पावलाव का अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त / पावलव का शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त

दोस्तों अगर आप बीटीसी, बीएड कोर्स या फिर uptet,ctet, supertet,dssb,btet,htet या अन्य किसी राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आप जानते हैं कि इन सभी मे बाल मनोविज्ञान विषय का स्थान प्रमुख है। इसीलिए हम आपके लिए बाल मनोविज्ञान के सभी महत्वपूर्ण टॉपिक की श्रृंखला लाये हैं। जिसमें हमारी साइट istudymaster.com का आज का टॉपिक पावलाव का अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त / पावलव का शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त / Pavlov’s Classical Conditioning Theory in hindi है।

पावलाव का अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त / पावलव का शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त

पावलाव का अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त / पावलव का शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त

पावलाव का अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त / पावलव का शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त

अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त का प्रतिपादन रूसी मनोवैज्ञानिक आई.पी.पावलव ने 1904 में किया था। जिसके लिए इनको 1904 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। पावलव ने अपने सिद्धान्त का आधार अनुबन्धन (Conditioning ) को माना है। अनुबन्धन (Conditioning) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा उद्दीपन (Stimulus) तथा अनुक्रिया (Response) के बीच एक साहचर्य स्थापित हो जाता है। पावलव के इस अनुबन्धन सिद्धान्त को Classical Conditioning कहा जाता है। इस सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए विद्वानों ने लिखा है कि-स्वाभाविक उत्तेजक के प्रति स्वाभविक उत्तेजक के समान होने वाली प्रक्रिया को सम्बन्धन प्रतिक्रिया कहते हैं।

Pavlov के सिद्धान्त अनुसार उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया करना (Stimulus-Response) मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। जब मूलउद्दीपक (U.C.S.) के साथ एक नवीन उद्दीपन प्रस्तुत किया जाता है तथा कुछ समय पश्चात् जब मूल उद्दीपन को हटा दिया जाता है तब नवीन उद्दीपक से भी वही अनुक्रिया होती है जो मूल उद्दीपक से होती है। इस प्रकार प्राणी की अनुक्रिया नये Stimulus के साथ अनुकूलित हो जाती है। पावलव (Pavlov) ने इसके लिए कुत्ते पर प्रयोग किया । वाटसन और रेना (Watson and Rayner) (1920) ने अल्बर्ट (Albert) नामक मानव शिशु पर प्रयोग किया और पाया कि मानव भी पशु के समान अनुबंधन (Condiationing) द्वारा सीखते हैं।

गिलफोर्ड (Guilford) की व्याख्या-“इस सिद्धान्त की सामान्य व्याख्या यह है कि जब दो उत्तेजनाएँ दी जाती रहीं, पहले नयी और बाद में मौलिक, उस समय पहली क्रिया भी प्रभावशील हो जाती है।”

पावलव के सिद्धांत के अन्य नाम

(1) शास्त्रीय अनुबन्धन का सिद्धान्त
(2) सम्बद्ध प्रतिक्रिया का सिद्धान्त
(3) आनुवन्धित सिद्धान्त
(4) अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त
(5) प्रतिस्थापन का सिद्धान्त
(6) टाइप एस. अनुबन्धन का सिद्धान्त

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पावलव का कुत्ते पर प्रयोग

पावलव ने कुत्ते को भोजन देते समय कुछ दिन घण्टी बजाते रहे। उसके बाद उन्होंने उसे भोजन न देकर केवल घण्टी बजायी, तब भी कुत्ते के मुख से लार टपनके लगी क्योंकि कुत्ते से यह सीख लिया था कि घण्टी बजने पर उसे भोजन की प्राप्ति होती है।
इस सिद्धान्त का मूल सार यह है कि जब मूल उद्दीपक के साथ एक नया उद्दीपक प्रस्तुत किया जाता है तथा कुछ समय बाद जब मूल उद्दीपक को हटा दिया जाता है तब भी नवीन उद्दीपक से भी वही अनुक्रिया होने लगता है जो मूल उद्दीपक से होती है। यह अनुक्रिया नये उद्दीपक के साथ सामंजस्य बिठा लेती है।

प्राकृतिक उद्दीपक – भोजन
अप्राकृतिक उद्दीपक – घंटी की आवाज
प्राकृतिक अनुक्रिया – लार आना

प्रथम चरण-

भोजन————————————–लार का टपकना
(स्वाभाविक उत्तेजक)                  ( स्वाभाविक अनुक्रिया)

द्वितीय चरण-

घण्टी बजाना + भोजन  ————-लार का टपकना

तृतीय चरण-

घण्टी बजाना—————————————-लार का टपकना
(परंतु भोजन नही दिया)                       (स्वाभाविकअनुक्रिया) (अस्वाभाविक उत्तेजक)                            

पावलव के अनुबन्धन सिद्धान्त की विशेषताएँ (Characteristics of Pavlov’s Conditioning Theory)

अनुकूलित अनुक्रिया का तन्त्र इस आधार पर विकसित होता है-
(1) स्वाभाविक उत्तेजक (भोजन) → (USC) स्वाभाविक अनुक्रिया (लार) (UCR)

(2) अस्वाभाविक + स्वाभाविक उत्तेजक → स्वाभाविक अनुक्रिया

(3) अनुकूलित ग्रेजड अनुकूलित अनुक्रिया
घटी की आवाज-(C.s)→ लार (CR)
UCS-Unconditioned Stimulus
CS–Conditioned Stimulus
UCR-Unconditioned Response
CR-Conditioned Response

सम्बद्ध प्रतिचार को प्रभावित करने वाले कारक

उद्दीपक और प्रतिचार के बीच सम्बद्धता तब स्थापित होगी, जब प्रभावशाली कारक अपना प्रभाव डालेंगे। यह कारक निम्नलिखित हैं-

