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साहित्य सेवा पर निबंध / essay on literature service in hindi
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) साहित्य सेवा का प्रादुर्भाव, (3) साहित्य और जीवन, (4) साहित्य और समाज, (5) साहित्यकार का दायित्व,(6) उपसंहार।
प्रस्तावना-
हमारी भारतीय संस्कृति में सेवा को परम धर्म बताया है। इसी सेवा भाव से प्रेरित होकर अनेक विद्वानों ने साहित्य सेवा को अपने जीवन का अंग बना लिया। कहते हैं कि ‘साहित्य समाज का दर्पण’ होता है। इस दर्पण में साहित्यकारों ने साहित्य सेवा करते हुए समाज के यथार्थ रूप को दिखाया है। हम उन साहित्यकारों के ऋणी हैं जिन्होंने अपना अमूल्य जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया और आने वाली पीढ़ी के लिए विरासत के रूप में विशाल साहित्य दिया।
साहित्य सेवा का प्रादुर्भाव-
प्राचीन काल से ही लोग अपने ज्ञान को लिपिबद्ध करते चले आ रहे हैं। सभ्यता के विकास के साथ-साथ साहित्य का भी विकास होता गया। इस विकास में अनगिनत साहित्यकारों का योगदान है। साहित्य सेवा का प्रादुर्भाव छात्र जीवन से किया जा सकता है। प्रत्येक विद्यालय की वार्षिक पत्रिका निकलती है। उसमें किसी विषय पर लेख लिखकर साहित्य सेवा का श्रीगणेश किया जा सकता है। स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर भेजे जा सकते हैं। धीरे-धीरे लेखनी में सुधार आयेगा और रुचि भी साहित्य के प्रति बढ़ती जायेगी। साहित्य में रुचि होने से सत्साहित्य के अध्ययन के प्रति भी रुचि बढ़ेगी।
साहित्य और जीवन-
साहित्य और जीवन का अटूट सम्बन्ध है—क्योंकि मानव जीवन के परिवेश में ही साहित्य का जन्म और पोषण होता है। वस्तुतः साहित्यकार का जीवन ही साहित्य है। कुछ विद्वानों ने साहित्य और जीवन में समन्वय की भावना को हृदय में रखकर ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’ इस नारे को बुलन्द किया। वास्तव में मनुष्य साहित्य का चरम लक्ष्य है और जीवन साहित्य के मूल में स्थित है। जीवन की गतिशीलता साहित्य को प्रभावित करती है। साहित्य में केवल जीवन का चित्रण ही नहीं, अपितु मार्ग दर्शन भी होता है। जो साहित्य केवल मनोरंजन की सामग्री एकत्रित कर प्रस्तुत करता है, उसका ध्येय क्षणिक मनोरंजन होता है। जब तक साहित्य में पोषक तत्व रहते हैं, वह जीवित रहता है।
उत्थान-पतन साहित्य और समाज-
साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। जिस प्रकार दर्पण के सामने रखी वस्तु का स्पष्ट स्वरूप अंकित हो जाता है, उसी प्रकार किसी भी देश के साहित्य में उस देश के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक जीवन की झाँकी मिल जाती है। साहित्य अपने में समाज के तथा उत्कर्ष और अपकर्ष की कहानी संजोए रखता है। कविवर प्रसाद जी के शब्दों में, “साहित्यकार चित्रित करता है, समाज कैसा है और कैसा होना चाहिए। किन्तु साहित्यकार न तो प्रवचनकर्ता और न ही इतिहासकार है। दुःख से दग्ध जगत का नैसर्गिक स्वर्ग से एकीकरण ही साहित्य है। साहित्यकार का दायित्व साहित्यकार साहित्य जगत का विधाता है। जिस प्रकार विधाता ने इस विश्व की रचना की है, उसी प्रकार साहित्यकार भी उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, एकांकी आदि विविध रूपों से साहित्य श्री की वन्दना करता है।
साहित्यकार को समाज का सजग प्रहरी मानना अनुचित न होगा। जिस प्रकार एक प्रहरी सजग रहकर अपने दायित्व का निर्वाह करता है, उसी प्रकार साहित्यकार को भी अत्यन्त सजग रहना पड़ता है। उसके चारों ओर नित्य नए घटना चक्र घटित होते रहते हैं। घटनाओं के इस घने घेरे से घिरी साहित्य सामग्री का चयन करना कोई आसान कार्य नहीं है। साहित्यकार का दायित्व अत्यन्त कठिन है। साहित्यकार केवल समस्याओं का अध्ययन ही नहीं करता वरन् वह समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत कर सकता है। साहित्यकार चाहे तो समाज को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बना सकता है। अतः साहित्यकार का समाज निर्माण में महत्त्वपूर्ण दायित्व है। साहित्य एवं साहित्यकार में परस्पर कार्य-कारण का सम्बन्ध है। वे दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। साहित्यकार की विविध भावानु- भूतियों से साहित्य में वृद्धि होती है।
उपसंहार—
इसमें कोई सन्देह नहीं कि साहित्य जिस ओर चाहे जीवन के प्रवाह को मोड़ सकता है। विश्व का इतिहास इसी बात का साक्षी है कि साहित्य के कारण ही अनेक राज्य-क्रान्तियों को सफलता मिली। मानवीय आदर्शों की स्थापना, युद्धों में विजय, घृणा, द्वेष और संघर्ष के स्थान पर पारस्परिक सौहार्द्र, समन्वय और एकता की स्थापना, मानवीय अधिकारों की स्थापना, व्यक्ति स्वातन्त्र्य तथा भ्रातृत्व भाव, त्याग और बलिदान के सन्देश, पराजित मनोवृति के स्थान पर विश्व-विजय का सन्देश जहाँ-कहीं भी देखें साहित्य का स्थान सर्वोपरि है। साहित्यकारों को साहित्य सेवा के द्वारा इसके गौरव को बढ़ाना चाहिए, इसी में उनका गौरव है।
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◆◆◆ निवेदन ◆◆◆
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