन्स होते हैं। मानव में शिशु के यौन का निर्धारण पिता द्वारा होता है (क्योंकि पिता में XY होते हैं। न कि माता द्वारा (जिसमें हमेशा XX क्रोमोसोम्स ही होते है)।

वातावरण का अर्थ

पर्यावरण को ही वातावरण कहा जाता हैं। वातावरण या पर्यावरण वह वस्तु है जो चारों ओर से हमें ढके या घेरे हुए हैं। वातावरण (Environment) से तात्पर्य उन सभी चीजों से (जीन्स को छोड़कर) होता है जो व्यक्ति को उत्तेजित और प्रभावित करते हैं। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति का वातावरण से तात्पर्य उन सभी तरह की उत्तेजनाओं से होता है जो गर्भधारण से मृत्यु तक उसे प्रभावित करते है। भौगोलिक वातावरण में अनेकं चीजें या उद्दीपन हो सकते हैं, परन्तु व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक वातावरण में वे सभी सम्मिलित हों, यह आवश्यक नहीं।

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वातावरण की परिभाषाएं

डगलस व हालैण्ड के अनुसार– “वातावरण शब्द का प्रयोग उन सब बाह्य शक्तियों प्रभावों और दशाओं का सामूहिक रूप से वर्णन करने के लिये किया जाता है, जो जीवित प्राणियों के जीवन स्वभाव, व्यवहार, बुद्धि विकास और परिपक्वता पर प्रभाव डालते हैं।”

बोरिंग लैंगफील्ड व वेल्ड के अनुसार,”जीन के अलावा व्यक्ति को प्रभावित करने वाली वस्तु वातावरण है।”

रॉस के अनुसार,”वातावरण वह बाहरी शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है।”

जिस्बर्ट के अनुसार,”वातावरण वह हर वस्तु है जो किसी अन्य वस्तु को घेरे हुए हैं और उस पर सीधे अपना प्रभाव डालती है।”

बोरिंग, लैंगफील्ड एवं वील्ड के अनुसार-“व्यक्ति के वातावरण के
अन्तर्गत उन सभी उत्तेजनाओं का योग आता है जिन्हें वह जन्म से मृत्यु तक ग्रहण करता है।

पी.बालक पर वंशानुक्रम और वातावरण का प्रभाव / influence of heredity and environment in child in hindi एक
वस्तु को चारों ओर से घेरे हुये हैं तथा उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।

वातावरण के प्रकार (Types of Environment)

सामान्य रूप से वातावरण को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता-

1. आन्तरिक वातावरण

आन्तरिक वातावरण का तात्पर्य जन्म से पूर्व माता के गर्भाशय के चारों ओर की परिस्थितियों से है। कोष, वंशसूत्र और पित्रैक (Cell, Chromosomes and Genes) जो वंशानुक्रम के अंग हैं,गर्भाशय में जिस वातावरण में पनपते या रहते हैं, वह बहुत महत्वपूर्ण हैं। वंशसूत्र और पित्रैकों को जो पदार्थ घेरे रहता है उसे कोशारस कहते हैं। इस वातावरण को अन्तर्कोषीय वातावरण कहते हैं। इस वातावरण से पित्रैक प्रभावित होकर विशेष गुणों को प्रभावित करते है। पित्रैकों और कोशारस की अन्त क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न कोषों से आन्तरिक वातावरण की रचना आरम्भ होती है, इसलिए आन्तरिक वातावरण जो रक्त में मिश्रित अन्य पदार्थों से बनता है उसके महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

2. बाह्य वातावरण

बाह्य वातावरण के अन्तर्गत वे सभी परिस्थितियाँ आती हैं जो सामूहिक या मिश्रित रूप से प्राणी को प्रभावित करती हैं। ये परिस्थितियाँ मानव को चारों ओर से घेरे रहती हैं और उस पर विपरीत या अनुकूल दिशा में निरन्तर अपना प्रभाव डालती रहती हैं।  अध्ययन की दृष्टि से बाह्य वातावरण के 2 प्रकार हैं –

