विभिन्न अवस्थाओं में बालक में अभिव्यक्ति क्षमता का विकास / development of expression capacity in hindi

दोस्तों अगर आप बीटीसी, बीएड कोर्स या फिर uptet,ctet, supertet,dssb,btet,htet या अन्य किसी राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आप जानते हैं कि इन सभी मे बाल मनोविज्ञान विषय का स्थान प्रमुख है। इसीलिए हम आपके लिए बाल मनोविज्ञान के सभी महत्वपूर्ण टॉपिक की श्रृंखला लाये हैं। जिसमें हमारी साइट istudymaster.com का आज का टॉपिक विभिन्न अवस्थाओं में बालक में अभिव्यक्ति क्षमता का विकास / development of expression capacity in hindi है।

विभिन्न अवस्थाओं में बालक में अभिव्यक्ति क्षमता का विकास / development of expression capacity in hindi

विभिन्न अवस्थाओं में बालक में अभिव्यक्ति क्षमता का विकास / development of expression capacity in hindi
विभिन्न अवस्थाओं में बालक में अभिव्यक्ति क्षमता का विकास / development of expression capacity in hindi

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अभिव्यक्ति क्षमता का विकास
(Development of Expression Capacity)

बालकों का भाषा विकास एकाएक नहीं होता है। यह तो एक लम्बी और जटिल प्रक्रिया है जिसके कई सोपान है। वैसे जन्म के बाद प्रथम क्रन्दन को ही भाषा विकास की प्रारम्भिक अवस्था माना जाता है किन्तु इस समय उसे इस बात का ज्ञान नहीं होता है कि उसका क्रन्दन किस कारण से है। बालक का वास्तविक भाषा विकास तभी माना जाता है जब वह स्वयं द्वारा उच्चारित शब्दों का अर्थ समझ सके तथा शब्दों का व्यक्तियों तथा वस्तुओं से सम्बन्ध जोड़ सके। अतः बालकों के भाषा विकास की अवस्थाओं को पाँच भागों में बाँटा जाता है-

1. बोलने की तैयारी (Preparation for Speech)

भाषा विकास की प्रारम्भिक अवस्था ही बोलने की तैयारी है है। यह अवस्था जन्म के बाद से प्रारम्भ होकर 13 से 14 महीने तक रहती है। भाषा विकास की इस प्रक्रिया के दौरान बालक क्रन्दन द्वारा, बलबलाहट द्वारा तथा हावभाव द्वारा अपनी वाणी को प्रकट करने का प्रयास करता है।

(1) क्रन्दन (Crying)

प्रत्येक सामान्य शिशु के जीवन का प्रारम्भ उसके क्रन्दन से होता है। मनोवैज्ञानिकों ने क्रन्दन को ही भाषा विकास का प्रारम्भिक स्वरूप माना है। बालकों की यह क्रिया एक सहज क्रिया है इसका बालक से कोई बौद्धिक या संवेगात्मक सम्बन्ध नहीं होता है। जन्म के बाद प्रथम क्रन्दन तो एक प्राकृतिक क्रिया है। जन्म के बाद प्रथम दो सप्ताह तक भी बालकों का रोना उद्देश्यहीन तथा अनियमित होता है किन्तु आयु वृद्धि के साथ-साथ शिशु का क्रन्दन उसकी आवश्यकताओं से जुड़ता जाता है। तीन चार सप्ताह के शिशु के क्रन्दन से यह स्पष्ट होने लगता है कि या तो वह भूखा है, उसे कोई पीड़ा है, या उसके वस्त्र व बिस्तर गीला हो गया है।

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शिशु क्रन्दन के कारण

जन्म के पश्चात् दो सप्ताह तक तो शिशु क्रन्दन की क्रिया निरर्थक होती है लेकिन दो सप्ताह बाद शिशु का क्रन्दन परिस्थितिजन्य हो जाता है। शिशु क्रन्दन के उसके आन्तरिक व बाह्य कारण हो सकते हैं, जैसे-भूख, थकान, पीड़ा, गीले वस्त्र, तीन ध्वनियों, तीव्र प्रकाश, भय आदि । जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती जाती है उनके रोने के कारणों में वृद्धि होती जाती है। तीन-चार माह का बालक अपने आसपास दूसरे व्यक्तियों की उपस्थिति को समझने लगता है।

