रुचि या अभिरुचि का अर्थ व परिभाषाएं / रुचि के प्रकार एवं रुचि परीक्षण

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रुचि या अभिरुचि का अर्थ व परिभाषाएं / रुचि के प्रकार एवं रुचि परीक्षण

रुचि या अभिरुचि का अर्थ व परिभाषाएं / रुचि के प्रकार एवं रुचि परीक्षण

रुचि का अर्थ एवं परिभाषाएँ
Meaning and Definitions of Interest

रुचि’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘INTEREST’ का हिन्दी समानान्तर शब्द है। Interest की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘INTERESSE’ से हुई है। इसका तात्पर्य है-अन्तर स्थापित करना, महत्त्वपूर्ण होगा और लगाव होना। अतः शब्दार्थ के आधार पर हम कह सकते हैं कि रुचि के द्वारा उद्दीपक में त्रिता, महत्ता और लगाव स्थापित किया जाता है। उदाहरणार्थ अपने किसी आत्मीय के बीमार पड़ जाने पर हम उसमें अभिरुचि लेते हैं और उसका हाल जानना चाहते हैं। यहाँ अभिरुचि लेने में मनोरंजन से कोई संबंध नहीं है। इस प्रकार ‘अभिरुचि’ शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में जाता है।

मनोविज्ञान और शिक्षा में रुचि शब्द के स्थान पर अभिरुचि का प्रयोग किया जाता है। अभिरुचि एक आन्तरिक प्रेरक शक्ति है, जो हमें ध्यान देने के लिए किसी वस्तु, व्यक्ति या क्रिया के प्रति प्रेरित करती है। अभिरुचि एक मानसिक संरचना (Mental Structure) है, जिसके द्वारा व्यक्ति किसी वस्तु से अपना लगाव या सम्बन्ध प्रकट करता है। अभिरुचि के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने निम्नांकित परिभाषाएँ दी हैं—

ड्रेवर के अनुसार–“अभिरुचि अपने क्रियात्मक रूप में एक मानसिक संस्कार है।”

मैक्डूगल के अनुसार–“अभिरुचि छिपा हुआ अवधान है और अवधान अभिरुचि का क्रियात्मक रूप है।”

विंघम का कथन है—“अभिरुचि वह प्रवृत्ति है, जिसमें हम किसी अनुभव में दत्तचित्त होकर उसे जारी रखना चाहते हैं।”

क्रो और क्रो के अनुसार–“अभिरुचि वह प्रेरणा-शक्ति है, जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया की ओर ध्यान देने के लिए प्रेरित करती है।”

बी.एन. झा (B.N. Jha) के अनुसार, “रुचि वह स्थिर मानसिक विधि है, जो ध्यान क्रिया को सतत् बनाये रखती है।”

रुचि की विशेषताएँ
Characteristics of Interest

रुचि की विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार हैं-

1. रुचियाँ परिवर्तनशील होती हैं – रुचियों की प्रकृति स्थायी होती है परन्तु रुचियाँ चाहे स्थायी प्रकृति की हों या अस्थायी प्रकृति की हों, वे परिवर्तित हो जाती हैं। रुचियों का अधिगम और परिवर्तन आयु के साथ-साथ होता रहता है।

2. रुचियाँ व्यक्ति एवं उसके पर्यावरण की अन्तर्क्रिया के फलस्वरूप विकसित होती हैं – रुचियों को व्यक्ति और उसके वातावरण के अनेक कारक प्रभावित करते हैं। डालें (Darley, 1955) ने एक अध्ययन किया, जिसके अनुसार रुचियों के अनुभव किशोरावस्था में कम प्रभावित होते हैं, जबकि जीवन के प्रारम्भिक काल के अनुभव रुचियों को अधिक प्रभावित करते हैं।

3. रुचियाँ सामाजिक स्थिति, सामाजिक एवं आर्थिक स्तर से प्रभावित होती हैं – एक अध्ययन में यह पाया गया कि मध्यमवर्गीय तथा उच्चवर्गीय लोगों की Inventoried रुचियाँ उनके व्यवसाय की अच्छी भविष्यवाणी करती हैं।

4. रुचियों के निर्धारण में प्रेरकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है – स्ट्राँग (Strong,1943) ने अपने अध्ययन के आधर पर यह स्थिर किया कि रुचियों के निर्धारण में अभिप्रेरणा, योग्यता, पुरस्कार तथा सन्तुष्टि आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