(a) भौतिक वातावरण

इसके अन्तर्गत वे समस्त प्राकृतिक वस्तुएँ आ जाती है जो कि व्यक्ति को किसी-न-किसी रूप में प्रभावित करती हैं जैसे पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, जलवायु, नदियाँ, पहाड़, वृक्ष, फल, फूल आदि। इस वातावरण की प्राकृतिक वस्तुओं द्वारा व्यक्ति को ज्ञानोपयोगी प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं जिससे बालक साहस, सहनशीलता और परोपकार जैसे सदगुणों को प्राप्त करता है।

(b) सामाजिक वातावरण

सामाजिक परिस्थिति को सामाजिक दाय भी कहते हैं। सामाजिक परिस्थिति के अन्तर्गत मानवकृत वस्तुएँ आ जाती हैं। यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सामाजिक दाय के रूप में हस्तान्तरित होती है। इसके अन्तर्गत मानव समाज में प्रचलित समस्त सामाजिक परिस्थितियाँ, रीति-रिवाज, प्रथाएँ, रूढ़ियाँ, रहन-सहन के ढंग आदि आते हैं। सामाजिक वातावरण सामाजिक व्यवहारों एवं सम्बन्धों को स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इस वातावरण का व्यक्ति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

इस सामाजिक वातावरण को प्रमुख रूप से तीन उपभागों में विभाजित किया जा सकता है-

(क) आर्थिक परिस्थिति इसमें समाज की आर्थिक प्रक्रियाओं जैसे-सम्पत्ति का उपभोग, उत्पादन तथा विनिमय आदि से सम्बन्धित वे सभी बातें सम्मिलित होती हैं जिनका मानव व्यवहारों एवं सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ता है।

(ख) सांस्कृतिक परिस्थिति यह सामाजिक वातावरण का अभिन्न अंग है। इसके अन्तर्गत संस्कृति और सभ्यता से सम्बन्धित सभी बातें आती है। जैसे-जनरीतियाँ, रूढ़ियाँ, प्रथाएँ, वैज्ञानिक अन्वेषण, रहन-सहन का ढंग आदि । समाज और व्यक्ति के निर्माण तथा विकास में इनका महत्वपूर्ण स्थान है।

(ग) मनःसामाजिक परिस्थिति—इस परिस्थिति या वातावरण के निर्माण में व्यक्ति का महत्वपूर्ण स्थान होता है। एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति पर पड़े प्रभाव को ही मन सामाजिक परिस्थिति कहते हैं।

बालक पर वंशानुक्रम का प्रभाव
(Influence of Heredity on Child)

कुछ मनोवैज्ञानिकों के आधार पर वंशानुक्रम के प्रभाव का वर्णन निम्न प्रकार है-

(1) मूल-शक्तियों पर प्रभाव थार्नडाइक (Thorndike) का मत है कि बालक की मूल शक्तियों का प्रधान कारण उसका वंशानुक्रम है।

(2) शारीरिक लक्षणों पर प्रभाव-कार्ल पीयरसन (Karl Pearson) का मत है कि यदि माता-पिता की लम्बाई कम या अधिक होती है तो उनके बच्चे की भी लम्बाई कम या अधिक होती है।

(3) प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव-क्लिनबर्ग (Klinberg) का मत है कि बुद्धि की श्रेष्ठता का कारण प्रजाति है। यही कारण है कि अमरीका की श्वेत प्रजाति, नीग्रो प्रजाति से श्रेष्ठ है।

(4) व्यावसायिक योग्यता पर प्रभाव कैटल (Cattell) का मत है कि व्यावसायिक योग्यता का मुख्य कारण वंशानुक्रम है। वह इस निष्कर्ष पर अमरीका के 885 वैज्ञानिकों के परिवारों का अध्ययन करने के परिणामस्वरूप पहुँचा। उसने बताया कि इन परिवारों में से 2/5 व्यवसायी-वर्ग के, 1/2 उत्पादक-वर्ग के और केवल 1/4 कृषि-वर्ग के थे।

