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चिंतन का अर्थ व परिभाषाएं / चिंतन के प्रकार और सोपान / steps of thinking in hindi
(thinking) चिंतन का अर्थ
बालक का सोचना एवं सीखना मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में दुःख एवं समस्याओं का होना स्वाभाविक है लेकिन इस दशा में वह मनुष्य दुख व समस्या का समाधान करने हेतु उपाय सोचने लगता है तथा विचार मन्थन एवं समस्या को किस प्रकार सुलझाया जा सकता हैं उसके इस प्रकार सोचने या तर्क करने की क्रिया ही चिन्तन कहलाती है।
चिंतन की परिभाषाएं
(1) रेबर्न – “चिन्तन एक प्रक्रिया है जिसका सम्बन्ध इच्छा से है। यह किसी असन्तोष के कारण आरम्भ होती है। यह प्रयास तथा त्रुटि के आधार पर चलती हुई उस अन्तिम स्थिति पर पहुँच जाती है जो इच्छा को सन्तुष्ट करती है।”
(2) रॉस – “चिन्तन मानसिक क्रिया का ज्ञानात्मक पहलू है या मस्तिष्क की बातों से सम्बन्धित मानसिक क्रिया है।”
(3) गिलफोर्ड– “चिन्तन प्रतीकात्मक व्यवहार है। यह सभी प्रकार के प्रतिस्थापन से सम्बन्धित है।”
(4) वारेन– “चिन्तन प्रतीकात्मक प्रकृति वाली शैक्षिक क्रिया व्यक्ति के सम्मुख उपस्थित किसी समस्या अथवा कार्य से प्रारम्भ होने वाली, कुछ प्रयत्न और भूल सम्मिलित करने वाली परन्तु उसकी समस्या तत्परता से प्रभावित तथा समस्या के निष्कर्ष या समाधान पर पहुँचने वाली, एक प्रत्ययात्मक क्रिया है।”
“मनोवैज्ञानिक विवेचन के रूप में चिन्तन शब्द का प्रयोग उस क्रिया लिए किया जाता है जिसमें श्रृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य या उद्देश्य की ओर निरन्तर प्रवाहित होते हैं।”
(6) कॉलसनिक- “चिन्तन प्रत्ययों को फिर से संगठित करता है।”
(7) क्रूज– “चिन्तन एक मनोवैज्ञानिक क्रिया है। जैसे जीवन पर आधारित कोई भी प्रक्रिया होती है।”
(8) गैरेट (Garret) के अनुसार-“चिन्तन एक प्रकार का अव्यक्त एवं रहस्यपूर्ण व्यवहार होता है, जिसमें सामान्य रूप से प्रतीकों (बिम्बों, विचारों एवं प्रत्ययों) का प्रयोग होता है। ”
उपर्युक्त विद्वानों द्वारा परिभाषित दृष्टिकोण का यदि हम विश्लेषण करें, तो चिन्तन के अर्थ के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य पाते हैं-
1. संज्ञानात्मक प्रक्रिया (Cognitive process) – चिन्तन एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया है। यह स्वतः ही नहीं होती, बल्कि प्रयत्न करना पड़ता है। प्रयत्न में चुनाव, सीखना, वाद-विवाद और प्राप्ति आदि प्रक्रियाओं के द्वारा ही चिन्तन सम्भव हो पाता है।
2. उद्देश्यपूर्णता (Objectfulness) – चिन्तन की क्रिया उद्देश्यपूर्णता की ओर अग्रसर रहती है। इसमें दिवास्वप्न या कल्पना आदि उद्देश्यहीन क्रियाओं का कोई भी स्थान नहीं रहता।
3. समस्या-समाधान (Problem-solving) – चिन्तन के द्वारा समस्या समाधान होता है। व्यक्ति का व्यवहार जब उसे सन्तोष या सुख नहीं देता है तो समस्या उत्पन्न होती है। ये समस्याएँ ही चिन्तन को जन्म देती हैं।
4. प्रतीकात्मक क्रिया (Symbolic activities) – चिन्तन मुख्य रूप से प्रतीकों पर आधारित मानसिक क्रिया है। ब्रूनर और गैरेट का मत है कि चिन्तन में ठोस वस्तुओं की बजाय प्रतीकों का प्रयोग होता है; जैसे-मकान निर्माण में प्रतीकात्मक चिन्तन प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है, न कि ‘प्रयत्न एवं भूल’ का।
चिंतन की विशेषताएं
(1) चिन्तन प्रक्रिया की शुरूआत समस्या सामने होने से होती है।
