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कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत / moral development theory of kohlberg in hindi
लॉरेन्स कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत
लॉरेन्स कोहलबर्ग ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन ऐसे बच्चों से प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण के पश्चात् किया, जिनकी आयु 10 से 16 वर्ष के मध्य थी। इनकी बाल केन्द्रित शिक्षा नैतिक विकास पर आधारित है। लारेन्स कोहलबर्ग की अवधारणा है कि बालक के नैतिक विकास की प्रकृति या स्थान को समझने हेतु उसके तर्क एवं चिन्तन के स्वरूप को समझना आवश्यक है। नैतिकता का सही अनुमान एवं आकलन बालक द्वारा की गई प्रतिक्रियाओं के आधार पर ज्ञात किया जा सकता है।
कुछ ऐसी दशाएँ होती हैं, जिनमें इच्छित या प्रत्याशित व्यवहार का प्रदर्शन बालकों में भय या दण्ड या पुरस्कार के प्रलोभन के कारण होता है। वे वांछित व्यवहार नैतिक निर्णय एवं नैतिक स्थिति के कारण नहीं होते हैं। परन्तु इस नैतिक व्यवहार के अध्ययन द्वारा कोहलबर्ग ने बालक को किसी धर्म संकट या कशमकश की परिस्थिति में रखकर, बालक उस परिस्थिति में क्या सोचता है और किस तर्क के आधार पर निर्णय लेता है? इस उपागम को प्राणीगत उपागम का नाम दिया। इसके पीछे तर्क यह था कि निर्णय लेने की क्षमता पर्यावरण से नहीं वरन् अपनी तर्कशक्ति के कारण होता है। कोहलबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धान्त को अवस्था सिद्धान्त भी कहा जाता है, क्योंकि कोहलबर्ग ने विकास के हेतु अवस्थाओं पर बल दिया।
नैतिक विकास की अवस्थायें
(Stages of Moral Development)
नैतिक विकास की कुल छह अवस्थाओं को तीन स्तर पद दो-दो अवस्थाओं के साथ विभाजित किया गया है। ये अवस्थायें निम्न हैं-
1. पूर्व लौकिक स्तर (Pre-conventional Level)
यह अवस्था 4 वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में नैतिक तर्कणा (moral reason) दूसरे लोगों के मानकों (standards) से निर्धारित होता है, न कि सही या गलत के अपने आंतरिक मानकों (Internalized standards) के द्वारा। बच्चे यहाँ किसी भी व्यवहार को अच्छा या बुरा, उसके भौतिक परिणामों के आधार पर कहते हैं। इसके अंतर्गत दो अवस्थाएँ होती हैं-
(a) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था (Obedience and Punishment Stage) ।
(b) अहंकार की अवस्था (Stage of Naive Hedoneous) ।
(a) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था (Obedience and Punishment Stage)
अच्छा या बुरा कार्य पूरी तरह से उसके परिणाम पर निर्भर करता है। बालक दण्ड के भय से बड़ों की आज्ञा का पालन करता है लेकिन किसी गलत क्रिया को गलत नहीं मान सकता है। यदि यह क्रिया पहचानी न जाये और दण्डित न की जाए। क्रिया जितनी गलत होगी, दण्ड भी उतना ही कठोर होगा। इस तरह से प्रारम्भिक अवस्था में दण्ड को ही बच्चों ने नैतिकता का आधार माना है। साधारण शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिस क्रिया को करने पर बच्चों को दण्डित नहीं किया जाता है उसे वह नैतिकता से जोड़ लेता है।
(b) अहंकार की अवस्था (Stage of Naive Hedoneous)
इस अवस्था में बालक अपनी आवश्यकताओं को समझने लगता है। इस अवस्था में बालक कुछ ऐसे कार्य करता है जिसके द्वारा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इन कार्यों को करना उसे अच्छा लगता है। नैतिक विकास की इस अवस्था को बालक का अहंकार अथवा उसकी अपनी इच्छा में आवश्यकताएँ उसकी नैतिक तर्क शक्ति का आधार बनाती हैं।
2. लौकिक स्तर (Conventional Level)
यह अवस्था दो वर्गों में विभाजित है–
(a) प्रशंसा की अवस्था (Stage of Praise)
इस अवस्था में बालक वही कार्य करता है। जिसका परिणाम उसे प्रशंसा प्रदान करता है एवं उसके कार्यों को समाज के लोग अनुमोदित करते हैं। इस अवस्था तक उसे प्रशंसा एवं निन्दा का अर्थ समझ में आ जाता है। बालक एवं बालिका इस अवस्था में यौनोचित एवं समाज द्वारा अनुमोदित व्यवहार करना सीख जाते हैं। स्वीकृति एवं अनुमोदित व्यवहार करने पर प्रशंसा मिलती है तथा इसके विपरीत व्यवहार करने पर बालकों को दण्ड मिलता है या फिर उनकी निन्दा की जाती है।
(b) सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था (Stage of Maintaining Social Orders)