1. पुनर्बलन (Reinforcement) – स्वाभाविक उद्दीपक के द्वारा जब अस्वाभाविक उद्दीपक को प्रभावशाली बनाया जाता है, तो उसे पुनर्बलन कहते हैं; जैसे- भोजन के द्वारा घण्टी को प्रभावशाली बनाया गया, ताकि स्वाभाविक प्रतिचार हो सके।

2. अभ्यास (Practice) – इस सिद्धान्त में अभ्यास का महत्त्व अत्यधिक है। यदि पावलॉव अभ्यास के द्वारा साहचर्य में स्थायित्वता न ला पाते, तो सीखना सम्भव न होता।

3. समय (Timing) – स्वाभाविक उद्दीपक और अस्वाभाविक उद्दीपक के बीच अन्तराल कम से कम होना चाहिये, ताकि सीखने वाला सही साहचर्य स्थापित कर सके।

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4. शान्त वातावरण (Silent environment) – प्रयोग के समय अन्य बाधाओं का प्रभाव भी सीखने में बाधा उत्पन्न करता है। अतः वातावरण शान्त रखा जाय, ताकि स्वाभाविक उद्दीपक और अरवाभाविक उद्दीपक में साहचर्य सही प्रकार से उत्पन्न हो सके।

5. प्रेरक (A Promptor) – बलवती प्रेरक के द्वारा सीखना जल्दी होता है; जैसे-भूखा कुत्ता लार जल्दी डालता है।

6. मानसिक स्वास्थ्य (Mental health) – स्वस्थ बालक, बुद्धि की तीव्रता आदि सीखने पर अपना प्रभाव डालते हैं।

शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त का शिक्षण में प्रयोग और महत्व

पावलव के अनुकूलित अनुक्रिया के सिद्धान्त का कक्षा शिक्षण में बहुत अधिक महत्व है। इसे निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है –

(1) स्वभाव व आदत का निर्माण – इस सिद्धांत के प्रयोग से छात्रों में अच्छी आदतों का निर्माण किया जा सकता है।

(2) भाषा का विकास – छात्रों में भाषा के विकास हेतु अनुकूलन का सिद्धान्त काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है।

(3) गणित शिक्षण में सहायक – अनुकूलित अनुक्रिया के सिद्धान्त के द्वारा छात्रों की गणित की समस्याओं का समाधान काफी सरलता से किया जा सकता है।

(4) अभिवृत्ति का विकास – बालकों के समक्ष उचित एवं आदर्श व्यवहार प्रस्तुत करके उन्हें अनुकूलित-अनुक्रिया द्वारा उसमें उचित अभिवृत्ति का निर्माण किया जा सकता है।

(5) मानसिक और संवेगात्मक अस्थिरता का उपचार – इस विधि का प्रयोग मानसिक उपचार में भी किया जाता है। इसके द्वारा छात्रों में मानसिक और संवेगात्मक स्थिरता लायी जा सकती है।

(6) सीखने में वृद्धि (Growth in learning) – इस सिद्धान्त के अनुसार बालकों में अक्षर विन्यास गुणा की शिक्षा का विकास आसानी से किया जा सकता है। शिक्षकों को चाहिये कि उद्दीपक प्रतिचार का अभ्यास ज्ञान को स्थायी बनाने हेतु करें। जैसा कि लैडेल ने लिखा है-“सम्बद्ध प्रतिचार में कार्य के प्रति स्वाभाविक उद्दीपन के बजाय एक प्रभावहीन उद्दीपन होता है, जो स्वाभाविक उद्दीपन सम्बद्ध किये जाने पर प्रभावपूर्ण हो जाता है।”

(7) अन्य बिन्दु

(i) बालकों की शिक्षा में सम्बद्धीकरण की क्रिया द्वारा अधिक लाभ उठाया जा सकता है। बाल्यावस्था में बहुत-सी क्रियाएँ किसी विशेष वस्तु से सम्बद्ध हो जाती हैं और बड़े होने पर भी वह रहती हैं, उदाहरणार्थ-यदि बालक में किसी विशेष वस्तु या व्यक्ति के प्रति किसी कारणवश अरुचि, घृणा या भय उत्पन्न हो जाता है, तो बड़े होने पर भी बालक उस प्रकार की वस्तु या व्यक्त के प्रति उसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है। बालकों को सदैव अच्छी बातें सिखाने के लिए सम्बद्धीकरण का प्रयोग सतर्कता से करना चाहिए।

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(ii) यह विधि बुरी आदतों के निवारण, आचरण तथा व्यवहार बदलने में सहायता करती है।

(iii) इस विधि की सहायता से भय सम्बन्धी मानसिक रोगों का उपचार किया जा सकता है।

(iv) अनुशासन स्थापित करने के दण्ड एवं पुरस्कार के सिद्धान्त इसी विधि पर आधारित हैं।

(v) यह विधि बालकों के समाजीकरण में तथा वातावरण से समायोजन करने में सहायता देती है।

(vi) स्किनर महोदय ने इस विधि के महत्त्व पर इन शब्दों में प्रकाश डाला है-“सम्बद्ध सहज क्रिया एक आधारभूत सिद्धान्त है, जिस पर अधिगम निर्भर रहता है।

(vii) प्रो0 एंडरसन का विचार है कि-“अनुकूलित अनुक्रिया का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उसमें हमें एक ऐसी बुनियादी वैज्ञानिक आधार सामग्री प्राप्त हुई है, जिससे हम अधिगम के एक सिद्धान्त का निर्माण कर सकते हैं।”

                                        निवेदन

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