(2) चिन्तन के सभी भिन्न-भिन्न पहलुओं के समाधान को एक साथ संयोजित किया जाता है।
(3) चिन्तन में गत अनुभूति शामिल होती है।
(4) प्रत्येक चिन्तन का उद्देश्य समस्या को सुलझाना होता है।
(5) समस्या समाधान की विधि ‘प्रयत्न व भूल’ विधि का एक उदाहरण है।
(6) सभी चिन्तन लक्ष्य निर्देशित होते हैं।
(7) चिन्तन में भाषा, प्रतीक तथा प्रतिमाओं का काफी योगदान है।
(8) चिन्तन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है जिसके सहारे प्राणी किसी समस्या का समाधान करता है।
चिंतन के प्रकार (जिम्बार्डो तथा रुक द्वारा)
(1) स्व परायण चिन्तन – काल्पनिक विचारों एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति
(2) यथार्थवादी चिंतन – वास्तविकता से संबंधित
यथार्थवादी चिंतन के 3 प्रकार होते हैं –
(A) अभिसारी चिंतन
◆ निगमनात्मक चिंतन
◇ तथ्यों के आधार पर सही निष्कर्ष तक पहुँचना
◆ गत अनुभवों का उपयोग
(B) अपसारी चिंतन ( सृजनात्मक चिंतन)
◇ आगमनात्मक चिंतन
◇ अपनी ओर से कुछ नया जोड़कर निष्कर्ष देना
(C) आलोचनात्मक चिन्तन
◆ गुण दोष को देखते हुए किसी बात को स्वीकार करना
चिन्तन के प्रकार / Types of Thinking
प्राय: चिन्तन को चार रूपों में विभाजित किया जाता है, जो अग्रलिखित प्रकार से हैं-
1. प्रत्यक्षात्मक चिन्तन (Perceptual thinking)
बार-बार के अनुभवों से एकत्रित ज्ञान की स्थायित्वता जाग्रत होकर प्रेरित करती है। जब हम किसी व्यक्ति को बार-बार अपने घर आते देखते हैं, तो उसके व्यवहार का मूल्यांकन हमारे चिन्तन के द्वारा स्वतः हो जाता है, क्योंकि बार-बार के आने से जो अनुभव एकत्रित किये गये, वे सभी उसके व्यवहार को स्पष्ट करते हैं। अत: उस व्यक्ति को देखकर उसके व्यवहार का जाग्रत हो जाना ही प्रत्यक्षात्मक चिन्तन होता है।
2. प्रत्यात्मक या अवधारणात्मक चिन्तन (Conceptual thinking)
मानव मस्तिष्क ज्ञान या परिचय के फलस्वरूप मस्तिष्क में प्रत्यय स्थापित करता है। यही प्रत्यय पुनः जाग्रत होकर वस्तु को पुनः स्मरण कराने में सहायक होते हैं। इसमें विषय का पूर्ण ज्ञान सन्निहित रहता है: जैसे-छात्र अध्यापक को देखकर कहते हैं, ‘सर’ आ गये यानी अध्यापक शब्द पूर्णता का बोध कराता है और छात्र उसका पूर्ण ज्ञान भी रखते हैं। अतः भाषा एवं नाम का प्रयोग प्रत्यात्मक चिन्तन की विशेषता होती है।
3. विचारात्मक चिन्तन (Reflective thinking)
शिक्षाशास्त्री ड्यूवी ने विचारात्मक चिन्तन को ही चिन्तन माना है। हम चिन्तन के द्वारा किसी लक्ष्य की प्राप्ति या समस्या का समाधान खोज पाते हैं। इसमें विचारों एवं तर्कों को एक क्रम में स्थापित करके निष्कर्ष निकाले जाते हैं, जो व्यावहारिक एवं सामाजिक होते हैं।
4. सृजनात्मक चिन्तन (Creative thinking)
जब किसी विचार क्रिया के माध्यम से नवीन वस्तु या ज्ञान की खोज की जाती है, तो सृजनात्मक चिन्तन होता है। इसमें वस्तुओं, घटनाओं एवं स्थितियों की प्रकृति की व्याख्या करने के लिये कार्य-कारण के बीच नवीन सम्बन्ध स्थापित करने होते हैं। इसमें व्यक्ति स्वयं समस्या खोजता है और उसके हल को ज्ञात करता है। वर्तमान उन्नति इसी का परिणाम है।
चिन्तन के उपकरण या साधन
Sources or Instruments of Thinking
विभिन्न विद्वानों ने अपने अध्ययनों के आधार पर चिन्तन प्रक्रिया के आधार स्तम्भ,उपकरण या साधनों को निम्नलिखित भागों में प्रस्तुत किया है-
1. प्रतिमाएँ (Images) –