5. रुचियों का निर्धारण व्यक्तित्व के विकास से होता है – रुचियों का निर्धारण अभिक्षमता से न होकर व्यक्तित्व के विकास से होता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि आवश्यकता, प्रतिष्ठा, मूल्य तथा समझ आदि कारक रुचियों का निर्धारण करते हैं।

6. रुचियों पर यौन कारकों का भी प्रभाव पड़ता है – रुचियाँ यौन कारकों से भी प्रभावित होती हैं। रुचियों के निर्धारण में लड़कियों तथा लड़कों में भिन्नता पायी जाती है। दोनों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं।

रुचि या अभिरुचि के प्रकार
Types of Interest

अभिरुचियों के स्रोत के आधार पर अभिरुचियाँ दो प्रकार की होती हैं-(1) जन्मजात, (2) अर्जित।

1. जन्मजात अभिरुचि (Inborn Interest)-

मूल-प्रवृत्तिजन्य अभिरुचियों को जन्मजात अभिरुचि कहते हैं। जैसे खाने-पीने की अभिरुचि, बच्चों की खेलने में अभिरुचि आदि।

2. अर्जित अभिरुचि (Acquired Interest)—

ये अर्जित संस्कारों जैसे आदतों, स्थायी भाव, झुकाव तथा स्वभाव से उत्पन्न होती है।

मनोवैज्ञानिकों ने अभिरुचियों के प्रकारों को ज्ञात करने के लिए अनेक अध्ययन किये हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण अध्ययन गिलफोर्ड तथा उनके सहयोगियों का माना जाता है। उनके अध्ययनों से 33 अभिरुचियों के प्रकार ज्ञात हुए हैं। वास्तव में विभिन्न प्रकार की अभिरुचियाँ मानव-जीवन में विकसित होती रहती हैं, क्योंकि ये अर्जित की जा सकती हैं। अभिरुचियाँ स्थाई तथा परिवर्तनशील प्रकार की भी हो सकती हैं। व्यक्ति में कुछ अभिरुचियाँ स्थाई प्रकार की होती हैं, तो कुछ परिवर्तनशील प्रकार की आयु, परिस्थिति तथा व्यक्ति एवं पर्यावरण के मध्य होने वाली अन्तःक्रिया के कारण अभिरुचियों में परिवर्तन हो सकते हैं। व्यक्ति में पाई जाने वाली अभिरुचियों के प्रारूप (forms) निम्नलिखित रूप से ज्ञात किये जा सकते हैं-

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अभिरुचियों के प्रारूप (Forms of Interests)

मुख्य रूप से अभिरुचियों के तीन प्रारूप हैं-

1. व्यक्त अभिरुचि (Manifest Interest)-

जो अभिरुचि व्यक्ति अपने व्यवहारों से व्यक्त करता रहता है, उसे व्यक्त अभिरुचि कहते हैं। व्यक्ति शब्दों या गाथा के रूप में अपनी अभिरुचियों का बखान नहीं करता, किन्तु उसके किसी वस्तु या विचार आदि के प्रति झुकाव, चाह और रुझान से अभिरुचि का बोध होता है। जैसे, यदि किसी खेल में अधिक भाग लेता है, तो यह व्यक्त होता है कि उस खेल में बालक की अभिरुचि है। व्यक्ति के व्यवहार का बाह्य रूप से निरीक्षण कर उसकी अभिरुचि को ज्ञात किया जा सकता है।

2. अभिव्यक्तात्मक अभिरुचि (Expressive Interest ) –

व्यक्ति जब स्वयं अपनी अभिरुचियों को अभिव्यक्त (express) करे तो उसे अभिव्यक्तात्मक अभिरुचि कहते हैं। प्रश्न पूछ कर या व्यक्ति को आत्माभिव्यक्ति का अवसर प्रदान कर उसकी अभिरुचि का प्रारूप ज्ञात किया जा सकता है। इसके लिए अन्तर्दर्शन पद्धति, साक्षात्कार पद्धति तथा प्रश्नावली पद्धति आदि का उपयोग किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, ‘आप की अभिरुचि किस विषय में है’, ‘अपनी शैक्षिक अभिरुचियों के क्षेत्र बताइये।’ ‘निम्नलिखित विषयों में से आपका सर्वाधिक अभिरुचिपूर्ण विषय क्या है?’ आदि प्रश्न अथवा निर्देश के द्वारा बालक की अभिरुचि ज्ञात की जा सकती है।

