व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारक / factors influencing growth of personality in hindi

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व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारक / factors influencing growth of personality in hindi

व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारक / factors influencing growth of personality in hindi

व्यक्तित्व की विशेषतायें या लक्षण (Characteristics of Personality)

ये विशेषतायें निम्न हैं-

(i) प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न होता है।
(iii) व्यक्तित्व में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।
(iii) व्यक्तित्व व्यक्ति के आन्तरित और बाह्य दोनों प्रकार के व्यवहार से सम्बन्धित होता है।
(iv) व्यक्तित्व वातावरण एवं वंशानुक्रम दोनों का प्रतिफल होता है।
(v) यह व्यक्ति के समस्त विशेषताओं का गत्यात्मक संगठित रूप है।
(vi) व्यक्तित्व अधिगम का प्रतिफल है।
(vii) व्यक्तित्व सम्पूर्ण रूप में दिखाई देता है।

एक अच्छे व्यक्तित्व की विशेषतायें
(Characteristics of a Good Personality)

आर्थर जॉन ने अच्छे व्यक्तित्व की निम्न विशेषतायें बतलाई हैं–

(i) व्यक्तित्व की पहचान मनुष्य के स्वरूप से होती है। आकर्षक स्वरूप आकर्षक व्यक्तित्व की पहचान है।
(ii) दृढ़ इच्छा शक्ति ।
(iii) मानसिक स्वास्थ्य उत्तम
(vi) सामाजिकता, मिलनसारिता एवं हँसमुखता।
(v) कार्य और लक्ष्य में एकरूपता।
(vi) लक्ष्य और आदर्श स्पष्ट।
(vii) सूझ-बूझ
(viii) समायोजन वातावरण के साथ

व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Influencing Growth of Personality)

व्यक्तित्व के विकास को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं-

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1. वंशानुक्रम-वंशानुक्रम के कारण ही व्यक्तियों में मानसिक तथा शारीरिक गुणों में भिन्नता दिखाई देती है। मनुष्य का व्यक्तित्व स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं होता है। इस विकास पर माता-पिता के गुणों का प्रभाव
पड़ता है।

2. भौतिक वातावरण का प्रभाव-पहाड़, मैदान, रेगिस्तान, नदियों का किनारा तथा समुद्र आदि व्यक्ति के शारीरिक विकास को प्रभावित करते हैं। उनके अन्य गुणों पर भी भौतिक अवस्थाओं का प्रभाव पड़ता है।

3. सामाजिक वातावरण का प्रभाव-समाज ही व्यक्ति को सामाजिक प्राणी बनाता है। बालक के जन्म के समय वह न तो सामाजिक होता है और न असामाजिक। सामाजिक वातावरण उसके व्यक्तित्व का विकास करता है।

4. सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव-समाज व्यक्तित्व का निर्माण करता है। संस्कृति उसके स्वरूप को निश्चित करती है। मनुष्य के व्यक्तित्व पर उसकी संस्कृति का प्रभाव पड़ता है।

5. शारीरिक रचना का प्रभाव – मनुष्य के व्यक्तित्व पर उसकी शारीरिक रचना का भी प्रभाव पड़ता है। शरीर की लम्बाई, मोटाई तथा भार का मनुष्य के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।

6. परिवार का प्रभाव-थौर्प (Thorpe) का कथन है, “परिवार बालक को ऐसे अनुभव प्रदान करता है जो उसके व्यक्तित्व के विकास की दशा को बहुत अधिक सीमा तक निश्चित करते हैं। जिस बालक को परिवार में स्नेह मिलता है उसका विकास स्वाभाविक गति से होता है।

7. जैविकीय कारक- बालक के व्यक्तित्व के विकास पर शारीरिक, रसायन तथा विभिन्न ग्रन्थियों का भी प्रभाव पड़ता है।

8. बुद्धि का प्रभाव- प्रखर बुद्धि वाले बालक के व्यक्तित्व का विकास मन्द बुद्धि वाले बालक के विकास से भिन्न होता है। जिस व्यक्ति में जितनी अधिक मानसिक योग्यता होती है उतना ही अधिक उसके व्यक्तित्व का विकास होता है।

9. विद्यालय का प्रभाव – बालक के व्यक्तित्व के विकास पर विद्यालय का भी प्रभाव पड़ता है। यदि विद्यालय का वातावरण प्रजातान्त्रिक आदर्शों पर आधारित है तो उसका विकास स्वाभाविक गति से होता है।

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10. दैहिक दशा का प्रभाव- वुडवर्थ (Woodworth) का कहना है, “शरीर की दैहिक दशा मस्तिष्क के कार्य पर प्रभाव डालने के कारण व्यक्ति के व्यवहार और व्यक्तित्व को प्रभावित करती है।”

11. हीनता ग्रन्थि-मनुष्य की सभी इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती है। उसकी अनेक इच्छाओं का दमन कर दिया जाता है। उसकी ये दमन की गयी इच्छा अज्ञात चेतना में प्रविष्ट कर जाती है। यही इच्छाएँ भावना ग्रंथियों की जन्मदाता होती हैं। भावना ग्रन्थि कई प्रकार की होती हैं, जैसे—काम सम्बन्धी भावना ग्रन्थि, आत्म गौरव की भावना ग्रन्थि, हीनता की भावना ग्रन्थि आदि।

बालकों में हीनता की भावना अनेक कारणों से आ जाती है। प्रायः देखा गया है कि स्कूल तथा घर में प्रतिदिन डॉट खाने वाला बालक हीनता अनुभव करने लगता है। उसे घर तथा स्कूल दोनों में ही एक ही वाक्य सुनना पड़ता है, “तुम मूर्ख हो, तुम्हारा तो जीवन ही व्यर्थ है।” यदि किसी बालक में शारीरिक दोष है और उसके परिणामस्वरूप वह सामान्य बालकों के सदृश्य प्रगति नहीं कर पाता है तो उसमें हीनता की भावना और अधिक तीव्र हो जाती है। उसे एक संवेगात्मक धक्का (Emotional Shock) पहुंचता है।

इसके परिणामस्वरूप, वह अपने को मानसिक रूप से भी हीन समझने लगता है। उसकी इस हीनता की ग्रन्थि को समाप्त करना अति आवश्यक है। यह ग्रन्थि व्यक्तित्व के विकास में बाधा डालती है। शिक्षक तथा अभिभावक को बालक के दोषों की बार-बार पुनरावृत्ति नहीं करनी चाहिए। उन्हें किसी भी प्रकार से निरुत्साहित नहीं करना चाहिए। उन्हें बालक में यह विश्वास जमाना चाहिए कि संसार में कोई भी वस्तु पूर्ण नहीं है। गुण तथा दोष तो सभी में होते हैं। अतः दोषों के कारण हीनता अनुभव नहीं करनी चाहिए।

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