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शैशवावस्था का अर्थ व परिभाषाएं / शैशवावस्था की विशेषताएं एवं शिक्षा
(infancy) शैशवावस्था का अर्थ
शैशवावस्था मानव जीवन की प्रथम एवं सबसे महत्वपूर्ण अवस्था है। इसे बालक के विकास का ‘उषाकाल’ कहा जाता है। कुछ विद्वान इसे जन्म से दो सप्ताह तक मानते हैं परंतु सामान्यतः इस अवस्था की अवधि जन्म से 6 वर्ष तक होती है। शैशवास्था को पुनः दो भागों में बाँटा गया है।
1- शैशव काल- (जन्म से 3 वर्ष)
2- पूर्व बाल्यकाल- (3 से 6 वर्ष)
शैशवावस्था की परिभाषाएं
शैशवावस्था के बारे में मनोवैज्ञानिकों ने निम्नलिखित कथन दिए हैं –
(1) सीगमण्ड फ्रायड के अनुसार, “जीवन के पहले 4-5 वर्षों में बालक भावी जीवन की नींव रख लेता है।”
(2) सीगमण्ड फ्रायड के अनुसार, “शैशवावस्था जीवन की आधारशिला है।”
(3) वैलेन्टाइन के अनुसार, “शैशवावस्था सीखने का आदर्शकाल है।”
(4) स्टैंग के अनुसार, “जीवन के प्रथम 2 वर्षों में बालक अपने भावी जीवन का शिलान्यास करता है।”
(5) गुडएनक के अनुसार, “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है। उसका आधा विकास 3 वर्षों तक हो जाता है।”
(6) रूसो के अनुसार, “बालक के हाथ-पैर व नेत्र उसके आरम्भिक शिक्षक है।”
(7) रॉस के अनुसार, “शिशु कल्पना का नायक है।”
(8) एडलर के अनुसार, “शिशु के जन्म के कुछ समय बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि भविष्य में उसका स्थान क्या होगा।”
(9) वाटसन के अनुसार, “शैशवास्था में सीखने की सीमा और तीव्रता विकास की ओर किसी अवस्था से बहुत अधिक होती है।”
(10) जे. न्यूमैन के अनुसार, “पाँच वर्ष तक की अवस्था शरीर व मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील रहती है।”
(11) हरलॉक के अनुसार– शैशवावस्था जन्म से दो सप्ताह तक चलती है और उसके बाद बचपनावस्था प्रारम्भ हो जाती है जो दो वर्ष तक चलती है।”
(12) कुप्पूस्वामी के अनुसार-“शैशवावस्था जन्म से तीन वर्ष तक होती है।”
शैशवावस्था के अन्य नाम / शैशवावस्था को और किन नामों से जाना जाता है
(1) जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल
(2) भावी जीवन की आधार शिल्प
(3) संस्कारों के निर्माण की आयु
(4) सीखने का आदर्शकाल
(5) खिलौनों की आयु
(6) सीखने की आयु
(7) अतार्किक चिन्तन की अवस्था
(8) प्रिय लगने की अवस्था
(9) खतरनाक अवस्था (रोग से ग्रसित)
(10) मन की मौजी में विचरण की अवस्था
(11) पूर्व विद्यालयी आयु
शैशवावस्था की विशेषतायें
(1) अपरिपक्वता – इस आयु में शिशु शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से अपरिपक्व होता है । वह इतनी जल्दी हर जगह समायोजित नहीं कर पाता है। इसलिए उसे परिवार के संरक्षण की जरूरत होती है।
(2) जिज्ञासा प्रवृत्ति – इस आयु में शिशु के पास जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है । वह अपने आस पास हर वस्तु को देखकर उसे इशारा करके या बोलकर पूछता है।
(3) सीमित मात्रा में कल्पना – इस आयु में शिशु का मानसिक विकास बहुत अधिक नहीं हो पाता है। इसलिए उसके कल्पना करने की क्षमता बहुत अधिक नहीं होती है। इस अवस्था में शिशु सीमित मात्रा में ही कल्पना कर पाता है।
(4) शारीरिक एवं मानसिक विकास तीव्रगति से – इस आयु में बालक का शारीरिक और मानसिक विकास बहुत तीव्र गति से होता है।
(5) दूसरे शिशुओं के प्रति रुचि – इस आयु में शिशु दूसरे छोटे बच्चों को देखकर बहुत खुश होता है । उनके साथ वह खेलता है अर्थात शिशु दूसरे शिशुओं के प्रति रुचि दिखाता है।