(5) चरित्र पर प्रभाव-गडेल (Dugdale) का मत है कि चरित्रहीन माता-पिता की सन्तान चरित्रहीन होती है।

(6) महानता पर प्रभाव-गाल्टन (Galton) का मत है कि व्यक्ति की महानता का कारण उसका वंशानुक्रम है। यह वंशानुक्रम का ही परिणाम है कि व्यक्तियों के शारीरिक और मानसिक लक्षणों में विभिन्त्रता दिखाई देती है।

(7) वृद्धि पर प्रभाव-गोडार्ड (Goddard) का मत है कि मन्द-बुद्धि माता-पिता की सन्तान मन्द-बुद्धि और तीव्र-बुद्धि माता-पिता की संतान तीव्र-बुद्धि वाली होती है। उसने यह बात कालीकॉक (Kallikak) नामक एक सैनिक के वंशजों का अध्ययन करके सिद्ध की।

बालक पर वातावरण का प्रभाव
(Influence of Environment on Child)

कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार वातावरण के प्रभाव का वर्णन निम्न प्रकार है-

(1) शारीरिक अन्तर पर प्रभाव-फ्रेंज बोन्स (Frana Bons) का मत है कि विभिन्न प्रजातियों के शारीरिक अन्तर का कारण वंशानुक्रम न होकर वातावरण है। उसने अनेक उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि जो जापानी और यहूदी, अमरीका में अनेक पीढ़ियों से निवास कर रहे हैं, उनकी लम्बाई भौगोलिक वातावरण के कारण बढ़ गयी है|

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(2) मानसिक विकास पर प्रभाव-गोर्डन (Gordon) का मत है कि उचित सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण न मिलने पर मानसिक विकास की गति धीमी हो जाती है। उसने यह बात नदियों के किनारे रहने वाले बच्चों का अध्ययन करके सिद्ध की । इन बच्चों का वातावरण गन्दा और समाज के अच्छे प्रभावों से दूर था।

(3) प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव-क्लार्क (Clark) का मत है कि कुछ प्रजातियों की बौद्धिक श्रेष्ठता का कारण वंशानुक्रम न होकर वातावरण है। उसने यह बात अमरीका के कुछ गोरे और नीग्रो लोगों की बुद्धि-परीक्षा लेकर सिद्ध की। उसके समान अनेक अन्य विद्वानों का मत है कि नीग्रो प्रजाति की बुद्धि का स्तर इसलिए निम्न है, क्योंकि उनको अमरीका की श्वेत प्रजाति के समान शैक्षिक, सांस्कृतिक और सामाजिक वातावरण उपलब्ध नहीं है।

(4) बुद्धि पर प्रभाव-कैंडोल (Candolle) का मत है कि बुद्धि के विकास में वंशानुक्रम की अपेक्षा वातावरण का प्रभाव कहीं अधिक पड़ता है। उसने यह बात 552 विद्वानों का अध्ययन करके सिद्ध की। ये विद्वान् लन्दन की ‘रॉयल सोसायटी’, पेरिस की ‘विज्ञान अकादमी’, और बर्लिन की ‘रॉयल अकादमी के सदस्य थे।

(5) व्यक्तित्व पर प्रभाव-कूले (Colley) का मत है कि व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानुक्रम की अपेक्षा वातावरण का अधिक प्रभाव पड़ता है। उसने सिद्ध किया है कि कोई भी व्यक्ति उपयुक्त वातावरण में रहकर अपने व्यक्तित्व, का निर्माण करके महान् बन सकता है।

(6) अनाथ बच्चों पर प्रभाव-समाज-कल्याण केन्द्रों में अनाथ और परावलम्बी बच्चे आते हैं। वे साधारणतः निम्न परिवारों के होते हैं, पर केन्द्रों में उनका अच्छी विधि से पालन किया जाता है, उनको अच्छे वातावरण में रखा जाता है और उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है।

