कल्पना का अर्थ व परिभाषाएं / कल्पना के प्रकार / types of imagination in hindi

दोस्तों अगर आप बीटीसी, बीएड कोर्स या फिर uptet,ctet, supertet,dssb,btet,htet या अन्य किसी राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आप जानते हैं कि इन सभी मे बाल मनोविज्ञान विषय का स्थान प्रमुख है। इसीलिए हम आपके लिए बाल मनोविज्ञान के सभी महत्वपूर्ण टॉपिक की श्रृंखला लाये हैं। जिसमें हमारी साइट istudymaster.com का आज का टॉपिक कल्पना का अर्थ व परिभाषाएं / कल्पना के प्रकार / types of imagination in hindi है।

कल्पना का अर्थ व परिभाषाएं / कल्पना के प्रकार / types of imagination in hindi

कल्पना का अर्थ व परिभाषाएं / कल्पना के प्रकार / types of imagination in hindi

Imagination/कल्पना क्या है

वस्तु का प्रत्यक्षीकरण मानव मस्तिष्क में प्रतिमाओं को स्थापित करता है। वह इन  प्रतिमाओं में परिवर्तन करके नवीनता उत्पन्न कर देता है। इसी नवीनता का नाम कल्पना है। मकान निर्मित करने वाले आर्किटेक्ट मकान के नये डिजायन तैयार करते हैं। ये डिजायन कल्पना पर ही आधारित होते हैं। इसमें वह अपने पूर्वानुभवों का प्रत्यास्मरण करता है, उनमें से उपयुक्त अनुभव का चुनाव करके कुछ परिवर्तन करता है और एक नये मकान का मानचित्र बना देता है। इसी प्रकार से कहानीकार, उपन्यासकार यथार्थ जगत् की किसी घटना को आधार मानकर काल्पनिक चरित्रों का प्रयोग करके कहानी या उपन्यास की संरचना करता है। अतः शिक्षा के क्षेत्र में कल्पना का अत्यधिक महत्त्व है।

कल्पना का अर्थ एवं परिभाषाएँ

कल्पना के द्वारा व्यक्ति यथार्थ से अलग हट जाता है। इससे उसे सुख मिलता है। कल्पना में अनुभव का प्रत्यास्मरण होता है लेकिन कल्पना को अलग स्थापित करने वाला लक्षण विद्यमान होता है। अत: यथार्थता में अभूतपूर्व परिवर्तन करना ही कल्पना होता है। कल्पना को अधिक स्पष्ट करने के लिये निम्नलिखित परिभाषाएँ प्रस्तुत हैं-

(1) वुडवर्थ (Woodworth) के अनुसार, “कल्पना मानसिक हस्त व्यापार है। जब पूर्व यथार्थ तथ्यों का व्यक्तिगत स्मरण करता है तो वह कल्पना प्रदर्शित करता है।” Imagination is mental manipulation. When the individual recall facts previously observed in really and proceeds to arrange these facts in to a new pattern, he is said to show imagination.

(2) रायबर्न (Rayburn) के मतानुसार, “कल्पना वह शक्ति है, जिसके द्वारा हम अपनी प्रतिमाओं का नये प्रकार से प्रयोग करते हैं। यह हमको पूर्व अनुभव द्वारा किसी ऐसी वस्तु का निर्माण करने में सहायता देती है जो पहले कभी नहीं थी।” Imagination is the power to use images in a new way, it is using our past experience to create something new which has not existed before.

(3) मैक्डूगल (McDougall) के कथनानुसार, “कल्पना दूरस्थ वस्तुओं के सम्बन्ध का चिन्तन है।” Imagination is the thinking of remote objects.

कल्पना की विशेषताएँ

1. मानसिक प्रक्रिया (Mental process) – कल्पना एक मानसिक प्रक्रिया है, यह स्वत: ही चलती रहती है। इसका प्रयोग शक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता। इसका प्रयोग क्रमबद्धता पर निर्भर रहता है। जब तक हम अन्य मानसिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे इसका कोई अर्थ नहीं होता है।

2. पूर्व अनुभव (Previous experience) – कल्पना के लिये एक धरातल या अस्तित्व की आवश्यकता होती है। पूर्व अनुभव धरातल के रूप में कल्पना को सहायता देता है। अत: कल्पना का आधार पूर्व अनुभव है। इसके बिना कल्पना साकार रूप नहीं ले पाती।

3. प्रतिमा चयन (Image selection) – मानव मन बड़ा ही विचित्र है। वह अपनी रुचि एवं पसन्द के आधार पर उद्दीपकों का चयन करता है और उनके प्रति प्रतिक्रिया करके मस्तिष्क में प्रतिमा के रूप में स्थायी बनाता है। कल्पना करते समय इन प्रतिमाओं में से उपयुक्त प्रतिमा का चयन करके हम अपनी सृजनात्मकता में वृद्धि करते हैं।

