सन्त कबीरदास पर निबंध / essay on Kabirdas in hindi

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सन्त कबीरदास पर निबंध / essay on Kabirdas in hindi

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रूपरेखा (1) प्रस्तावना, (2) जन्म, (3) शिक्षा, (4) गुरु, (5) ग्रहस्थ-जीवन, (6) साधु-सेवा, (7) समाज सुधार, (8) उपसंहार।

प्रस्तावना-

समाज में अनेक रूढ़ियाँ फैल जाती हैं। इन रूढ़ियों के फैलने कारण समाज अनेक भागों में बँट जाता है। लोग हिन्दू तथा मुसलमान धर्म के नाम पर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। छुआ-छूत के कारण एक वर्ग के लोग दूसरे वर्ग के लोगों को नीच समझने लगते हैं, तब कबीर जैसे सन्त-महात्माओं का जन्म होता है। ये लोग समाज की बुराइयों को हटाकर उसे सुखी बनाते हैं।

जन्म-

कबीर का जन्म सम्वत् 1455 जेठ सुदी पूर्णमासी को चन्द्रवार के दिन काशी में हुआ था। आपके जन्म के सम्बन्ध में एक कथा प्रसिद्ध है। कथा के अनुसार स्वामी रामानन्द के आशीर्वाद से एक विधवा ब्राह्मणी को पुत्र की प्राप्ति हुई। वह लोक-लाज के कारण बालक कबीर को ‘लहरतारा’ नामक तालाब पर छोड़कर चली गयी। नीमा और नीरू जुलाहा पति-पत्नी ने बालक को उठा लिया और अपन बच्चे की तरह पालन-पोषण करने लगे।

शिक्षा—

कबीर ने अपनी शिक्षा के सम्बन्ध में स्वयं लिखा है-‘मसि कागद छुओ नहिं, कलम गही नहिं हाथ।’ किन्तु यह कथन ठीक मालूम नहीं पड़ता है। आपने गम्भीर विषयों पर गहराई के साथ लिखा है तथा अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है। आपकी भाषा बहुत उत्तम है। इससे ज्ञात होता है कि आपने शिक्षा प्राप्त की थी।

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गुरु –  

आपके गुरु रामानन्द थे। कहते हैं कि इन्होंने बड़ी चालाकी से रामानन्द को गुरु बनाया। ये उन सीढ़ियों पर जाकर लेट गये, जिनसे रामानन्द स्नान के लिए जाते थे। गंगा जाते समय इनके शरीर पर रामानन्द का पैर पड़ा। उन्होंने पैर के पड़ने पर ‘राम राम’ कहा। कबीर ने ‘राम’ को ही अपना गुरु-मन्त्र मान लिया।

गृहस्थ जीवन—

आपने गृहस्थ जीवन बिताया था। आपकी पत्नी का नाम लोई था। आपके पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। आप कपड़ा बुनकर अपनी जीविका चलाते थे, किन्तु उतना ही कमाते थे, जिससे कुटुम्ब का पालन-पोषण हो जाये और कोई आया हुआ साधु भी भूखा न जाय ।

साधु-सेवा–

साधु-सेवा के सम्बन्ध में एक कथा प्रसिद्ध है। एक दिन इनके यहाँ बहुत से साधु आ गये। उनके खिलाने के लिए धन न होने से जब ये दु:खी हुए, तब इनकी स्त्री ने इन्हें दुःखी देखकर कहा, “तुम दुःखी मत होओ। एक सेठ का लड़का मुझे चाहता है। तुम मुझे उसके पास ले चलो।” बरसात हो रही थी। कबीर अपनी पत्नी लोई को कन्धे पर बिठाकर सेठ के घर पहुँचे। सेठ का लड़का लोई को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। सेठ के लड़के ने पूछा,“तुम बरसात में आई हो। तुम्हारे पैर गीले नहीं हैं।” लोई ने सारा हाल बता दिया। सेठ का लड़का बाहर बैठे कबीर के पैरों पर गिर पड़ा तथा उसने बहुत रुपया दिया। वह कबीर का भक्त बन गया।

समाज सुधार – 

इन्होंने जीवन भर समाज को सुधारने का प्रयत्न किया। आपने उस माला के फेरने की निन्दा की जो दिखावे के लिए फेरी जाती थी। आपने लोगों को समझाया कि ऐसी माला मत फेरो, जिसके फेरने के समय तुम्हारा मन और कहीं भटक रहा हो। तुम संसार की बुराइयों से अपने मन को हटाओ।

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मूर्ति पूजा के विरोध में उन्होंने कहा है-

“पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।

ताते यह चाकी भली, पीसि खाय संसार ।”

एवं

“कांकर पाथर जोरि कर, मस्जिद लई बनाय।

ता चढ़ मुल्ला बाग देत, क्या बहरा भया खुदाय ॥”

उपसंहार—

सन्त कबीर के जीवन पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है कि उन्होंने ईश्वर को सर्वव्यापक बतलाते हुए निर्गुण ईश्वरोपासना पर बल दिया-

“कस्तूरी कुण्डलि बसै, मृग ढूँढै वन माँहि ।

ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखति नाहिं ॥”

इसी प्रकार कबीरदास ने उन ढोंगियों का विरोध किया जो कपड़े रंग कर या सिर मुड़ाकर अथवा जटाएँ रखकर संसार को धोखा दिया करते थे। आप हिन्दू- मुसलमान दोनों को एक ईश्वर की संतान मानते थे। सबका मालिक एक है। भेद-भाव करना ठीक नहीं है। इस प्रकार का उपदेश देते हुये आपने मगरहर में प्राण त्याग दिये। कबीरदास जी की मृत्यु के बाद हिन्दू और मुसलमान दोनों में उनके पार्थिव शरीर को लेकर झगड़ा होने लगा। कहते हैं कि मृत शरीर जो चादर से ढका था, जब चादर को उठाया, तब मृत शरीर के स्थान पर फूल मिले, जिन्हें हिन्दू और मुसलमान दोनों ने बाँट लिया। मुसलमानों ने उन्हें गाढ़ दिया और हिन्दुओं ने जला दिया।

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