(7) जुड़वाँ बच्चों पर प्रभाव-जुड़वाँ बच्चों के शारीरिक लक्षणों, मानसिक शक्तियों और शैक्षिक योग्यताओं में अत्यधिक समानता होती है। न्यूमैन (Newman), फ्रीमैन (Freeman) और होलजिंगर (Holzinger) ने 20 जोड़े जुड़वाँ बच्चों को अलग-अलग वातावरण में रखकर उनका अध्ययन किया। उन्होंने एक जोड़े के एक बच्चे को गाँव के फार्म पर और दूसरे को नगर में रखा । बड़े होने पर दोनों बच्चों में पर्याप्त अन्तर पाया गया।

(8) बालक पर बहुमुखी प्रभाव-वातावरण, बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक आदि सभी अंगों पर प्रभाव डालता है। इसकी पुष्टि एवेरॉन के जंगली बालक’ के उदाहरण से की जा सकती है। इस बालक को जन्म के बाद ही भेड़िया उठा ले गया था और उसका पालन-पोषण जंगली पशुओं के बीच में हुआ था। इसलिए वह जानवर की तरह ही व्यवहार करने लगा था।

वंशानुक्रम और वातावरण का पारस्परिक सम्बन्ध

वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण का घनिष्ठ सम्बन्ध है परन्तु पर्यावरण क्या है? यहाँ पर हम केवल यह बताने का प्रयास करेंगे कि वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण आपस में घनिष्ट रूप से सम्बन्धित हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व, स्वभाव, बुद्धि तथा व्यवसाय पर वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण दोनों का प्रभाव पड़ता है। एल्टनबर्ग (Altenberg) का कथन है, “प्रत्येक लक्षण को विकसित होने के लिए वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण-दोनों ही की आवश्यकता होती है।

” लूम्बले (Lumbley) ने वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध को कितने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है। वह लिखता है- “यह वंशानुसंक्रमण या पर्यावरण नहीं वरन् वंशानुक्रमण और पर्यावरण है।” उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट होता है कि वंशानुक्रम तथा पर्यावरण दोनों ही मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। अब प्रश्न यह है कि क्या इन दोनों को पृथक किया जा सकता है? वंशानुसंक्रमण अधिक महत्त्वपूर्ण है या पर्यावरण अधिक महत्त्वपूर्ण है? उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है—मानव-जीवन की प्रत्येक घटना पर्यावरण तथा वंशानुसंक्रमण दोनों तत्त्वों का परिणाम होती है। इस परिणाम के दोनों ही आवश्यक तत्त्व हैं। इन तत्त्वों में से हम किसी को भी अपने जीवन की हर परिस्थिति में आवश्यक मानते हैं। दोनों का जटिल मेल है। सृष्टि के आरम्भ से ही दोनों तत्त्व विशिष्ट स्थिति को उत्पन्न करने में कियाशील रहे हैं।

मिच्यूरिन (Michurin) वंशानुसंक्रमण को प्राचीन पर्यावरण का कुल योग मानता है। पर्यावरण प्रत्येक शरीर में प्रवेश कर जाता है और इसके कुछ अंश पित्र्यैकों द्वारा अगली पीढ़ियों की सन्तान में हस्तान्तरित हो जाते हैं। वंशानुसंक्रमण व्यक्ति में विकसित होने की क्षमतायें प्रदान करता है, परन्तु इन क्षमताओं के विकास का अवसर पर्यावरण में ही मिलता है। वंशानुसंक्रमण क्रियाशील पूँजी प्रदन करता है और पर्यावरण इसको नियोजित करने का अवसर प्रदान करता है। मैकाइवर तथा पेज (MacIver and Page) ने वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण की घनिष्ठता इन शब्दों में व्यक्त की है “जीवन की प्रत्येक घटना दोनों का परिणाम होती है। उनमें से प्रत्येक परिणाम के लिए उतना ही आवश्यक है जितना दूसरा। न तो कोई हटाई जा सकती है और न ही कोई अलग की जा सकती है।”

निवेदन

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