4. सृजन शक्ति (Crative power) – कल्पना का प्रारम्भ और अन्त सृजन के लिये होता है। जब हम किसी यथार्थ स्वरूप को मानव हित के लिये तैयार कर देते हैं या स्वरूप प्रदान कर देते हैं तो वह सृजन कहलाता है। वर्तमान शोध या आविष्कार इसी के परिणाम होते हैं।

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कल्पना के प्रकार
Kinds of Imagination

कल्पना के प्रकारों को तभी स्पष्ट किया जा सकता है जब हम मैक्डूगल और ड्रेवर द्वारा प्रतिपादित वर्गीकरण का अध्ययन करें। अत: हम यहाँ पर दोनों के वर्गीकरण को प्रस्तुत करते हैं-

1. मैक्डूगल के अनुसार कल्पना के प्रकार

मैक्डूगल ने मुख्य रूप से कल्पना को दो भागों में बाँटा है- पुनरुत्पादक और उत्पादक कल्पना।

(1) पुनरुत्पादक कल्पना (Reproductive imagination) –

मस्तिष्क में स्थापित पूर्व अनुभव जब प्रतिमा के रूप में हमारे समक्ष आते हैं तो उन्हें पुनरुत्पादक कल्पना कहा जाता है। इसको हम कल्पना न मानकर स्मृति का नाम देते हैं।

(2) उत्पादक कल्पना (Productive imagination) –

व्यक्ति द्वारा सीखे गये और धारण किये गये पूर्व अनुभवों को आधार मानकर जब हम उद्दीपक में कुछ नवीनता उत्पन्न कर देते हैं तो इसे उत्पादक कल्पना कहते हैं। इसी को वास्तविक कल्पना माना जाता है। आज मानव की उन्नति इसी के द्वारा सम्भव हो पायी है। इसके दो भाग होते हैं-

(अ) रचनात्मक कल्पना (Constructive imagination) –

मानव उपयोग के विकास के लियेभौतिक वस्तुओं में नवीनता लाना ही रचनात्मक कल्पना होती है। वर्तमान शोध एवं आविष्कार इसके परिणाम होते हैं।

(ब) सृजनात्मक कल्पना (Creative imagination) –

इस कल्पना के अन्तर्गत व्यक्ति की मौलिकता किसी वस्तु या विचार के रूप में उत्पन्न होती है। टी.पी. नन् ने इसी को व्यक्ति की ‘स्वाभाविकता’ का नाम दिया है। सृजन शक्ति का सही प्रकाशन इसी के द्वारा सम्भव होता है। अतः शिक्षा के द्वारा बालकों की इसी शक्ति को उभारा जाय ताकि वे राष्ट्र के लिये उपयोगी बन सकें।

2. ड्रेवर के अनुसार कल्पना के प्रकार

-ड्रेवर ने कल्पना के वर्गीकरण का आधार’मैक्डूगल का वर्गीकरण’ ही माना है लेकिन कुछ परिवर्तन भी किये हैं-

(1) पुनरुत्थान एवं उत्पादक कल्पना (Productive and reproductive imagination) –

उत्पादन कल्पना का वर्णन ड्रेवर ने मैक्डूगल की भाँति किया है।

(2) आदानात्मक कल्पना (Receptive imagination) –

जब किसी उद्दीपक का परिचय चित्र द्वारा या वर्णन करके प्रस्तुत करते हैं तो बालकों के मस्तिष्क में एक प्रतिमा है जो आरामदायक कल्पना होती है, जैसे- रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध का वर्णन एवं चित्र प्रदर्शन बालकों के मस्तिष्क में महारानी के शौर्य की कल्पना स्थापित करता है।

(3) कार्यसाधक कल्पना (Pragmatic imagination) –

जब हम किसी काल्पनिक विचार के द्वारा समाज का लाभ करते हैं तो उसे कार्यसाधक कल्पना माना जाता है, जैसे- नदी के पुल का मानचित्र, कृषि की मशीनें।

(4) सौन्दर्यात्मक कल्पना (Asthetic imagination) –

मानव जीवन को सुन्दर बनाने और मानव में सौन्दर्यानुभूति को जाग्रत करने के लिये कला, गायन, चित्र काव्य आदि की कल्पना इसके अन्तर्गत आती है।

(5) विचारात्मक कल्पना (Theoretical imagination) –

विचारों एवं ज्ञान को महत्त्व देने वाली कल्पना विचारात्मक होती है। इसमें नवीन विचार, सिद्धान्त और आदर्श का निर्माण किया जाता है।