मानव अनुभव प्रतिमाओं के आधार पर व्यक्त होता है। हम जो कुछ देखते हैं, करते हैं एवं सुनते हैं सभी का आधार मन में विकसित प्रतिमा होती है। इसलिये इनको स्मृति प्रतिमा, दृश्य प्रतिमा, श्रव्य प्रतिमा या कल्पना प्रतिमा आदि का नाम देते हैं। ये प्रतिमाएँ वस्तु, व्यक्ति एवं विचार से निर्मित होती हैं। चिन्तन में इन्हीं को आधार बनाया जाता है।
2. प्रत्यय (Concept) –
‘प्रत्यय’ सामान्य वर्ग के लिये सामान्य विचार होता है, जो सामान्य वर्ग की सभी वस्तुओं या क्रियाओं का प्रतिनिधित्व करता है। चिन्तन का महत्त्वपूर्ण साधन प्रत्यय भी माना जाता है। इनके द्वारा हमें ‘सम्पूर्ण ज्ञान’ का बोध होता है, जैसे- हाथी शब्द को सुनकर हमारे मस्तिष्क में हाथी से सम्बन्धित संचित प्रत्यय जाग जाता है और’ सम्पूर्ण ज्ञान’ का आभास होने लगता है। अतः प्रत्यय के माध्यम से चिन्तन प्रक्रिया सशक्त होती है।
3. प्रतीक एवं चिह्न (Symbols and signs) –
प्रतीक एवं चिह्न मूक रहते हुए भी अपना अर्थ स्पष्ट या व्यक्त करने में समर्थ होते हैं। सड़क पर बने हुए प्रतीक या चिह्न सही गति एवं सुरक्षा को स्पष्ट करते हैं। इससे समय एवं शक्ति की बचत होती है। बालक विद्यालय के घण्टे और घण्टा में अन्तर कर लेते हैं क्योंकि उसे सुनकर उनकी चिन्तन शक्ति अर्थ लगाती है। इसी प्रकार से गणित में + या x का चिह्न अर्थ स्पष्ट करता है कि हमें क्या करना है? बोरिंग, लैगफील्ड एवं वैल्ड ने लिखा है-“प्रतीक एवं चिह्न मोहरें एवं गोटियाँ हैं, जिनके द्वारा चिन्तन का महान खेल खेला जाता है। इनके बिना यह खेल महत्त्वपूर्ण एवं सफल नहीं हो सकता।”
4. भाषा (Language) –
भाषा का प्रयोग सामान्यतः होता रहता है। विद्वानों ने भाषा के पीछे चिन्तन शक्ति को बतलाया है। सामाजिक विकास में भाषा संकेतों एवं इशारों से भी प्रकट होती है; जैसे-मुस्कराना, भौंहें चढ़ाना, गर्दन हिलाना, अँगूठा दिखा आदि। इन सभी का दैनिक जीवन में प्रयोग किया जाना और बिना बोले अर्थ को लगाना या समझना प्रचलित है। इन सभी के पीछे चिन्तन शक्ति का चलते रहना है, जो अर्थों को स्पष्ट करती है।
5. सूत्र (Formula) –
हमारी प्राचीन परम्परा रही है कि हम ज्ञान को छोटे-छोटे सूत्रों में एकत्रित करके संचित करते हैं। इनमें गणित, विज्ञान के सूत्र आते हैं। भारतीय ज्ञान संस्कृत के ‘श्लाकों’ में संचित है, जिसकी व्याख्या से अपार ज्ञान प्रकट होता है। सूत्र को देखकर हमारी चिन्तन शक्ति उसमें निहित सम्पूर्ण ज्ञान को प्रकट करती है।
चिन्तन के विकास के उपाय
(1) शिक्षक को बालकों के भाषा-विकास एवं ज्ञान में वृद्धि करनी चाहिए।
(2) शिक्षक द्वारा छात्रों को स्नेह एवं मित्रवत प्रेम मिलना चाहिए।
(3) बालकों को अपने विचार एवं तर्क व्यक्त करने की पूरी आजादी देनी चाहिए।
(4) शिक्षक को बालकों में निष्क्रिय रटने की आदत नहीं पड़ने देना चाहिए, क्योंकि रटना चिन्तन का घोर शत्रु है।
(5) शिक्षक को चाहिए कि बालकों को अपसारी चिन्तन (सृजनात्मकता) करने के लिए एक अच्छा वातावरण देना चाहिए।
(6) शिक्षक को चाहिए कि कक्षा में बालकों को नये-नये तथ्यों की जानकारी देनी चाहिए।
(7) शिक्षक को चाहिए कि वे छात्रों को वैज्ञानिक तरीकों से नए-नए संप्रत्यय की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहिए।
(8) शिक्षक को चाहिए कि बच्चों से विचारात्मक प्रश्न पूछकर उनके चिंतन एवं कौशल योग्यता में वृद्धि करनी चाहिए।
शिक्षा द्वारा चिन्तन का विकास
Development of Thinking by Education