अतः उसका क्रन्दन दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए भी होने लगता है। चार-पाँच माह का शिशु अपरिचित व्यक्तियों को देखकर रोने लगता है। 6-7 माह के शिशु अपनी प्रिय वस्तु छीन लेने पर रोते हैं यदि उनकी क्रियाओं में बाधा उत्पन्न की जाती है तो भी रोने लगते हैं। 1 वर्ष का बालक भय, अपरिचित व्यक्ति व परिस्थिति, कसे वस्त्र, भूख-प्यास तथा पीड़ा की स्थिति में रोता है। वे बालक अन्य बालकों की तुलना में अधिक रोते हैं जो क्रन्दन को अपनी आवश्यकता पूर्ति का साधन समझते हैं।

शिशु क्रन्दन में शारीरिक स्थितियाँ

सभी बालकों का रोने का स्वरूप समान नहीं होता है कुछ बालक अधिक रोते हैं जबकि कुछ बालक कम। मनोवैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि जो गर्भवती मातायें गर्भावस्था में संवेगात्मक रूप से अस्थिर रहती हैं जन्म के पश्चात् उनके शिशुओं के क्रन्दन की प्रवृत्ति अधिक होती है। इसके विपरीत संवेगात्मक रूप से सन्तुलित गर्भवती माताओं के शिशु कम रोते हैं। रोते समय बालकों की आन्तरिक तथा बाह्य शारीरिक स्थितियों में परिवर्तन आ जाता है जो बच्चे जितनी अधिक तेजी से रोते है उनकी शारीरिक क्रियायें जैसे-हाथ-पैर पटकना, शरीर को पलटना, उतनी ही तीव्र होती है इसके अतिरिक्त रोते समय चेहरा लाल हो जाता है, साँस की गति अनियमित तथा अनियन्त्रित हो जाती है। एक माह से अधिक आयु के शिशु की आँखों से आंसू भी निकलते हैं। आयु वृद्धि के साथ-साथ बालक के क्रन्दन में कमी आती जाती है।

(ii) बलबलाना (Babbling)

आयु वृद्धि के साथ-साथ बच्चों का रोना कम हो जाता है किन्तु उनके स्थान पर शिशु अस्पष्ट ध्वनियाँ निकालने लगता है जिसे ‘बलबलाना’ कहते हैं। बलबलाने से ही बालक में शब्दोच्चारण का विकास होता है। पहले माह में अन्त से ही बालक कुछ सरल ध्वनियाँ निकालने लगता है। स्पष्ट बलबलाहट दो माह की आयु से प्रारम्भ हो जाती है और लगभग 10 वर्ष की आयु तक चलती रहती है। बलबलाने से बालक का स्वरयन्त्र (larynx) परिपक्व होता है। बलबलाने की प्रारम्भिक अवस्था में बालक एक ही ध्वनि की पुनरावृत्ति करता है।

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प्रारम्भ में बालक स्वरों को फिर बाद में व्यंजनों को उच्चारित करता है। ध्वनियों का उच्चारण बालक अन्य लोगों द्वारा बोले गये शब्दों को सुनकर करता है। प्रारम्भ में जब वह स्वरों को दुहराता है तो उसे आनन्द की अनुभूति होती है, जैसे-वह प्रारम्भ में बा, भा, पा, ना आदि स्वरों को दुहराता है तो उन्हीं से बाद में बाबा, मामा, पापा, नाना आदि शब्दों का विकास होता है। बलबलाने की क्रिया अनुकरण पर आधारित होती है। बालक अपने माता-पिता तथा आसपास रहने वाले व्यक्तियों के द्वारा बोले गये शब्दों का निरन्तर अनुकरण करता रहता है और फिर स्वयं भी उन्हीं ध्वनियों को दोहराता है। धीरे धीरे सम्बद्धता (conditioning) के आधार पर इन शब्दों का अर्थ भी समझने लगता है।

(iii) हावभाव (Gestures)

हावभाव से तात्पर्य है कि अपने विभिन्न शारीरिक अंगों के माध्यम से अपने विचारों को प्रदर्शित करना। बालक के भाषा विकास में हावभाव भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। बालकों द्वारा हावभाव का प्रदर्शन भाषा के पूरक के रूप में किया जाता है। बच्चों में हावभाव की उत्पत्ति बलबलाने के साथ-साथ ही हो जाती है। बच्चा अपने हावभावों का प्रदर्शन, मुस्कराकर, हाथ फैलाकर, उँगली दिखाकर, मूक भाषा में व्यक्त करता है। अतः बच्चों के लिए हावभाव, विचारों की अभिव्यक्ति का एक सुगम साधन है जो शब्दों के स्थान पर प्रयुक्त किया जाता है। हावभाव का प्रदर्शन बड़े बालकों द्वारा भी किया जाता है किन्तु बच्चों और बालकों के हावभाव के प्रदर्शन में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। बच्चों का प्रदर्शन मूक होता है जबकि बालकों का प्रदर्शन शब्दों के उच्चारण के साथ उनके अनुसार होता है। जैसे-जैसे बालक का भाषा विकास होता जाता है हाव-भाव का प्रदर्शन कम हो जाता है।