(6) क्रियात्मक कल्पना (Practical imagination) –

वस्तु की व्यावहारिक उपयोगिता को ध्यान में रखकर जब हम किसी वस्तु की कल्पना को साकार रूप प्रदान करते हैं तो इसे क्रियात्मक कल्पना मानते हैं; जैसे-नदी को पार करने के लिये नाव, स्टीमर आदि।

(7) कलात्मक कल्पना (Artistic imagination) –

जब हम कला के रूप में, काव्य के क्षेत्र में या संगीत के क्षेत्र में सृजन करते हैं तो वह कलात्मक कल्पना होती है।

(8) मन-तरंग कल्पना (Phantastic imagination) –

जब हम बिना किसी यथार्थ को सम्मुख रखकर काल्पनिक उड़ान भरते हैं तो वह मन-तरंग कल्पना होती है। इसमें व्यक्ति भावनावश हवाई किले बनाता है और परियों की कथाओं को सत्य मानता है।

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कल्पना का शिक्षा से सम्बंध
Imagination and Education

कल्पना के सम्बन्ध में एच.एल. हलग्रीव ने अनेक प्रयोग किये। निष्कर्ष स्वरूप बताया गया कि कल्पना प्रखर बुद्धि बालकों में अधिक पायी जाती है। कल्पना तभी सार्थक हो सकती है जब उसके द्वारा रचनात्मक और सृजनात्मक शक्ति का विकास बालकों में हो। अत: कल्पना को शिक्षा में निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं-


1. बौद्धिक प्रखरता (Intellectual sharpness) –कल्पना से बालकों की बुद्धि प्रखर एवं तीव्र होती है। व्यावहारिक क्रियाओं में बुद्धि का विभिन्न विधियों से प्रयोग करना ही बुद्धि की प्रखरता को बढ़ाना होता है। अध्यापक का यह कर्त्तव्य है कि वह बालकों में निहित संचय-शक्ति के माध्यम से नवीन विचारों एवं कार्यों का निर्माण करायें। अतः विषय का ज्ञान बालकों की बौद्धिक प्रखरता में तीव्रता लाता है।

2. ज्ञानार्जन में तीव्रता (Intensity in learning) – संसार के सभी ज्ञान हम चित्र,मॉडल, उदाहरण या प्रयोगों के माध्यम से बालकों तक नहीं पहुँचा सकते। इसलिये हम बालकों को कल्पनात्मक क्रियाओं और व्यवहारों के द्वारा सीखने को कहते हैं। हमें कक्षा में समस्यात्मक विचार प्रस्तुत करने चाहिये, जिनको कल्पना के साथ बालक हल करें। चिन्तन एवं तर्क में कल्पना का बाहुल्य समस्या का हल प्रदान करता है। अतः कल्पना के द्वारा ज्ञान की तीव्रता में वृद्धि होती है।

3. निराशा का निवारण (Prohibition of frustation) – रायबर्न का मत है कि कल्पना हमारी निराशाओं, दु:खों, भूलों और अपमानों आदि से छुटकारा दिलाती है। ऐसे समय मैं कल्पना सुखानुभूति से सम्बन्धित प्रतिमाओं को उत्पन्न करके कुसमायोजन पर विजय दिलाती है; जैसे-एक बालक सिनेमा देखने से वंचित रहता है तो वह कल्पना करता है कि बड़े दिन की छुट्टियों में पिता के साथ मुम्बई जायेंगे और खूब सिनेमा देखेंगे।

4. भावी जीवन की झलक (To realise the future pospects) – मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन इस तथ्य को सिद्ध करते हैं कि व्यक्ति कल्पना के समय अपने भविष्य को निश्चित करता है। वह अपने भविष्य में सुख को सम्मिलित करता है। वह कल्पना के आधार पर भावी जीवन की रणनीति तैयार करता है और उसको व्यवहार में लाता है। अतः शिक्षक को बालक की कल्पना शक्ति का अध्ययन करना चाहिये फिर उसके भविष्य के दिशा को निश्चित करना चाहिये।

5. रुचि परिष्करण (Improvement in interest) – यथार्थ में नवीनीकरण स्थापित करना ही कल्पना है। बालक कल्पना का प्रयोग करके अपनी रुचि में परिष्कार लाते हैं। वे दैनिक व्यवहार में, अपनी क्रियाओं में भोजन, वस्त्र धारण, वार्तालाप आदि में कल्पना शक्ति का प्रयोग करके नये-नये आविष्कार करते रहते हैं। आज इन्हीं को सुरुचि कहा जाता है।

6. सृजन शक्ति का विकास (Development of creative power) – कल्पना के बिना सृजन नहीं हो सकता है। कल्पना से पहले हम उद्दीपक की यथार्थता का परिचय मन में धारण करते हैं।

