उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा,भेद एवं उदाहरण / उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

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उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा,भेद एवं उदाहरण / उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण व स्पष्टीकरण

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उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा

जहाँ उपमेय और उपमान की समानता के कारण उपमेय में उपमान की संभावना या कल्पना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इसके वाचक शब्द हैं-मनु, मानो, जनु, जनहु, जानो, मनहु आदि ।

उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण –

उदाहरण –  कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
                हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ।।

स्पष्टीकरण – यहाँ उत्तरा के अश्रुपूरित नेत्र उपमेय हैं तथा हिम-कण से पूरित पंकज उपमान हैं। उपमेय में उपमान की संभावना ‘मानो’ वाचक द्वारा व्यक्त की गई है।

उदाहरण –  सोहत ओढ़े पीत स्याम सलोने गात।
               मनो नीलमनि सेल पर आतप पर्यो प्रभात।।

स्पष्टीकरण – स्पष्ट है कि पीतांबरधारी श्रीकृष्ण का साँवला शरीर उपमेय है। जिसमें प्रातः कालीन किरणों से युक्त नीलमणि के पर्वत की संभावना का कथन होने के कारण इस दोहे में उत्प्रेक्षा अलंकार है।

उत्प्रेक्षा अलंकार के प्रकार

उत्प्रेक्षा तीन प्रकार की होती है- (1) वस्तूत्प्रेक्षा (2) हेतुत्प्रेक्षा और (3) फलोत्प्रेक्षा

(1) वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार

जहाँ एक वस्तु में दूसरी वस्तु के आरोप की सम्भावना की जाय, वहाँ वस्तूत्प्रेक्षा होती है।

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उदाहरण – जान पड़ता नेत्र देख बड़े-बड़े ।
                 हीरकों में गोल नीलम हैं जड़े ॥
                  पद्मरागों से अधर मानो बने।
                  मोतियों से दाँत निर्मित हैं घने ॥

स्पष्टीकरण – यहाँ प्रस्तुत (नेत्र आदि) में अप्रस्तुत (हीरों में जड़े नीलम) आदि की सम्भावना की गयी है। ‘जान पड़ता’ और ‘मानो’ वाचक शब्द है।

उदाहरण – सखि सोहति गोपाल के, उर गुंजन की माल।
                बाहिर लसति मनो पिये, दावानल की ज्वाल ॥

स्पष्टीकरण – ‘गुंजन की माल’ उपमेय में ‘दावानल की ज्वाल’ उपमान की सम्भावना की गयी है।

(2) हेतुत्प्रेक्षा अलंकार

जहाँ सम्भावना के मूल में कोई कारण या हेतु हो, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

उदाहरण – रवि अभाव लखि रैनि में, दिन लखि चन्द्रविहीन ।
                 सतत उदित इहिं हेतु जनु, यश प्रताप मुख कीन ॥

स्पष्टीकरण – राजा के यश प्रताप के सतत देदीप्यमान होने का हेतु रात्रि में सूर्य का और दिन में चन्द्र का अभाव बताया गया है, अत: अहेतु में हेतु की सम्भावना की गयी है।

उदाहरण – घिर रहे थे घुँघराले बाल
                अंस अवलंबित मुख के पास,
                 नील घन शावक से सुकुम्मार,
                 सुधा भरने को विधु के पास।

(3) फलोत्प्रेक्षा अलंकार

जहाँ किसी क्रिया के मूल में किसी फल की सम्भावना हो, वहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

उदाहरण – पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा ।
                मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ॥

स्पष्टीकरण – पुष्पों में स्वाभाविक रूप से सुगन्ध होती है, परन्तु यहाँ जायसी ने पुष्पों की सुगन्ध विकीर्ण होने का फल बताया है, जिससे
सम्भवतः पद्मावती उन्हें अपनी नासिका में लगा ले। इस प्रकार यहाँ अफल में फल की सम्भावना की गयी है।

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उदाहरण – नित्य ही नहाता क्षीर सिन्धु में कलाथर है,
                 सुन्दरि, नवानन की समता की इच्छा से।


उत्प्रेक्षा अलंकार के अन्य उदाहरण-

(1) उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा ।।
(2) अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी।
         मानहुँ रोष-तरंगिनि बाढ़ी।
(3) पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के।
मेघ आए बड़े बन ठन के सँवर के।।
(4) पुलक प्रकट करती है धरती हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हो तरु भी मंद पवन के झौंकों से ।।
(5) चमचमात चंचल नयन बिच घूँघट पट झीन।
मानहु सुरसरिता विमल जल बिठुरत जुग मीन।।
(6) बहुत काली सिल
जरा से लाल केसर-से
कि जैसे धुल गई हो।
(7) मनु दृग फारि अनेक जमुन निरखत व्रज सोभा ।
(8) सिर फट गया उसका वहीं मानो अरुण रंग का घड़ा।
(9) ले चला साथ में तुझे कनक ज्यों भिक्षु लेकर स्वर्ण-झनक ।
(10) मिटा मोद मन भए मलीने
विधि निधि दीन्ह लेत जनु छीन्हे ।
(11) चमचमात चंचल नयन बिच घूँघट पट झोन ।
    मानहु सुरसरिता विमल जल उछरत युग मीन ॥



                       
                      ★★★ निवेदन ★★★

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