3. परीक्षित अभिरुचि (Tested Interest)—

व्यक्ति की अभिरुचियों का ज्ञान जब किसी अभिरुचि प्रपत्र (Interest Inventory) और प्रमापीकृत अभिरुचि परीक्षण के द्वारा प्राप्त किया जाता है तो उसे परीक्षित अभिरुचि कहते हैं। चूँकि अधिकांश अभिरुचि परीक्षण अभिरुचि-प्रपत्र के द्वारा किये जाते हैं, इसीलिए इस प्रारूप को प्रपत्रित अभिरुचि (Inventoried Interest) भी कहते हैं। इस प्रकार के अभिरुचि परीक्षण हेतु प्रमापीकृत अनुसूची प्रपन्नों का प्रयोग किया जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने अभिरुचि मापन के लिए अनेक परीक्षणों का विकास किया है। अतः कुछ विशिष्ट अभिरुचि परीक्षणों का ज्ञान आवश्यक है।

कक्षा शिक्षण में रुचि जागृत करने की विधियाँ / Methods of a Rising Interest in Class Teaching

अतः शिक्षक को चाहिये कि बालकों की रुचि को शिक्षा की ओर जागृत करने के लिये निम्नलिखित विधियों को अपनायें-

1. छात्र का अध्ययन (Study of the student) – कक्षा में छात्रों की रुचि को जागृत करने के लिये छात्र का शारीरिक एवं मानसिक अध्ययन करना आवश्यक है। उनका स्वास्थ्य, उनकी मनोदशा, आवश्यकताएँ आदि रुचि में बाधक हो सकती हैं। अतः छात्र को सामान्य बनाकर पढ़ाया जाय तो वह पाट या विषय में रुचि दिखायेगा।

2. उद्देश्य की स्पष्टता (Clearity of aim) – छात्रों को नया पाठ या विषय पढ़ाने से पहले उसकी उपयोगिता, लाभ और भविष्य में आवश्यकता आदि को स्पष्ट की देना चाहिये। आज शिक्षण के क्षेत्र में कक्षा एक से लेकर बड़ी कक्षाओं तक इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जब छात्र के मन में विषय की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है तो उसका मन सीखने में स्वत: ही लग जाता है।

3. रुचि मापन (Measurement of interest) – कक्षा के अन्दर या विषय में रुचि न दिखाने वाले छात्रों की रुचि का मापन शिक्षक को करना चाहिये। इससे विषय सम्बन्धी रुचि एवं रुचि का की मात्रा का पता चल जाता है। यदि बालक में विषय से सम्बन्धित रुचि है, लेकिन जागृत नहीं है तो हमें जागृत करना चाहिये। यदि छात्र की रुचि विषय की ओर नहीं है। ताकि वे छात्र में अरुचि न पैदा कर सके। तो हमें रुचि को मोड़ना चाहिये। साथ ही रुचि को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों को भी ध्यान में रखना चाहिये

4. सहायक सामग्री का प्रयोग (Use of material aids) – पाठ की ओर बालकों के ध्यान को आकर्षित करने के लिये अध्यापक को सहायक सामग्री का प्रयोग करना चाहिये। इससे पाठ सरल भी होता है और बालकों की रुचि को भी केन्द्रीभूत करता है। बालक पाठ एवं में साहचर्य के स्वरूप का निर्धारण होता है।  इसका कारण मस्तिष्क विषय को सहायक सामग्री के सहयोग से शीघ्र आत्मसात् करता है।

5. उपयुक्त विधि (Appropriate method) – ज्ञान ग्रहण करने की अपेक्षा ज्ञान देने का तरीका अधिक प्रभावशाली होना चाहिये, जो शिक्षक विभिन्न विधियों, उदाहरणों पर युक्तियों का प्रयोग करके शिक्षण कार्य करते हैं, वे शिक्षण में अधिक सफल होते हैं। शिक्षक का कार्य पाठ्यवस्तु को बालकों तक पहुँचाना नहीं बल्कि आत्मसात् कराना होता है।

6. विषयवस्तु की उपयोगिता (Utility of subject matter) – छात्रों को विषयवस्तु की व्यावहारिक उपयोगिता बतानी चाहिये। मानव मन तात्कालिक उपयोगिता पर अधिक ध्यान देता है और उसमें रुचि भी दिखाता है। इसलिये रूसो ‘क्रिया के द्वारा सीखना’ या ‘ अनुभव से सीखना’ पर विशेष बल देता था। शिक्षक को चाहिये कि विषयवस्तु को व्यावहारिक बनाकर बालकों को ज्ञान दें।

