बाल विकास का अर्थ और परिभाषाएं / बाल विकास की आवश्यकता तथा क्षेत्र

दोस्तों अगर आप बीटीसी, बीएड कोर्स या फिर uptet,ctet, supertet,dssb,btet,htet या अन्य किसी राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आप जानते हैं कि इन सभी मे बाल मनोविज्ञान विषय का स्थान प्रमुख है। इसीलिए हम आपके लिए बाल मनोविज्ञान के सभी महत्वपूर्ण टॉपिक की श्रृंखला लाये हैं। जिसमें हमारी साइट istudymaster.com का आज का टॉपिक बाल विकास का अर्थ और परिभाषाएं / बाल विकास की आवश्यकता तथा क्षेत्र है।

बाल विकास का अर्थ और परिभाषाएं / बाल विकास की आवश्यकता तथा क्षेत्र

बाल विकास का अर्थ और परिभाषाएं / बाल विकास की आवश्यकता तथा क्षेत्र
बाल विकास का अर्थ और परिभाषाएं / बाल विकास की आवश्यकता तथा क्षेत्र

meaning of child development / बाल विकास का अर्थ

हरलॉक महोदय ने बाल विकास सम्बन्ध में कहा है कि “बाल मनोविज्ञान का नाम बाल विकास इसलिए रखा गया क्योंकि विकास के अन्तर्गत अब बालक के विकास के समस्त पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है, किसी एक पक्ष पर नहीं।” बालक के जीवन का प्रारम्भ जन्म से नहीं होता है बल्कि जीवन का प्रारम्भ गर्भधारण (Conception) के समय से होता है। मानव का विकास यद्यपित जीवन-पर्यन्त चलता रहता है, परन्तु ‘बाल विकास में परिपक्वतावस्था तक होने वाले विकासों का ही अध्ययन किया जाता है।’

बाल विकास का अध्ययन करने के लिये ‘विकासात्मक मनोविज्ञान की एक अलग शाखा बनाई गयी जो बालकों के व्यवहारों का अध्ययन गर्भावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त तक करती है। परन्तु वर्तमान समय में इसे बाल विकास’ (Child Development) में परिवर्तित कर दिया गया क्योंकि बाल मनोविज्ञान में केवल बालकों के व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है जबकि बाल विकास के अन्तर्गत उन सभी तथ्यों का अध्ययन किया जाता है जो बालकों के व्यवहारों को एक निश्चित दिशा प्रदान कर विकास में सहायता प्रदान करते हैं। बाल मनोविज्ञान बालक की क्षमताओं का अध्ययन करता है जबकि बाल विकास ‘क्षमताओं के विकास की दशा’ का अध्ययन करता है।

बाल विकास की परिभाषाएं

कुछ विद्वानों ने बाल विकास को इस प्रकार से परिभाषित किया है-

(1)हरलाक के अनुसार, “विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नही है, वरन वह व्यवस्थित तथा समनुगत परिवर्तन हैं।”

(2) मुनरो के अनुसार,“ विकास परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था, जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है।”

(3) गैसेल के अनुसार,“ मानव विकास एक निश्चित क्रम में होता है।”

(4) कुप्पूस्वामी के अनुसार,“ विकास मस्तिकाधोमुखी और निकट-दूर क्रम में होता है।”

(5) क्रो एण्ड क्रो के अनुसार,“ मनुष्य सर्वप्रथम एक सामाजिक प्राणी है।”

(6) स्किनर के अनुसार,“ विकास प्रक्रियाओं की निरन्तरता का सिद्धान्त केवल इस तथ्य पर बल देता है कि व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नही होता है।”

(7) टॉयलर के अनुसार,“ विकास एक ही दिशा की ओर जाने वाला रस्ता है।”

(8) क्रो एण्ड क्रो के अनुसार-“बाल विकास वह विज्ञान है जो बालक के व्यवहार का अध्ययन गर्भावस्था से मृत्युपर्यन्त तक करता है।

(9) डार्विन के अनुसार-“बाल विकास व्यवहारों का वह विज्ञान है जो बालक के व्यवहार का अध्ययन गर्भावस्था से मृत्युपर्यन्त तक करता है।”

(10) हरलॉक के अनुसार-“बाल विकास मनोविज्ञान की वह शाखा है जो गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त तक होने वाले मनुष्य के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करता है।”

(11) ड्रेवर (Drever) के अनुसार, “विकास, प्राणी में होने वाला प्रगतिशील परिवर्तन है,जो किसी लक्ष्य की ओर लगातार निर्देशित होता रहता है।”