1. नवीन अनुभव (New experiences) – चिन्तन की सतत् प्रक्रिया नवीन अनुभव के द्वारा सम्पन्न होती है; जैसे- प्रथम बार छात्र अपनी कक्षा में प्रवेश करता तो उसके साथी छात्रों का व्यवहार उसको सामान्य लगता है तथा कुछ अरुचिपूर्ण भी लगता है तब वह समझता है कि कक्षा का व्यवहार पूर्णतः ठीक नहीं है तथा ऐसा ही होता होगा। जब वह लगातार कक्षा में अध्ययन करता है तो अनुभव करता है कि छात्रों का व्यवहार उसके प्रति पूर्ण सकारात्मक है तथा उसकी कक्षा विद्यालय की सर्वश्रेष्ठ कक्षा है। इस प्रकार की प्रक्रिया में उसका पूर्व अनुभव परिवर्तित होता है तथा उसमें नवीन अनुभव सम्बद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार विविध क्षेत्रों के नवीन अनुभवों का समावेश अवधारणात्मक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करता है।
2. नवीन सूचनाएँ (New informations) – विविध प्रकार की नवीन सूचनाएँ भी चिन्तन करने का प्रमुख स्रोत हैं; जैसे-एक शिक्षक अपनी कक्षा का शिक्षण सभी छात्रों को सम्मिलित रूप से करता है जब उसको सूचना प्राप्त होती है कि छात्रों के अधिगम स्तर में वृद्धि के लिये उसकी कक्षा के छात्रों को विविध वर्गों में उनकी योग्यता के अनुसार विभाजित करके शिक्षण कार्य करना चाहिये। इस व्यवस्था के माध्यम से छात्रों का अधिगम स्तर उच्च होता है तो इस सूचना के माध्यम से शिक्षक की अवधारणा में परिवर्तन सम्भव होगा। इस प्रकार की अनेक सूचनाएँ छात्रों एवं शिक्षकों की अवधारणा परिवर्तन का स्रोत मानी जाती हैं।
3. कल्पना एवं तर्क (Imagination and logic) – चिन्तन के विकास की प्रक्रिया का प्रमुख स्रोत कल्पना एवं चिन्तन है। जैसे-जब एक बालक किसी पतंग को चिड़िया कहता है तब उसके पास तक होता है कि यह चिड़िया की भाँति उड़ती है। जब वह चिड़िया के स्थान पर उसे पतंग की अवधारणा के रूप में चित्रित करता है तब भी वह तर्क देता है कि यह निर्जीव है तथा चिड़िया सजीव है। इस प्रकार तर्क एवं कल्पना चिन्तन के विकास के प्रमुख स्रोत हैं।
4. अनुसन्धान (Research) – अनुसन्धान द्वारा यह सिद्ध किया गया कि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का स्वरूप बाल- केन्द्रित प्रक्रिया के रूप में होना चाहिये। वर्तमान समय में प्रत्येक शिक्षक एवं प्रधानाध्यापक द्वारा यह अनुभव किया जाता है कि बालकेन्द्रित शिक्षा ही छात्रों के लिये सर्वोत्तम है। इस प्रकार विविध प्रकार के अनुसन्धान चिन्तन के विकास एवं परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं।
5. निर्देशन एवं परामर्श (Guidance and counselling) – निर्देशन एवं परामर्श की प्रक्रिया के द्वारा छात्रों की प्राचीन अवधारणाओं में संशोधन किया जाता है; जैसे-एक छात्र चिड़ियाघर में ऊँट को देखकर घोड़ा कहता है तो शिक्षक द्वारा घोड़े एवं ऊँट की असमानता को प्रदर्शित करते हुए उसे परामर्श दिया जाता है कि यह घोड़ा नहीं है इसे ऊँट कहते हैं। इस प्रकार ऊँट की विशेषताओं के आधार पर वह उसका चित्रण घोड़े से पृथक् रूप में कर लेता है। इस प्रकार के अनेक निर्देशन एवं परामर्श छात्रों के चिन्तन के विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
6. प्रयोग (Experiment) – छात्रों द्वारा विविध प्रकार के प्रयोग द्वारा भी चिन्तन की प्रक्रिया को सम्पन्न किया जाता है; जैसे-एक छात्र यह अनुभव करता है कि जल एक तरल पदार्थ है परन्तु जब उसे बर्फ दी जाती है तथा धीरे-धीरे वह बर्फ को पिघलते हुए देखता है तो उसकी अवधारणा परिवर्तित हो जाती है। वह सोचने लगता है कि जल तरल के साथ-साथ ठोस रूप में होता है जिसे बर्फ कहते हैं। इस प्रकार के विविध प्रयोग छात्रों में चिन्तन प्रक्रिया का विकास करते हैं।
