अद्भुत रस की परिभाषा एवं उदाहरण / अद्भुत रस के उदाहरण व स्पष्टीकरण

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अद्भुत रस की परिभाषा एवं उदाहरण / अद्भुत रस के उदाहरण व स्पष्टीकरण

अद्भुत रस की परिभाषा एवं उदाहरण / अद्भुत रस के उदाहरण व स्पष्टीकरण

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अद्भुत रस की परिभाषा

काव्य में जहाँ असमान्य घटना, कार्य, दृश्य, वस्तु आदि से उत्पन्न
आश्चर्य या विस्मय का यहाँ अद्भुत रस होता है।

अद्भुत रस के अवयव

1.स्थायीभाव – विस्मय (आश्चर्य)
2.आलम्बन – अलौकिक या आश्चर्य उत्पन्न करने वाली वस्तु
3.उद्दीपन – आलम्बन के गुण
4.अनुभाव – नेत्र फैलना, रोमांच संभ्रम
5.संचारी भाव – वितर्क, भ्रान्ति, हर्ष, आवेग आदि।

अद्भुत रस के उदाहरण एवं स्पष्टीकरण

उदाहरण – 1

अखिल भुवन चर-अचर जग हरिमुख में लखि मातु ।
चकित भयी, गदगद वचन, विकसित दृग पुलकातु ॥

स्पष्टीकरण – रस-अद्भुत। स्थायी भाव-विस्मय । आश्रय-माता यशोदा। आलम्बन – कृष्ण का मुख। उद्दीपन-मुख में अखिल भुवनों और चराचर प्राणियों का दीखना। अनुभाव-स्वरभंग, रोमांच, नेत्रों का विकास। संचारी भाव-त्रास आदि । अतः यहाँ पर अद्भुत रस है।

उदाहरण – 2

दिखरावा निज मातहि अद्भुत रूप अखंड
रोम-रोम प्रति लागे कोटि-कोटि ब्रह्मंड ॥
अगनित रवि-ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिन्धु महि कानन ।
तनु पुलकित, मुख बचन न आवा। नयन मूँदि चरनन सिर नावा ॥

स्पष्टीकरण – रस- अद्भुत । स्थायी भाव-विस्मय । आश्रय-कौशल्या । आलम्बन-राम का अद्भुत रूप । उद्दीपन-रूप की अद्भुता, रोम-रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड, असंख्य सूर्य आदि। अनुभाव-रोमांच, स्वरभंग, नेत्रों को मूँदना, सिर नवाना। अतः यहाँ पर अद्भुत रस है।

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उदाहरण – 3

सती दीख कौतुक मग जाता। आगे राम सहित सिय-भ्राता ॥
फिर चितवा पाछे प्रभु देखा। सहित बन्धु-सिय सुन्दर बेखा ॥
जहँ चितवइ तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रवीना ॥
सोइ रघुबर, सोइ लक्ष्मन-सीता। देखि सती अति भयी सभीता॥
हृदय कम्प, तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूँदि बैठा मग माहीं ॥

स्पष्टीकरण – रस-अद्भुत। स्थायी भाव-विस्मय । अश्रय – सती । आलम्बन – राम का आगे- पीछे सर्वत्र दिखायी देना। अनुभाव- कम्प, स्तम्भ, नेत्र मूँदकर बैठ जाना। संचारी भाव-त्रास, जड़ता, मोह। अतः यहाँ पर अद्भुत रस है।

अद्भुत रस के अन्य उदाहरण

(1) इहाँ उहाँ दुई बालक देखा।
मति भ्रम मोरि कि आन बिसेखा॥

(2) देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया।
क्षणभर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया ।।

(3) केशव नहि न जाई का कहिये,
     देखत तब रचना विचित्र अति समुझि मनहि मन दहिये।

(4) सुत की शोभा को देख मोद में फूली,
      कुन्ती क्षण भर को व्यथा-वेदना भूली।
       भरकर ममता-पय से निष्पलक नयन को,
       वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को।    

(5) मैं फिर भूल गया इस छोटी सी घटना को
     और बात भी क्या थी, याद जिसे रखता मन!
     किंतु, एक दिन जब मैं संध्या को आँगन में
     टहल रहा था, तब सहसा मैंने जो देखा
    उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!
     देखा, आँगन के कोने में कई नवागत
     छोटी-छोटी छाता ताने खड़े हुए हैं।   


                          ★★★ निवेदन ★★★

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