बाल विकास के सिद्धांत / बाल विकास के सिद्धांतों का शैक्षिक महत्व

दोस्तों अगर आप बीटीसी, बीएड कोर्स या फिर uptet,ctet, supertet,dssb,btet,htet या अन्य किसी राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आप जानते हैं कि इन सभी मे बाल मनोविज्ञान विषय का स्थान प्रमुख है। इसीलिए हम आपके लिए बाल मनोविज्ञान के सभी महत्वपूर्ण टॉपिक की श्रृंखला लाये हैं। जिसमें हमारी साइट istudymaster.com का आज का टॉपिक बाल विकास के सिद्धांत / बाल विकास के सिद्धांतों का शैक्षिक महत्व है।

बाल विकास के सिद्धांत / बाल विकास के सिद्धांतों का शैक्षिक महत्व

बाल विकास के सिद्धांत / बाल विकास के सिद्धांतों का शैक्षिक महत्व
बाल विकास के सिद्धांत / बाल विकास के सिद्धांतों का शैक्षिक महत्व

Principles of Child Development / बाल विकास के सिद्धान्त

1.निरन्तर विकास का सिद्धान्त
2. विकास की विभिन्न गति का सिद्धान्त
3. विकास-क्रम का सिद्धान्त
4. विकास-दिशा का सिद्धान्त
5. एकीकरण का सिद्धान्त
6. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त
7. वैयक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धान्त
8. समान प्रतिमान का सिद्धान्त
9. सामान्य व विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धान्त
10. वंशानुक्रम व वातावरण की अन्तःक्रिया का सिद्धान्त

बाल विकास का अध्ययन एक शिक्षक के लिए बहुत ही आवश्यक होता है। बाल विकास के द्वारा ही शिक्षक बालक से जुड़ी विभिन्न समस्याओं का हल प्राप्त कर पाता है। बाल विकास शिक्षक के शिक्षण कार्य को आसान बनाती है। बाल विकास के कुछ सिद्धांत भी हैं जिन्हें हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से विस्तार से जान सकते हैं –

1.निरन्तर विकास का सिद्धान्त (Principle of Continuous Growth)

इस सिद्धान्त के अनुसार, विकास की प्रक्रिया बिना रुके गति से निरन्तर चलती रहती है। यह गति कभी तेज और कभी मन्द होती है। जैसे फल 3 वर्षों में बालक के विकास की प्रक्रिया बहुत तेज रहती है और उसके बाद मन्द पड़ जाती है।

2. विकास की विभिन्न गति का सिद्धान्त (Principle of Different Rate of Growth)

डगलस एवं हालैण्ड ने इस सिद्धान्त का स्पष्ट करते हुए लिखा है-विभिन्न व्यक्तियों के विकास की गति में विभिन्नता होती है और यह विभिन्नता विकास के सम्पूर्ण काल में यथावत् बनी रहती है। उदाहरणार्थ, जो व्यक्ति जन्म के समय लम्बा होता है, वह साधारणतः बड़ा होने पर भी लम्बा रहता है और जो छोटा होता, वह साधारणतः छोटा रहता है।

3. विकास-क्रम का सिद्धान्त (Principle of Developmental Sequence)

इस सिद्धान्त के अनुसार बालक का गामक (Motor) और भाषा-सम्बन्धी आदि विकास एक निश्चित क्रम में होता है। शर्ले, गेसेल, पियाजे, एमिस आदि की परीक्षाओं ने यह बात सिद्ध कर दी है। बालक जन्म के समय वह केवल रोना जानता है। 3 माह में वह गले से एक विशेष प्रकार की आवाज निकालने लगता है। 6 माह में वह आनन्द की ध्वनि करने लगता है। 7 माह में वह अपने माता-पिता के लिए पा ‘बा’, ‘दा आदि शब्दों का प्रयोग करने लगता है।

4. विकास-दिशा का सिद्धान्त (Principle of Development Direction)

इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक का विकास सिर से पैर की दिशा में होता है। उदाहरणार्थ, अपने जीवन के प्रथम सप्ताह में बालक केवल अपने सिर को उठा पाता है। पहले 3 माह में वह अपने नेत्रों की गति पर नियंत्रण करना सीख जाता है। 6 माह में वह अपने हाथों की गतियों पर अधिकार कर लेता है। 8 माह में वह सहारा लेकर बैठने लगता है। 10 माह में वह स्वयं बैठने और घिसट कर चलने लगता है। एक वर्ष का हो जाने पर उसे अपने पैरों पर नियंत्रण हो जाता है और वह खड़ा होने लगता है। इस प्रकार, जो शिशु अपने जन्म के प्रथम सप्ताह में केवल अपने सिर को उठा पाला था, वह एक वर्ष बाद खड़ा होने और 18 माह के बाद चलने लगता है।