7. निर्देशन (Guidance) – कल्पना व्यक्ति को अपूर्व मार्ग दिखाती है। यही मार्ग उनके आविष्कार का जन्मदाता होता है। विज्ञान के क्षेत्र में, साहित्य के क्षेत्र में, प्रशासन के क्षेत्र में और संसार के अन्य क्षेत्रों में भी जो नवीनताएँ देखने को मिलती हैं वे केवल कल्पना के कारण ही हैं। कल्पना में व्यक्ति एक स्वप्न देखता है और उसको प्राप्त करने में लग जाता है। स्वप्न में बताये गये मार्ग को अपनाते ही वह नवीन खोज प्राप्त करता है। अतः कल्पना हमें निर्देशन देती है।

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उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि कल्पना विहीन मानव को मानव न मानकर पशु माना जाना चाहिये। मानव उच्च प्राणी है उसका विकास शिक्षा के द्वारा समाजगत नियमों के अन्तर्गत होता है। शिक्षा के क्षेत्र में कल्पना का सकारात्मक स्वरूप ही प्रचलित किया जाय ताकि बालक अपना सम्माननीय विकास करें। इसीलिये मोर्स एवं विगो ने लिखा है- कल्पना व्यक्ति को सांसारिक व्यवस्था और नवीन संसार में परिवर्तित करने की क्षमता देती है।

शिक्षा द्वारा कल्पना का विकास
Development of Imagination in Education

शिक्षा द्वारा सृजनात्मक कल्पना के स्वाभाविक लक्षण को विकसित किया जा सकता है। ऐसी आदतों को छात्र/छात्राओं में विकसित किया जाना चाहिये, जो सृजनात्मक चिन्तन का प्रादुर्भाव करें। कार्यसाधक तथा रसात्मक दोनों प्रकार की कल्पनाओं का विकास होना चाहिये। बालकों को छोटे-छोटे नमूने दिखाकर उनसे यन्त्र बनवाये जाने चाहिये। कारखाना तथा वैज्ञानिक प्रयोगशाला का अवलोकन कराने से कार्यसाधक कल्पना विकसित की जा सकती है।

मॉण्टेसरी ने कहा है कि बालकों में तारंगिक कल्पना का विकास हानिप्रद है। अत: ऐसा साहित्य बालका बालिकाओं के मध्य नहीं होना चाहिये क्योंकि ऐसा साहित्य उन्हें वास्तविक जगत् से दूर ले जाता है। रस्क के अनुसार, इस कल्पना का विकास साहित्यिक वंश परम्परा के लिये उचित है। मॉण्टेसरी के अनुसार, कल्पनात्मक क्रियाएँ सत्य और यथार्थ पर आधारित होनी चाहिये,जिससे सक्रिय विज्ञान में उचित सामग्री प्राप्त हो सके। किसी भी शिक्षा योजना में ललित कल्पना का स्थान होना आवश्यक है। इस प्रकार यथार्थ कल्पना को तारंगिक और तारंगिक को यथार्थ कल्पना द्वारा ठीक कर देना चाहिये। कलात्मक कल्पना के विकास हेतु आवश्यक है कि छात्रों की रुचि साहित्य एवं संगीत की ओर विकसित की जाय। बालकों में साहित्य की रसानुभूति की योग्यता को बढ़ाना चाहिये। पाठ्यवस्तु में रसात्मक कल्पनाओं का समावेश करना चाहिये।

फ्रॉबेल ने बालकों की शिक्षा में कहानियों को स्थान देने के लिये कहा है परन्तु उन्हें भय प्रदान करने वाली कहानियाँ नहीं सुनानी चाहिये। बालक के काल्पनिक विकास में कहानी का प्रमुख स्थान है।
श्रेष्ठ और प्रेरणाप्रद कहानियाँ बालकों को सुनायी जानी चाहिये। कलात्मक कल्पना के विकास हेतु बालकों में साहित्य, संगीत, चित्रकला आदि के प्रति प्रेम उत्पन्न करना चाहिये। बालकों को स्वयं कविता लिखने, चित्र बनाने और गाना गाने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये। एकांकी कार्यसाधक कल्पना के विकास हेतु बालकों को प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के जीवन चरित्र तथा उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों से अवगत कराना चाहिये और उन्हें स्वाध्याय हेतु भी प्रेरित करना चाहिये। तभी उनमें सूक्ष्म निरीक्षण तथा विचार-शक्ति को जन्म मिलेगा। कल्पना के विकास के लिये हमें बालकों को विशिष्ट से सामान्य की ओर ले जाना चाहिये।



                                        निवेदन

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