7. उच्च आदर्श (High Ideals) – अध्यापक के ज्ञान को उच्च आदर्शों के साथ जोड़ना चाहिये। इससे छात्र स्वयं को उच्च जीवन के प्रति समर्पण करना सीखेंगे और आत्म-सम्मान के भाव का विकास करेंगे। इस प्रकार उनके मन में शिक्षा का कार्य केवल व्यावसायिक न होकर मानव निर्माण होगा। अत: वे ज्ञान को मानव प्रेम, समान भाव, भाई-चारा, वसुधैव कुटुम्बकम् आदि उच्च आदर्शों के रूप में ग्रहण करेंगे।

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8. अध्यापक का प्रभाव (Influence of teacher) – छात्रों में रुचि जागृत करने के लिये अध्यापकीय व्यक्तित्व का प्रभारी अधिक कार्य करता है। छात्र जिन अध्यापकों को पसन्द करते हैं, उनकी बात को, क्रियाओं को और यवहारों को बड़े ही ध्यान से देखते हैं। अतः जहाँ पर ध्यान होता है, रुचि स्वत: ही उपस्थित हो जाती है। जैसा कि मैक्डूगल ने कहा है-“रुचि गुप्त अवधान है और सक्रिय रुचि है।” “Interest is a latent attention, attention is interest in action.” छात्र में पाठ की ओर रुचि जागृत करने हेतु अध्यापक, छात्र एवं अन्य कारक सभी को मिलकर, समझकर कार्य करना चाहिये। विषय के प्रति रुचि क्यों नहीं है? इसका कारण छात्र, वातावरण, अध्यापक, परिवार आदि ईगी हो सकता है। रूप से छात्र को ही दोष देना उचित नहीं है।

रुचि परीक्षण / Test of Interest

रुचि मापन के लिये रुचि परीक्षण दो प्रकार के होते हैं-

1. सामान्य या अव्यावसायिक रुचि का मापन (Measurement of general or non- vocational interest)—

व्यक्ति के सामान्य जीवन एवं शैक्षिक परिस्थितियों से सम्बन्धित रुचियों का मापन हम प्राय: जाँच-सूची, प्रश्नावली एवं लेखन कला द्वारा कर सकते हैं। जाँच सूची के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की क्रियाओं; जैसे-मैगजीन पढ़ना, रेडियो सुनना, खेल खेलना एवं क्लब जाना आदि को बालकों के सम्मुख प्रस्तुत करके उन क्रियाओं की जाँच होती है।

2. व्यावसायिक रुचि का मापन (Measurement of vocational interest ) –

व्यावसायिक क्षेत्र में रुचि का मापन अत्यन्त आवश्यक समझा जाता है अतएव रुचि-मापन हेतु अनेक परीक्षण निर्मित हुए। इस प्रकार के परीक्षण व्यक्ति की रुचि का अत्यन्त ही विश्वसनीयता से मापन करते हैं।  रुचि के मापन हेतु प्रमुख विदेशी एवं भारतीय रुचि परीक्षण (Main foreign and Indian interest tests) निम्नलिखित हैं-

1. स्ट्रांग का व्यावसायिक रुचि-प्रपत्र (Strong’s vocational interest test) –

स्ट्रांग ने सन् 1919 में स्ट्रैनफोर्ड विश्वविद्यालय में एक व्यावसायिक रुचि-प्रपत्र का निर्माण किया।
जिसका प्रकाशन बाद में चार अलग-अलग रूपों में किया-
(1) पुरुषों के लिये।
(3) छात्रों के लिये।
(2) स्त्रियों के लिये।
(4) विद्यालय न जाने वालों के लिये किया।

स्ट्रांग (Strong) के इस रुचि-प्रपत्र में 420 पद थे, जो विभिन्न व्यवसायों, मनोरंजन क्रियाओं, विद्यालयों विषयों तथा व्यक्तिगत विशेषताओं आदि से सम्बन्धित थे। अपने इस रुचि-प्रपत्र को विभिन्न व्यवसायों के सैकड़ों व्यक्तियों पर सम्पादित करने के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि विभिन्न व्यवसायों में कार्य करने वालों की रुचियाँ अन्य व्यक्तियों की रुचि से भिन्न होती हैं।

2. कूडर प्राथमिकता प्रपत्र परीक्षण (Kuder’s preference record test) –

इस रुचि प्रपत्र का प्रयोग हाईस्कूल तथा कॉलेज में पढ़ने वालों एवं प्रौढ़ों के लिये उपयुक्त है। इसके तीन प्रतिरूप हैं-