7. संश्लेषण एवं विश्लेषण (Synthesis and analysis) – संश्लेषण एवं विश्लेषण की प्रक्रिया भी विविध अवधारणाओं का निर्माण करती है तथा उसमें परिवर्तन करती है, जैसे- एक छात्र देखता है कि तोता उड़ता है, मोर उड़ता है, बगुला उड़ता है तो वह मान लेता है कि सभी पक्षी उड़ते हैं तथा यह मानता है कि उड़ने की विशेषता पक्षी से सम्बन्धित है परन्तु जब वह पतंग या हवाई जहाज को उड़ते देखता है तो अपनी अवधारणा में परिवर्तन करता है कि विविध प्रकार की मशीनें भी उड़ने में सक्षम होती हैं।
8. ज्ञान का विस्तार (Expansion of knowledge) – सामान्य रूप से देखा जाता है कि जैसे-जैसे ज्ञान के विस्तार की प्रक्रिया सम्पन्न होती है वैसे-वैसे चिन्तन का मार्ग प्रशस्त होता जाता है; जैसे-प्राथमिक स्तर पर एक छात्र के ज्ञान का क्षेत्र सीमित होता है। उस क्षेत्र में वह विविध प्रकार की अवधारणाओं का निर्माण करता है। जैसे-जैसे वह उच्च कक्षाओं में प्रवेश करता है तो उसके ज्ञान का क्षेत्र विस्तृत होता है।
9. बुद्धि (Intelligence) – बौद्धिक क्षमता के द्वारा भी चिन्तन की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। जैसे-एक बालक शेर एवं गाय को जानवर के रूप में जानता है, दोनों ही उनके लिये जानवर हैं। जब वह बौद्धिक रूप से परिपक्व होता है तो अपनी अवधारणा में परिवर्तन करता है तथा कहता है कि शेर एक जंगली जानवर है तथा गाय एक घरेलू एवं पालतू जानवर है।
10. सर्वांगीण विकास (Allround development)- एक छात्र पुस्तकीय ज्ञान को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। जब शिक्षक द्वारा उसको सूचना दी जाती है कि शारीरिक व्यायाम एवं योग मानसिक विकास के लिये आवश्यक हैं, इसके विकास से ही सर्वांगीण विकास होगा तो वह इन सभी को भी महत्त्वपूर्ण मानने लगता है। इस प्रकार सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया चिन्तन के विकास का प्रमुख स्रोत मानी जाती है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि चिन्तन की प्रक्रिया को सतत् एवं व्यापक रूप में संचालित करने में सूचनाओं एवं अनुभवों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विविध साधनों के माध्यम से जैसे-जैसे छात्रों के ज्ञान में वृद्धि होती है वैसे-वैसे उनकी अवधारणाओं का विकास एवं उसमें यथासम्भव परिवर्तन होता है।
चिन्तन और तर्क में अन्तर
(Distinction between Thinking and Reasoning)
तर्क को तार्किक चिन्तन भी कहते हैं। तर्क चिन्तन का उत्कृष्ट रूप माना जाता है। यह एक जटिल (Complex) मानसिक क्रिया है। तर्क को औपचारिक नियमों से सम्बद्ध किया जाता है। तर्क फलदायक चिन्तन है। इसमें किसी समस्या का समाधान करने के लिए पूर्व अनुभवों को पुनर्गठित किया जाता है।
जब मनुष्य के सामने कोई समस्या आती है तो वह उस समस्या का समाधान करने के लिए चिन्तन आरम्भ कर देता है। समस्या समाधान के अनेक विकल्प उसके मस्तिष्क में आते हैं। इस प्रकार की विचारात्मक प्रक्रिया को तर्क कहते हैं। तर्क में पूर्व अनुभवों के आधार पर नवीन कल्पना का निर्माण किया जाता है। चिन्तन एक मानसिक प्रक्रिया (Mental Process) है। तर्क को मानसिक अनुसन्धान (Mental Exploration) कहा जाता है। तर्क अतीत के अनुभवों को इस प्रकार मिलाता है कि समस्या का समाधान हो जाए।
निवेदन
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