(12) मुनरो (Munroe) का कथन है, “परिवर्तन शृंखला की उस अवस्था को जिसमें बालक भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहा जाता है।”

जैसा कि सर्वविदित है कि व्यक्ति में गर्भ स्थिति से लेकर मृत्युपर्यन्त तक परिवर्तन होते रहते हैं। बालक जन्म लेने के पश्चात् शैशवास्था में प्रवेश करता है, उसके बाद बाल्यावस्था, किशोरावस्था और प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करता है। व्यक्ति में उपरोक्त सभी अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है, जिनका प्रमुख आधार अभिवृद्धि और विकास होता है।

बाल विकास की आवश्यकता (Need of Child Development)

एक शिक्षक बाल विकास के अध्ययन के बिना अपने शिक्षण को प्रभावी नहीं बना सकता है इसी कारण बाल विकास की आवश्यकता और अधिक बढ़ जाती है। हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझ सकते है कि बाल विकास या बाल मनोविज्ञान की क्या आवश्यकता है –

बाल विकास अध्यापकों के लिये निम्न प्रकार आवश्यक है-

(1) बालकों की मनोरचना पता करने हेतु-  कोई भी दो बालक एक समान नहीं हो सकते उन सभी की मनोरचना, मस्तिष्क रचना भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। लेकिन शिक्षक को यह नहीं प्राप्त है कि प्रत्येक बालक को अलग-अलग उसकी मनोरचना के अनुसार शिक्षा प्रदान करें। अधिकांश सामूहिक रूप में कक्षाओं में अध्यापन करना पड़ता है, यद्यपि कि सामूहिक कक्षाओं में भी बालक की वैयक्तिक भिन्नता को समाप्त नहीं किया जा सकता है। ऐसी दशा में शिक्षक मनोविज्ञान का अध्ययन करके अध्यापन की एक सर्व उपयोगी पद्धति की जानकारी प्राप्त करके शिक्षण करता है ताकि सभी छात्रों को उसका लाभ मिल सके।

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(2) बाल विकास प्रक्रिया को समझाने में सहायक-प्रत्येक बालक का विकास अपने अनुसार विभिन्न सिद्धान्तों व नियमों के अनुसार होता है। बच्चे का विकास व्यक्तिगत रूप से होता है और बालक विभिन्न प्रकार की  क्षमताओं को ग्रहण करता है। बाल विकास के अध्ययन से अपना शिक्षण विकास प्रक्रिया क्षमताओं का प्रयोग बालक के अधिगम के रूप में कर सकेगा ।

(3) बाल निर्देशन व परामर्श में सहायक-बाल मनोविज्ञान के अध्ययन से शिक्षक छात्र की क्षमताओं व रुचियों का ज्ञान प्राप्त करके उनकी आगे की पढ़ाई करने में सहायक होता है। इससे छात्र के भकटने तथा समय व श्रम के बर्बादी की सम्भावना नहीं होती है।

(4) बालकों के प्रति भविष्यवाणी करने में सहायक- इसकी सहायता से  शिक्षक बाल मनोविज्ञान का अध्ययन करके उसके भविष्य के प्रति अनुमान लगा सकता है, जिससे छात्रों के व्यवसाय के चयन में थोड़ी आसानी हो जाएगी।

(5) बाल व्यवहार का मार्ग तय करने में और उसके नियंत्रण में सहायक- कभी ऐसा हो कसता है कि  बालक ऐसा व्यवहार कर दे जो न सिर्फ बालक अपितु समाज के प्रति भी अच्छा नहीं होता है, ऐसी दशा में बालक के व्यवहार व्यवहरण की दिशा बदल कर उसको रचनात्मक बनाया जा सकता है। बाल मनोविज्ञान के अध्ययन से शिक्षक के अन्दर ऐसा कौशल आ जाता है और वह बाल व्यवहार पर नियन्त्रण कर सकता है।

(6) व्यक्तिगत भिन्नता का ज्ञान-विश्व के कोई भी दो प्राणी पूर्णतया (सर्वांग) एक समान नहीं होते हैं। उनमें भिन्नता अवश्य रहती है,ऐसी दशा में उन भिन्नताओं की शैक्षिक योजना करना एक सामान्य शिक्षक द्वारा कठिन होता है। बाल मनोविज्ञान का ज्ञाता शिक्षक वैयक्तिक भिन्नताओं को जानकर उसके बाद अपने शिक्षण कौशल की योजना बनाकर सभी छात्रों को लाभ पहुंचाता है।