(1) व्यावसायिक प्राथमिकता प्रपत्र (Vocational preference record) – इसमें क्षेत्रों की रुचियों का मापन होता है।
(2) औद्योगिक प्राथमिकता प्रपत्र (Occupational preference record) – इसमें विशिष्ट व्यवसायों की रुचि का मापन होता है।
(3) व्यक्तिगत प्राथमिकता प्रपत्र (Personal preference record) – इसमें मूल्यों एवं व्यवहारों की पाँच क्षेत्रों की विशेषताओं में रुचियों का मापन होता है।

3. थर्स्टन रुचि-अनुसूची (Thurston’s interest schedule)-

इस अनुसूची में 100 व्यावसायिक शीर्षकों के युग्म (pairs) हैं। परीक्षार्थी को इन युग्मों से अपनी पसन्द के अनुकूल रुचि व्यक्त करनी होती है। यह रुचि अनुसूची दस क्षेत्रों से सम्बन्धित रुचियों का मापन करत है। ये क्षेत्र निम्नलिखित हैं-(1) भौतिक, (2) विज्ञान, (3) गणना, (4) भाषा-विज्ञान, (5) प्रशासन, (6) कला, (7) संगीत, (8) अनुनयात्मक, (9) सामाजिक, (10) उपकार ।

4. जीस्ट चित्र रुचि सूची (Jeast picture ruchi parisuchi) –

यह सूची निम्नलिखित ग्यारह सामान्य क्षेत्रों में रुचि का मापन करती हैं-(1) लिपिक, (2) यान्त्रिक, (3) वैज्ञानिक, (4) साहित्यिक, (5) कलात्मक, (6) नाटकीय, (7) अनुनयात्मक, (8) संगीतात्मक, (9) बाह्य, (10) गणनात्मक, (11) समाज-सेवा।
इस सूची में 44 पद हैं, जिसमें से प्रत्येक में तीन-तीन चित्र हैं, जिनका चयन व्यावसायिक एवं अव्यावसायिक क्रियाओं से किया गया है। इस सूची का मुख्य उद्देश्य ग्यारह सामान्य क्षेत्रों में रुचियों का मापन करने के साथ-साथ अध्यापकों एवं नैदानिकों की बालकों एवं वयस्कों के प्रति रुचि का गुणात्मक मूल्यांकन करना एवं व्यवसायों के प्रति किये गये निर्णयों की पृष्ठभूमि में प्रेरणात्मक शक्ति को जानता है।

5. एस. चटर्जी : अभाषिक प्राथमिकता प्रपत्र (S. Chatterji, non-language preference record (CNPR from 1960) –

इस परीक्षण में 150 चित्रों वाले पद के तीन विकल्प में है, जो निम्नलिखित दस विस्तृत रुचि-क्षेत्रों में व्यक्ति की रुचि का मापन करते हैं-(1) कला, (2) साहित्यिक, (3) वैज्ञानिक, (4) चिकित्सा, (5) कृषि, (6) तकनीकी, (7) क्राफ्ट्स, (8) बाह्य, (9) खेलकूद, (10) गृह कार्य ।

6. आर. पी. सिंह: रुचि प्रपत्र (R. P. Singh-interest test) –

यह रुचि प्रपत्र गिलफोर्ड की खण्ड उपागम (Factorial approach) विधि पर आधारित है। इस प्रपत्र में निम्नलिखित सात रुचि कारकों का अध्ययन किया जाता है-(1) यान्त्रिक, (2) व्यापार, (3) वैज्ञानिकों, (4) सौन्दर्य, (5) सामाजिक, (6) लिपिक, (7) बाह्य।
इनका माध्यम 158 युग्म पदों के माध्यम से होता है। आधुनिक समय में इस प्रपत्र का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है।

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7. एस. पी. कुलश्रेष्ठ: व्यावसायिक रुचि प्रपत्र (S. P. Kulshrestha: vocational interest) –

  यह परीक्षण दस व्यावसायिक क्षेत्रों से सम्बन्धित 200 व्यवसायों का अध्ययन करता है। इसे व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों रूपों से प्रशासित किया जा सकता है। यद्यपि इसके प्रशासन में कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है फिर भी परीक्षार्थी इसे 7 से 10 मिनट में पूरा कर लेते है। इस परीक्षण का विश्वसनीयता गुणांक पुनर्परीक्षण विधि से 0.89 ज्ञात किया गया। पद-विश्लेषण के आधार पर प्रत्येक व्यवसाय का वैधता गुणांक ज्ञात किया गया। अध्यापक माता-पिता एवं अभिभावकों की राय से प्रपत्र के परिणामों की तुलना करने पर 0.81 से 0.85 सहसम्बन्ध ज्ञात किया गया।