यह अवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण अवस्था होती है। कोहलबर्ग के अनुसार, समाज के लोग इस में प्रवेश पाते हैं। इस अवस्था में बालक सामाजिक रीति-रिवाज, मूल्यों,नियमों,प्रथाओं एवं लौकिक क्रियाओं से अवगत हो जाता है। इनके प्रति उसका विश्वास एवं आस्था अटूट हो जाती है। उसमें कर्तव्य की भावना का विकास हो जाता है तथा वह समझने लगता है कि कौन-सा कार्य अच्छा है और कौन-सा कार्य अच्छा नहीं है।
3. पश्चात् लौकिक स्तर (Post-conventional level)
इस अवस्था में बच्चों में नैतिक अवस्था पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (internal control) में होती है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर होता है। इसमें नैतिकता का ज्ञान बच्चों में होता है। यह दो वर्गों में विभाजित है-
(a) समझौता, वैयक्तिक अधिकारों एवं प्रजातांत्रिक रूप से स्वीकृत नियमों की अवस्था-
यह अवस्था सामाजिक समझौतों की अवस्था होती है। इस अवस्था में वह यह समझने लगता है कि व्यक्ति और समाज के मध्य एक प्रकार का समझौता करना पड़ता है जिसके तहत व्यवहार प्रदर्शन होता है। समाज के द्वारा अनुमोदित नियमों का पालन इसलिए करना पड़ता है क्योंकि वह समाज के हित में रहता है। वस्तुतः सामाजिक नियमों, प्रथाओं, रीति-रिवाजों एवं प्रजातांत्रिक रूप से स्वीकृत नियमों के द्वारा व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान की जाती है। अतः इन नियमों का उल्लंघन करना अनैतिक आचरण कहलाता है।
(b) विवेक की अवस्था (Stage of Concience)
यह नैतिकता की पराकाष्ठा की अवस्था होती है। बालकों के नैतिक व्यवहार विवेकपूर्ण होते हैं। इस अवस्था में वह अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित, वांछित-अवांछित व्यवहारों एवं कृत्यों के सम्बन्ध में अपना व्यक्तिगत विचार रखने लगता है। इस अवस्था में नैतिक व्यवहार का आधार उसका अपना विवेक होता है। कोहलबर्ग का सिद्धान्त जीन पियाजे, जॉन डीवी तथा जेम्स मार्क बाल्डविन के सिद्धान्तों से प्रेरित है। कोहलबर्ग का विश्वास भी था और उन्होंने अध्ययनों से सिद्ध भी किया कि विकास एक चरणबद्ध प्रकिया है।
उनके मानव विकास सम्बंधी विचार निम्नलिखित हैं-
(i) विकास सामाजिक नियमों को प्राप्त करने की प्रक्रिया है।
(ii) विकास निश्चित दिशा में तथा निश्चित चरणों में सम्पन्न होने वाली प्रक्रिया है।
(iii) सामाजिक नियमों के प्रति अनुक्रिया से नैतिकता का विकास होता है।
(iv) विकास सामाजिक उपयोगिता पाने की प्रक्रिया है।
(v) विकास एक सतत प्रक्रिया है।
कोहलबर्ग के सिद्धान्त की सीमाएँ (Limitations of Kohlberg Theory)
कोहलबर्ग द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त की सीमाएँ निम्न हैं –
1.इस सिद्धान्त की सबसे प्रमुख सीमा है कि इसमें वास्तविक व्यवहार की अवस्था की अपेक्षा तार्किकता पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
2. यह एक सामान्य अन्वेषण है, इसमें प्रत्येक अवस्था के बालक के आस-पास जब प्रेक्षक न हो, तो वे अपने साथी आयु वर्ग की नकल करते हैं या उन्हें उत्तर बताते हैं या फिर प्रेक्षक प्रत्येक बालक को ईमानदारी से व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित करता है और बेईमानी से व्यवहार करने वाले कुछ बालकों को हतोत्साहित कर सकता है। यह दर्शाता है कि एक बालक का नैतिक व्यवहार बहुत कमजोर हो सकता है।
कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धान्त : बालक-केन्द्रित शिक्षा के पाठ्यक्रम-निर्माण एवं उनको शिक्षण विधि को प्रभावित करता है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धान्त, स्विस मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे एवं अमेरिकी दार्शनिक जॉन डीवी के विचारों पर आधारित है। ये जेम्स मार्क वाल्डविन से भी प्रभावित थे। इन्होंने मानव विकास के अस्तित्व को महत्व प्रदान किया। इन्होंने दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक पद्धति के प्रगतिशील तत्वों को मानव विकास हेतु अपने विचारों में समंजित किया। कोहलबर्ग मानव के विकास में उन्नति हेतु नैतिक तर्क (परम्परागत व्यवहार का आधार) के अध्ययन का सर्वत्र निरूपण किया है। इसीलिए इन्होंने सामान्यतया व्यक्ति के विकास को छह अवस्थाओं एवं तीन स्तरों में विभाजित किया है।
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