(7) कक्षा में शिक्षण व अधिगम का वातावरण बनाने में सहायक-बाल मनोविज्ञान के ज्ञान से शिक्षक यह जान पाने में समर्थ होता है कि कक्षा में कब तथा क्या पढ़ाया जाये, जिसे सभी छात्र रुचिपूर्वक सीख सकें। कब, क्या और कैसे पढ़ाया जाये इसका ज्ञान बाल मनोविज्ञान द्वारा ही सम्भव होता है।

(8) अनुशासन में सहायक-कक्षा में अनुशासन भी शिक्षण कौशल की एक कला है। अब अनुशासन के लिए डॉट-फटकार,शारीरिक दण्ड व मानसिक प्रताड़ना की अवधारणा को नकार दिया गया है,क्योंकि कक्षा के सभी छात्रों को दण्ड देकर अनुशासित करना सम्भव भी नहीं है। ऐसी दशा में मनोविज्ञान के प्रभाव से कक्षा में अनुशासन स्थापित किया जा सकता है, जो शिक्षक द्वारा मनोविज्ञान से ही सम्भव है।

(9) विशेष आवश्यकता वाले बालकों के शिक्षण में सहायक-कक्षा में शारीरिक व मानसिक रूप से सभी बालक एक स्तर के नहीं होते हैं। इनमें कुछ शारीरिक व मानसिक रूप से (बुद्धिलब्धि की दृष्टि से) कम या ज्यादा होते हैं, कभी-कभी तो इतना अन्तर हो जाता है कि सभी को एक साथ एक कक्षा में बैठाकर शिक्षण करना सम्भव नहीं होता। ऐसी दशा में बाल मनोविज्ञान का ज्ञाता शिक्षक शिक्षण में समायोजन करके विशिष्ट बालकों की आवश्यकतानुसार शिक्षण उद्याम करता है।

(10) बाल विकास की प्रक्रिया एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस सृष्टि में प्रत्येक प्राणी प्रकृति द्वारा प्रदत्त अनुकूलन परिस्थितियों से उत्पन्न होता है उत्पन्न होने तथ गर्भ धारण की दशाएँ सभी प्राणियों की पृथक्-पृथक् हैं। बाद में मनुष्य अपने परिवार में विकास एवं वृद्धि को प्राप्त करता है। प्रत्येक बालक के विकास की प्रक्रिया एवं वृद्धि में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। किसी बालक की लम्बाई कम होती है तथा किसी बालक की लम्बाई अधिक होती है।

किसी बालक का मानसिक विकास तीव्र गति से होता है तथा किसी बालक का विकास मन्द गति से होता है। इस प्रकार की अनेक विभिन्नताएँ बाल विकास से सम्बद्ध होती हैं। मनोवैज्ञानिकों द्वारा इस प्रकार की विभिन्नताओं के कारण एवं उनके समाधान पर विचार-विमर्श किया गया तो यह तथ्य दृष्टिगोचर हुआ कि बाल विकास की प्रक्रिया को वे अनेक कारण एवं तथ्य प्रभावित करते हैं, जो कि उसके परिवेश से सम्बन्धित होते हैं। इस प्रकार बाल मनोविज्ञान के क्षेत्र में बाल विकास की आवश्यकता का जन्म हुआ।

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इस सम्प्रत्यय में मनोवैज्ञानिकों द्वारा बाल विकास को अध्ययन का प्रमुख बिन्दु मानते हुए उन समाधानों को खोजने का प्रयत्न किया, जो कि सन्तुलित बाल विकास में अपना योगदान देते हैं। बाल विकास की प्रक्रिया को भी इस अवधारणा में समाहित किया गया। शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु भी बाल विकास के सम्प्रत्यय का ज्ञान आवश्यक माना गया। इसलिये वर्तमान समय में यह अवधारणा आवश्यक, महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी सिद्ध हुई है।

बाल विकास के क्षेत्र
( Scopes of Child Development)

इसका क्षेत्र अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह बालक के विकास के सभी आयामो, स्वरूपों, असामान्यताओं, शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों तथा उनको प्रभावित करने वाले तत्वों जैसे परिपक्वता और शिक्षण, वंशानुक्रम और वातावरण आदि सभी का अध्ययन करता है। वर्तमान समय में यह इतना अधिक महत्वपूर्ण विषय हो गया है कि दिनों दिन इसका विस्तार बढ़ता जा रहा है। बाल विकास के क्षेत्र को हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझ सकते हैं –

1.बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन -प्राणी के जीवन प्रसार में अनेकों अवस्थायें होती हैं। जैसे-गर्भकालीन अवस्था, शैशवावस्था, बचपनावस्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था । बाल विकास केवल बाल्यावस्था का ही अध्ययन नहीं करता अपितु विकास क्रम की सभी अवस्थाओं के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्नक, बौद्धिक आदि सभी पहलुओं का अध्ययन करता है।