रुचि का महत्त्व
Importance of Interest

बालकों में रुचियों का विकास जीवन पर्यन्त होता रहता है। बालकों की रुचियों के विकास में शिक्षा की सर्वप्रमुख भूमिका होती है। शिक्षा के द्वारा बालकों की रुचियों को वांछित दिशा में मोड़ा जा सकता है। शिक्षा व्यक्ति के मस्तिष्क के क्षितिज का विस्तार कर देती है। किसी वस्तु, स्थान और विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं है तो यह आशा नहीं की जाती है कि उसे उस वस्तु, स्थान और विषय के सम्बन्ध में उसकी रुचि होगी। शिक्षा छुआछूत को मिटाने, विश्व बन्धुत्व की भावना के बढ़ाने और सामाजिक सेवा की भावना की जागृति में रुचि उत्पन्न कर देती है। शिक्षा किशोर की मनोरंजनात्मक रुचि का सुधार कर सकती है।

साहित्यिक शिक्षा का ही यह परिणाम है कि किशोर साहित्य, कवि सम्मेलन तथा साहित्यिक व्यक्तियों की जयन्ती जैसे साहित्यिक उत्सवों में रुचि लेते हैं। मानवीय जीवन के उच्चतर मूल्यों में रुचि लेना और प्राकृतिक पदार्थों के प्रति प्रशंसात्मक दृष्टिकोण को अपनाना इत्यादि सुनियोजित शिक्षा का ही परिणाम है। स्वार्थ-साधन समाज, राज्य तथा सरकार के प्रति षडयन्त्र तथा अनैतिकता कुरुचिपूर्ण कार्य दूषित शिक्षा के परिणाम हैं। विद्यालय वह स्थान है, जहाँ रुचियों का निर्माण तथा उनका उचित निर्देशन होता है। मनोवैज्ञानिक ज्ञान कोष के अनुसार- “इस समाज में विद्यालय ही एक ऐसा स्थान है, जहाँ रुचियों के निर्माण तथा उनके निर्देशन का शैलीबद्ध निरन्तर प्रयत्न किया जाता है। “अतः अध्यापकों को चाहिये कि वे किशोरों की रुचि के क्षेत्र के विस्तार में निरन्तर प्रयत्न करते रहें।

रुचि को प्रभावित करने वाले कारक / Factors Effecting to Interest

बालकों की रुचियों को निम्नलिखित तस्त्व प्रभावित करते हैं-

1. परिवार की आर्थिक दशा-जिन बालकों के परिवार का वातावरण आर्थिक दृष्टि से गिरा हुआ होता है तथा साधनों की कमी होती है, ऐसे बालक शिक्षा में रुचि उत्पन्न नहीं कर पाते और परिवार की आर्थिक दशा उनकी रुचि पर प्रभाव डालती है।

2. अभिभावकों को अनुचित व्यवहार-कुछ बालकों के माता-पिता बालकों के साथ ठीक व्यवहार नहीं करते, जिसके कारण बालकों की रुचि तीव्रता की अपेक्षा निम्न स्तर की ओर चली जाती है।

3. अवधान का केन्द्रित न होना- जिस विषय में बालक का अवधान केन्द्रित नहीं होता, उस विषय में बालक की रुचि भी जागृत नहीं होती। अत: अवधान का केन्द्रित न होना भी रुचि को प्रभावित करता है।

4. कमजोर स्वास्थ्य एवं थकान का प्रभाव-जिन बालकों को स्वास्थ्य कमजोर होता है अथवा जो थके-थके से रहते हैं, वे शिक्षा में रुचि नहीं लगा पाते। इससे बालक की रुचि बाधित होती है और उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। थका हुआ बालक भी अध्ययन में रुचि नहीं लगा पाता है।

5. विद्यालय का कठोर वातावरण-विद्यालय का कठोर तथा भययुक्त वातावरण भी बालक की रुचियों पर प्रभाव डालता है। जिन विद्यालयों में अनुशासन तथा अध्यापकों का व्यवहार मृदु होता है, बालकों की रुचियाँ प्रभावित नहीं होती। अरुचिकर शिक्षण विधियाँ भी बालकों की रुचि को प्रभावित करती हैं।


                                        निवेदन

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