रुचि एवं ध्यान का शैक्षिक महत्व / Educational Importance of Interest and Attention in hindi

दोस्तों अगर आप बीटीसी, बीएड कोर्स या फिर uptet,ctet, supertet,dssb,btet,htet या अन्य किसी राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आप जानते हैं कि इन सभी मे बाल मनोविज्ञान विषय का स्थान प्रमुख है। इसीलिए हम आपके लिए बाल मनोविज्ञान के सभी महत्वपूर्ण टॉपिक की श्रृंखला लाये हैं। जिसमें हमारी साइट istudymaster.com का आज का टॉपिक रुचि एवं ध्यान का शैक्षिक महत्व / Educational Importance of Interest and Attention in hindi  है।

रुचि एवं ध्यान का शैक्षिक महत्व / Educational Importance of Interest and Attention in hindi

रुचि एवं ध्यान का शैक्षिक महत्व / Educational Importance of Interest and Attention in hindi

अभिरुचि एवं अवधान का शैक्षिक महत्व / Educational Importance of Interest and Attention in hindi

हम यह अध्ययन कर चुके हैं कि अभिरुचि और अवधान किस प्रकार एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। शिक्षा-मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षा में अभिरुचि और अवधान दोनों की उपयोगिता पर समान रूप से प्रकाश डाला है। शिक्षा में अभिरुचि और अवधान का समान महत्व है। शिक्षा में अवधान केन्द्रित करने के लिए विद्यार्थियों में पाठ के प्रति अभिरुचि का होना आवश्यक है। यदि विद्यार्थियों में पढ़ने के लिए अभिरुचि जाग्रत हो जाएगी तो अवधान की समस्या भी स्वयं हल हो जाएगी। बालकों में अभिरुचि उत्पन्न करने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना उपयोगी है। हम इन बिंदुओ से समझ सकते है कि रुचि एवं ध्यान का शैक्षिक महत्व क्या है –

1. बालक में उनकी मूल प्रवृत्तियों से सम्बन्धित अभिरुचि जाग्रत करनी चाहिए-पाठ्य विषय की ओर अवधान आकर्षित करने के लिए उनमें जिज्ञासा, रचना तथा आत्मसम्मान आदि की प्रवृत्तियों द्वारा अभिरुचि जाग्रत करना चाहिए।

2. बालकों में विकास की अवस्थाओं के अनुसार उनकी अभिरुचियों पर ध्यान देना चाहिए- शैशव, बाल्य और किशोरावस्था की स्वाभाविक अभिरुचियों का लाभ उठाकर उनके शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास में सहयोग देना चाहिए।

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3. बालक को पाठ के उद्देश्य की जानकारी होना चाहिए-अतः शिक्षक को पाठ पढ़ाने के पूर्व पाठ के उद्देश्य और उसकी उपयोगिता को बता देना चाहिए। पाठ्य-विषय का उद्देश्य स्पष्ट हो जाने पर वे उसमें अधिक रुचि लेते हैं और अवधान केन्द्रित करते हैं।

4. पाठ्य-विषय न अधिक कठिन हो और न अधिक सरल हो-यदि विषय अधिक कठिन होगा तो बालक उसे न समझने के कारण, उसमें न तो अभिरुचि लेंगे और न अवधान देंगे। इसलिए शिक्षक को कठिन और नीरस प्रसंगों को सरल और अभिरुचिकर ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए। इस दृष्टि से छोटे बच्चों के लिए मान्टेसरी और किन्डरगार्टन प्रणालियों में ज्ञानेन्द्रियों द्वारा शिक्षा देने में उनकी अभिरुचियों का बहुत ध्यान रखा जाता है।

5. पाठ में अभिरुचि जाग्रत करने के लिए नवीनता और रोचकता का लाना बहुत आवश्यक है– पढ़ाते समय एक ही बात को बार-बार नहीं दोहराना चाहिए क्योंकि इससे पाठ नीरस हो जाता है और विद्यार्थी भी उसमें अभिरुचि नहीं दिखाते और ऐसी स्थिति में अनवधान उत्पन्न हो जाता है। अतः विषय में नवीनता और रोचकता लाने के लिए शिक्षा-सामग्रियों, रोचक उदाहरणों तथा अन्य विधियों का प्रयोग किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में भाटिया ने कहा है—“विभिन्नता अभिरुचि को सुरक्षा प्रदान करती है।”