2.बाल विकास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन – बाल विकास, विकास के किसी एक ही क्षेत्र से सम्बन्धित नहीं होता है। इसके अन्तर्गत विकास के विभिन्न पहलुओं, जैसे-शारीरिक विकास, मानसिक विकास, संवेगात्मक विकास,सामाजिक विकास, क्रियात्मक विकास, भाषा विकास, नैतिक विकास,चारित्रिक विकास और व्यक्तित्व विकास सभी का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया जाता है।

3. बालकों की विभिन्न असामान्यताओं का अध्ययन -बाल विकास के अन्तर्गत केवल सामान्य बालकों के विकास का ही अध्ययन नहीं किया जाता बल्कि बालकों के जीवन विकास क्रम में होने वाली असामान्यताओं और विकृतियों का भी अध्ययन किया जाता है। बाल विकास, असन्तुलित व्यवहारों, मानसिक विकारों, बौद्धिक दुर्बलताओं तथा बाल अपराधों के कारणों को जानने का प्रयास करता है और निराकरण हेतु उपाय भी बताता है।

4. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन – बाल विकास केवल मानसिक दुर्बलताओं और रोगों का ही अध्ययन नहीं करता बल्कि विभिन्न मनोवैज्ञानिक तरीकों से उनके उपचार भी प्रस्तुत करता है। मनोचिकित्सा बाल मनोविज्ञान और बाल विकास की ही देन है।

5. बालकों की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन – बाल विकास बालकों के बौद्धिक विकास की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं जैसे-अधिगम, कल्पना, चिन्तन,तर्क, स्मृति तथा प्रत्यक्षीकरण आदि का अध्ययन करता है। बाल विकास यह जानने का प्रयास करता है कि विभिन्न आयु स्तरों में इन मानसिक प्रक्रियायें किस रूप में पायी जाती हैं और इनके विकास की गति क्या होती है? इसी के आधार पर मानसिक प्रक्रियाओं का विकास किया जाता है।

6.बालकों की वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन –  शारीरिक विकास में कुछ बालक अधिक लम्बे, कुछ नाटे तथा कुछ सामान्य लम्बाई के होते हैं। इसी प्रकार मानसिक विकास में भी कुछ प्रतिभाशाली, कुछ सामान्य और कुछ मन्द बुद्धि होते है। इसी प्रकार कुछ बालक सामाजिक तथा बहिर्मुखी होते हैं जबकि कुछ अन्तर्मुखी। बाल विकास वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन कर उन कारणों को जानने का प्रयास करता है, जिससे सामान्य विकास प्रभावित हुआ है।

7. बालकों के व्यक्तित्व का मूल्यांकन – बाल विकास के अन्तर्गत बालकों की विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्यताओं का मापन व मूल्यांकन किया जाता है। योग्यताओं के मापन व मूल्यांकन के लिये बाल विकास के क्षेत्र में मनोवैज्ञानिकों द्वारा नित नये वैज्ञानिक तथा प्रमापीकृत परीक्षणों का निर्माण किया जाता है।

8. बालकों की रुचियों का अध्ययन – बाल विकास बालकों की रुचियों का अध्ययन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करता है। रुचियाँ एक अर्जित व्यवहार है जो जन्मजात नहीं होती हैं बल्कि सीखी जाती है। रुचियाँ कार्य की प्रगति में प्रेरणा का कार्य करती हैं और लक्ष्य की पूर्ति को आसान बनाती है। यदि बालक को किसी कार्य में रुचि होती है तो वह उसे शीघ्रता से अधिक मनोयोग के साथ पूरा कर लेता है।

9. संवेगात्मक विकास एवं सामाजिक विकास में सहायक – यदि बालक अपनी आयु के अनुसार संवेगों को प्रकट नहीं कर रहा है तो उसका संवेगात्मक विकास उचित रूप में नहीं हो रहा है। सामाजिक व्यवहार के अन्तर्गत परिवार के सदस्यों को पहचानना, उनके प्रति क्रोध एवं प्रेम की प्रतिक्रिया व्यक्त करना, परिचितों से प्रेम तथा अन्य से भयभीत होना एवं बड़े अन्य व्यक्तियों के कार्यों में सहायता देना आदि को सम्मिलित किया गया है। बाल विकास के अध्ययन से हम बालक के संवेगात्मक विकास एवं सामाजिक विकास को और अधिक प्रभावी बना सकते हैं।