(6) क्षणिक मित्रता – इस आयु में शिशु दूसरों की गोद में खेलता है हंसता है। उसके बाद उसके परिवार जन का कोई व्यक्ति आता है तो वह उसके साथ चला जाता है। अर्थात इस अवस्था में शिशु व्यक्तियों और अन्य शिशुओं के साथ कम समय के लिए मित्रता करता है ।
(7) दोहराने की प्रवृत्ति – इस आयु में बालक का भाषा विकास हो रहा होता है। वह अपने आसपास सुने गए शब्दों को बार-बार दोहराता है। शिशु अपने परिवार जन के लोगों से कोई शब्द सुन लेता है या उसे बता दिया जाता है तो वह बार-बार उसे दोहराता रहता है।
(8) अनुकरण द्वारा सीखना – इस आयु में शिशु अनुकरण द्वारा ही सीखता है अर्थात शिशु अपने आसपास लोगों के काम को देखता है और वह भी उसी प्रकार करने का प्रयास करता है।
(9) संवेगों का प्रदर्शन – इस अवस्था में शिशु के संवेगों का भी विकास हो रहा होता है इसलिए शिशु तरह-तरह के संवेग का प्रदर्शन करता है। जैसे रोना, हंसना, गुस्सा होना आदि।
(10) नैतिक व सामाजिक भावना का अभाव – इस आयु में शिशु का नैतिक और सामाजिक विकास बहुत अधिक नहीं होता है। वह केवल अभी आसपास के व्यक्तियों से ही सीख रहा होता है। इसलिए इस अवस्था में शिशु के पास नैतिक और सामाजिक भावना का अभाव होता है।
(11) न तो सामाजिक और न ही असामाजिक – इस अवस्था में शिशु का सामाजिक विकास नहीं होता है। इसलिए अगर इस आयु में वह कोई गलती कर देता है तो उसे बुरा नहीं कहा जाएगा क्योंकि वह तो अभी शिशु है उसे सामाजिक और असामाजिक का ज्ञान नही है।
(12) स्वार्थी व स्वकेन्द्रित – इस आयु में शिशु स्वार्थी और स्वकेन्द्रित होता है। वह अपनी हर पसंद की वस्तु पाकर प्रसन्न होता है तथा वह अपने ही खिलौनों के साथ खेलता रहता है। उसे किसी और के दुख सुख से मतलब नहीं रहता है।
(13) अपनी ज्ञानेन्द्रियों व शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से सीखना – इस आयु में शिशु अपनी ज्ञानेंद्रियों और शारीरिक क्रियाओं के द्वारा सीखता है। जैसे – चलना, फिरना, उठना,बैठना,खाने वाली चीजों का स्वाद लेना आदि।
(14) कहानियाँ सुनना व सुनाना – इस आयु में शिशु को कहानियां सुनना और तरह-तरह की कहानियां सुनाना बहुत अधिक पसंद होता है। क्योंकि इस आयु में शिशु कहानियों में खुद को जोड़ता है और वह सोचता है कि वह ही इस कहानी का हीरो है।
(16) चार वर्ष की आयु तक मलमूत्र विसर्जन पर नियंत्रण करना – इस आयु में शिशु शारीरिक और मानसिक रूप से बहुत अधिक सक्षम नहीं होता है। की वह स्वयं उठकर खुद से मल मूत्र का विसर्जन कर पाए इसलिए उसे अपने परिवार पर ही आश्रित रहना पड़ता है।
(17) सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना आदि भाषायी कौशलों की आधारभूत समझ (L, S, R, W) – इस आयु में शिशु अपनी भाषा का विकास सुनना बोलना पढ़ना लिखना सूत्र के द्वारा करता है। अर्थात शिशु सबसे पहले सुनना सीखता है,उसके बाद उन सुने हुए शब्दों को बोलना सीखता है,फिर उन बोले गए शब्दों को पढ़ना और उसके बाद लिखना सीखता है।
(18) काम प्रवृत्ति – इस अवस्था में शिशु के अंदर काम प्रवृत्ति बहुत अधिक पाई जाती है। इसीलिए कभी-कभी वह अपनी मां का स्तनपान करते समय अपने दांतों से काट लेता है।