6. बालक के विकास के भिन्न-भिन्न स्तरों के अनुसार उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाये – जैसे खेल-विधि, क्रिया-विधि, प्रयोग-विधि तथा अन्य विधियाँ।

7. नवीन पाठ को पुराने पाठ या ज्ञान से सम्बन्धित करना चाहिए-इससे बालक में जिज्ञासा उत्पन्न होती है और वह यह समझ लेता है कि जो कुछ वह सीखने जा रहा है वह कठिन नहीं है, क्योंकि इसका उसके पूर्व ज्ञान से सम्बन्ध है। इस प्रकार नवीन पाठ में उसकी अभिरुचि स्वभावतः जाग्रत हो जाती है।

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8. शिक्षा में दृश्य-श्रव्य साधनों का प्रयोग करना चाहिए-इन साधनों के अन्तर्गत चलचित्र, तस्वीर, रेडियो तथा विभिन्न प्रकार के मानचित्रों के प्रयोग द्वारा बालकों में विषय के प्रति अभिरुचि उत्पन्न की जा सकती है। इन साधनों का प्रयोग विभिन्न विषयों में आवश्यकतानुसार किया जा सकता है। इसी प्रकार इतिहास विषय में ऐतिहासिक स्थानों का भ्रमण, भूगोल में प्राकृतिक स्थानों को दिखाना या कृषि विज्ञान में खेतों में ले जाकर तरह- तरह की वनस्पतियों को दिखाना अभिरुचि जाग्रत करने में सहायक होता है।

9. मन्द बुद्धि और कुशाग्र बुद्धि बालकों की अलग-अलग शिक्षा-व्यवस्था होनी चाहिए-इस व्यवस्था से दोनों प्रकार के बालकों को उनकी वैयक्तिक भिन्नता अर्थात् आवश्यकता, अभिरुचि, योग्यता एवं सामर्थ्य के अनुसार शिक्षा दी जा सकेगी और बालक भी अपनी अभिरुचि के अनुसार ध्यानपूर्वक पढ़ेंगे।

10. पाठ्य-विषय का सम्बन्ध जीवन से हो-पाठ्य-विषय का सम्बन्ध दैनिक जीवन या उनके वातावरण से होने पर उनका अवधान पढ़ने में केन्द्रित होता है। बालक की आयु के अनुसार अभिरुचियों में परिवर्तन होता रहता है। अतः बालक अवस्था, आवश्यकता और अभिरुचि के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए।

11. अभिरुचि जाग्रत करने में शिक्षक की योग्यता और गुणों का भी महत्व है-शिक्षकों का बालक के साथ स्नेह और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार होना चाहिए। शिक्षक में स्वयं पढ़ाने के लिए अभिरुचि, उत्साह और स्फूर्ति होनी चाहिए। शिक्षक की आलस्य-प्रकृति बालकों की अभिरुचि भावना को नष्ट कर देती है। जो अध्यापक उत्साह और अभिरुचि से पढ़ाता है, वह बालकों का अवधान सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। ऐसे शिक्षक की कक्षा में बालक बहुत अभिरुचि लेते हैं।

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12. विद्यालय में अवकाश तथा विश्राम की व्यवस्था होनी चाहिए-बालक लगातार पढ़ते-पढ़ते थक जाते हैं इसलिए वे पढ़ने में न तो अभिरुचि लेते हैं और न ही अवधान लगा पाते हैं। इसलिए बीच-बीच में उन्हें खाने-पीने और खेलने के लिए उचित समय देना चाहिए।
अन्त में हम कह सकते हैं कि अभिरुचि का ज्ञान प्राप्त करके ही शिक्षा की जो व्यवस्था की जाती है या जो योजना बनाई जाती है, उससे अभिभावक, शिक्षक और स्वयं शिक्षार्थी लाभान्वित होता है।


                                     निवेदन

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