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10. चारित्रिक विकास एवं भाषा विकास में सहायक – इसके अन्तर्गत बालकों के शारीरिक अंगों के प्रयोग, सामान्य नियमों के ज्ञान, अहंभाव की प्रबलता, आज्ञा पालन की प्रबलता, नैतिकता का उदय एवं कार्यफल के प्रति चेतनता की भावना आदि को सम्मिलित किया जाता है। बालकों के भाषायी विकास का अध्ययन भी बाल विकास के अन्तर्गत आता है। बालक अपनी आयु के अनुसार विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ एवं शब्दों का उच्चारण करता है। जैसे-1 वर्ष से 1 वर्ष 9 माह तक के बालक की शब्दोच्चारण प्रगति लगभग 118 शब्द के लगभग होनी चाहिये। यदि शब्दोच्चारण की प्रगति इससे कम है तो बालक का भाषायी विकास उचित रूप में नहीं हो रहा है।बाल विकास के अध्ययन से हम बालक के चारित्रिक विकास एवं भाषा विकास को और अधिक प्रभावी बना सकते हैं।

11. सृजनात्मकता और सौन्दर्य सम्बन्धी विकास में सहायक – बालकों की सृजनात्मकता का विकास भी बाल विकास की परिधि में आता है। बाल कल्पना के विविध स्वरूपों के आधार पर सृजनात्मक विकास के स्वरूप को निश्चित किया जाता है। बालकों को अनेक प्रकार की कविताओं में सौन्दर्य की अनुभूति होती है। वह कविताओं के भाव को ग्रहण करने की चेष्टा करता है।बाल विकास के अध्ययन से हम बालक के सृजनात्मकता और सौन्दर्य सम्बन्धी विकास को और अधिक प्रभावी बना सकते हैं।

बाल विकास के सिद्धान्त (Principles of Child Development)

1.निरन्तर विकास का सिद्धान्त
2. विकास की विभिन्न गति का सिद्धान्त
3. विकास-क्रम का सिद्धान्त
4. विकास-दिशा का सिद्धान्त
5. एकीकरण का सिद्धान्त
6. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त
7. वैयक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धान्त
8. समान प्रतिमान का सिद्धान्त
9. सामान्य व विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धान्त
10. वंशानुक्रम व वातावरण की अन्तःक्रिया का सिद्धान्त

बाल विकास का कारण (Causes of Development)

मनोवैज्ञानिकों ने विकास के अग्रांकित कारण बतायें हैं-

(1) परिपक्वन- परिपक्वन का तात्पर्य व्यक्ति के आन्तरिक अंगों के प्रौढ़ होने से है और उन गुणों के विकसित होने से है, जो उसे वंश परम्परा से प्राप्त होते हैं। बालक के विकास में परिपक्वन की प्रक्रिया का प्रभाव जन्म से लेकर तब-तक पड़ता है, जब तक कि मांसपेशीय एवं स्नायुविक दृढ़ता और प्रौढ़ता पूरी तरह प्राप्त नहीं हो जाती।

(2) जीवन-शक्ति और अन्तःप्रेरणा- हर व्यक्ति में अपना आनुवंशिक प्रदाय होता है और वह उसी परिवेश में जन्म लेता है और उसी परिवेश से प्रेरित होकर जीवन धारण किये हुए आगे बढ़ता है। प्रो० नन ने लिखा है कि, “जीवन शक्ति के कारण ही बालक पूर्ण मनुष्य बन जाता है।”

(3) अधिगम- “यह वह प्रक्रिया है जो अभ्यास, चुनाव, निर्देशन और प्रयोजन से पूर्ण होती है। ” “Learning is that activity which has practice, selectivity, direction and purpose.”

(4) सक्रियता- परिपक्वन और अधिगम की क्रियाओं के परस्पर सक्रिय होने से भी विकास की प्रक्रिया को गति मिलती है, और परिणामतः व्यक्ति आगे बढ़ता है।

(5) संघर्ष- विकास का कारण है, जीवन का संघर्ष और संघर्ष में सफलता (Struggle for existence and success in the struggle) जैसा कि डार्विन और विकासवादियों का विचार है।

बाल विकास की अवस्थाएं

1. शैशवावस्था (Infaney)-जन्म से 5 या 6 वर्ष तक।
2. बाल्यावस्था (Childhood)-5 या 6 वर्ष से 12 वर्ष तक।
3. किशोरावस्था (Adolescence)-12 वर्ष से 18 वर्ष तक।
4. प्रौढ़ावस्था (Adulthood)-18 वर्ष के पश्चात्।


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