(19) पराश्रितता – इस आयु में शिशु अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ रहता है। अतः जन्म के बाद वह अपने पालन-पोषण तथा देखभाल के लिये दूसरों पर आश्रित रहता है। गर्भ में तो उसका पोषण प्राकृतिक रूप से माँ के शरीर से होता रहता है किन्तु जन्म के बाद भी उसे जीवित रहने के लिये माँ के दूध की आवश्यकता होती है।
(20) मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार – शैशवावस्था में शिशु के सभी व्यवहार मूल प्रवृत्तियों द्वारा निर्धारित रहते हैं इसलिये भूख लगने पर रोता है, प्यार करने पर हँसता है। यदि कोई प्रिय वस्तु छीन लेता है तो रोने लगता है। माँ को देखकर प्रसन्न होता है।
शैशवावस्था का महत्त्व
(Importance of Infancy)
मानव-जीवन में विकास की सभी अवस्थाओं में शैशवावस्था का महत्त्व सबसे अधिक है। मनोवैज्ञानिक न्यूमैन (J. Newman) के अनुसार-“पाँच वर्ष तक की अवस्था शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील रहती है।”
इस समय जो कुछ किया या सिखाया जाता है, उसका प्रभाव तुरन्त (तत्काल) पड़ता है। मनोविश्लेषणवादियों (Psycho-analysists) ने भी शैशवावस्था पर विशेष ध्यान देने के लिए जोर दिया है।
फ्रायड का कथन है, “मनुष्य को जो कुछ बनना होता है, प्रारम्भ के चार-पाँच वर्षों में ही बन जाता है।” मनोवैज्ञानिकों ने अपने परीक्षणों के आधार पर इस बात को अच्छी तरह सिद्ध कर दिया है।
एडलर (Adler) ने कहा है “शैशवावस्था द्वारा जीवन का पूरा क्रम निश्चित होता है।”
बीसवीं शताब्दी में मनोवैज्ञानिकों ने बालक और उसके विकास की अवस्थाओं का विस्तृत और गंभीर अध्ययन किया है।
क्रो और क्रो ने कहा है-“बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी कहा जाता है। “
मोवैज्ञानिकों के इन विचारों के अनुसार, “इस अवस्था को जीवन का आधार कहा जा सकता है, जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण होता है।”
शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप
इस अवस्था में शिशु की शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिये-
(1) शिशु का शिक्षण बड़े प्रेम और स्नेह से करना चाहिये।
(2) शिशु की जिज्ञासा प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिये। उनके प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर देना चाहिये।
(3) शिशु जन्म से ही क्रियाशील होता है। खेल में उसकी सहज रुचि होती है। अतः उसे खेल द्वारा तथा करके सीखने का पूर्ण अवसर देना चाहिये।
(4) आत्माभिव्यक्ति का सबसे उत्तम साधन मातृभाषा है। अतः अभिभावकों और शिक्षकों को शिशुओं को छोटी-छोटी
कहानियाँ, कविताएँ सुनानी तथा याद करवानी चाहिये और उनसे सरल भाषा में वार्तालाप करना चाहिये।
(5) शिशु आरम्भ से ही संगीत प्रिय होता है। इसलिये शिक्षण कार्य के लिये गीतों का प्रयोग करना चाहिये।
(6) शिशु को सोचने-विचारने के लिये अधिक अवसर देना चाहिये।
(7) शिशु के सामाजिक विकास के लिये शिक्षा देते समय व्यक्तिगत विभिन्नता पर ध्यान देना चाहिये।
(8) पाठ्यक्रम रुचि, क्रिया तथा खेल के सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिये। शिशु को क्रिया, खेल तथा वस्तुओं के माध्यम से शिक्षा देनी चाहिये।
(9) शिशु में अच्छी आदतों के विकास के लिये स्वयं को उसके समक्ष अच्छे रूप में प्रस्तुत होना चाहिये।
(10) शिशु को छोटी-छोटी बातों में भय एवं दण्ड से दूर रखना चाहिये। भय एवंदण्ड का बच्चों के शारीरिक,मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास पर प्रभाव पड़ता है।
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