2. आकलन शक्ति का विकास (Development of Comprehension)-


बालकों की वह क्षमता जिसके द्वारा वह दूसरों की क्रियाओं तथा
हावभाव का अनुकरण कर लेता है ‘आकलन शक्ति’ कहलाती है।
हरलॉक के मतानुसार, बालकों में आकलन शक्ति का विकास शब्दों के प्रयोग से पहले प्रारम्भ हो जाता है वह शब्दों को समझना पहले सीखता है और बोलना बाद में। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशुओं में तीन चार माह की आयु से आकलन शक्ति का विकास प्रारम्भ हो जाता है। चार माह का शिशु माँ को पहचानकर मुस्कराने लगता है। 7-8 माह का बालक शब्दों का अनुसरण करने लगता है और एक वर्ष का बालक सरल निर्देशों को समझने लगता है। पाँच वर्ष की अवस्था में आकलन शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है।

3. शब्द प्रयोग (Vocabulary)

आयु वृद्धि और आकलन शक्ति के विकास से बालक का शब्द भण्डार बढ़ता है। प्रारम्भ में वह संज्ञाओं (nouns) का प्रयोग करता है। दो वर्ष का बालक लगभग 50% संज्ञा शब्द बोल लेता है। दो संज्ञा शब्द खिलौनों, खाने-पीने की चीजों, वस्त्रों और व्यक्तियों से सम्बन्धित होते हैं। सबसे पहले बालक साधारण क्रिया सूचक शब्दों, जैसे-आओ, जाओ, खाओ, लो, दो का प्रयोग करता है। शिशु केवल इन शब्दों का प्रयोग ही नहीं करता अपितु उनका अर्थ भी समझता है। डेढ वर्ष की अवस्था में वह विशेषण शब्दों (adjectives) का प्रयोग भी करने लगते है। ये विशेषण शब्द भोज्य पदार्थों और खिलौनों से सम्बन्धित होते हैं।

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प्रारम्भ में बालकों द्वारा अच्छा, बुरा, गरम, ठंडा आदि विशेषण शब्दों का प्रयोग किया जाता है। सर्वनाम शब्दों का प्रयोग बालक तीन वर्ष की अवस्था में करने लगता है। प्रारम्भ में मैं, मेरा, तू,तेरा, यह, वह, तुम, तुझे, उसका, उसे आदि सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है किन्तु प्रारम्भ में उसे यह ज्ञान नहीं होता है कि उसे कौन-सा शब्द कब बोलना चाहिए। अन्य प्रकार के शब्दों का प्रयोग वह पाँच-छ: वर्ष की अवस्था में करता है। बालकों के शब्द भण्डार के रूप बालकों का शब्द भण्डार दो प्रकार का माना गया है-

1. सामान्य शब्द भण्डार (General Vocabulary)

बालक सामान्य परिस्थितियों में जिन शब्दों का प्रयोग करता है वे उसके सामान्य शब्द कहलाते हैं। ये शब्द संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया सम्बन्धी होते हैं, जैसे-लेना, देना, आना, जाना, अच्छा, बुरा, मामा. नाना, पापा आदि।

2. विशिष्ट शब्द भण्डार (Special Vocabulary)

विशिष्ट शब्द भण्डार के अन्तर्गत वे शब्द आते हैं जिन्हें बालक विशेष अवसरों पर बोलता है। अधिकांशतः तीन चार वर्ष की आयु में बालक विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग करने लगता है। पाँच-छ: वर्षों में विशिष्ट शब्दावली का काफी मात्रा में विकास हो जाता है। बालकों की विशिष्ट शब्दावली अनेक रूपों में प्रकट होती है।


(i) शिष्टाचार के शब्द (Etiquette Vocabulary)
(ii) संख्यात्मक शब्द (Number Vocabulary)
(iii) रंगों से सम्बन्धित शब्द (Colour Vocabulary)
(iv) समय सम्बन्धी शब्द (Time Vocabulary)
(v) धन से सम्बन्धित शब्द (Money Vocabulary)
(vi) अशिष्ट शब्द (Slong Vocabulary)

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