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5. एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration)

इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक पहले सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। उसके बाद, वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है, उदाहरणार्थ, वह पहले पूरे हाथ को, फिर अंगुलियों को और फिर हाथ एवं अंगुलियों को एक-साथ चलाना सीखता है।

6. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Interelation)

इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक आदि पहलुओं के विकास में परस्पर सम्बन्ध होता है, उदाहरणार्थ, जब बालक के शारीरिक विकास के साथ-साथ उसकी रुचियों, ध्यान के केन्द्रीयकरण और व्यवहार में परिवर्तन होते हैं, तब साथ-साथ उसमें गामक और भाषा-सम्बन्धी विकास भी होता है।

7. वैयक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)-

इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक बालक और बालिका के विकास का अपना स्वयं का स्वरूप होता है। इस स्वरूप में वैयक्तिक विभिन्नतायें पायी जाती हैं। एक ही आयु के दो बालकों और दो बालिकाओं या एक बालक और एक बालिका के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि विकास में वैयक्तिक विभिन्नताओं की उपस्थिति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।

8. समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of uniform Pattern)

इस सिद्धान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए हरलॉक (Hurlock) ने लिखा है-“प्रत्येक जाति, चाहे वह पशुजाति हो या मानवजाति, अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है। उदाहरणार्थ, संसार के प्रत्येक भाग में मानव-जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है और उसमें किसी प्रकार का अन्तर होना सम्भव नहीं है!

9. सामान्य व विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General and Specific Responses)

इस सिद्धान्त के अनुसार बालक का विकास सामान्य प्रतिक्रियाओं की ओर होता है, उदाहरणार्थ, नवजात शिशु अपने शरीर के किसी एक अंग का संचालन करने से पूर्व अपने शरीर का संचालन करता है और किसी विशेष वस्तु की ओर इशारा करने से पूर्व अपने हाथों को सामान्य रूप से चलाता है।

10. वंशानुक्रम व वातावरण की अन्तःक्रिया का सिद्धान्त (Principles of Interaction of Heredity and Environment)

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास केवल वंशानुक्रम से ही नही होता है और न ही केवल वातावरण से होता है बल्कि बालक का विकास वातावरण एवं वंशानुक्रम इन दोनों के अंतः क्रिया से होता है।

बाल विकास के सिद्धान्तों का शैक्षिक महत्व

बाल विकास के उपर्युक्त सिद्धान्तों का शैक्षणिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण स्थान है-

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1. विकास की गति और मात्रा सभी बालकों में एक जैसी नहीं पाई जाती। अतः व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान में रखकर सभी बालकों से एक जैसे विकास की आशा नहीं करनी चाहिए। यदि बालक से अधिक की अपेक्षा की जाएगी तो उसमें अपूर्णता की भावना आ जाएगी तथा कम की अपेक्षा की जाएगी तो उसकी भावनाओं और क्रियाओं को प्रोत्साहन नहीं मिल पाएगा। परिणामतः वह जिन कार्यों को करने की क्षमता उसमें होगी, वह भी ठीक से नहीं कर पाएगा।

2. विकास के सिद्धान्त पाठ्यक्रम निर्माण में बड़े सहायक होते हैं। पाठ्यक्रम इस प्रकार का बनाया जाना चाहिए जिससे बालकों का सभी क्षेत्रों में विकास हो सके। पाठ्यक्रम में पाठ्यसहगामी क्रियाओं का भी आयोजन होना चाहिए। विकास के सिद्धान्तों के ज्ञान के कारण ही बालक की विभिन्न अवस्थाओं के लिए भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रम बनाए जा सकते हैं।

3. विकास के सिद्धान्तों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बालक का विकास सामान्य रूप से हो रहा है या नहीं। इस अनुमान से उनके विकास के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था तथा सहयोग दिया जा सकता है। माता-पिता, अध्यापक बालकों के विकास की दिशाओं को ध्यान में रखते हुए शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उपयुक्त वातावरण एवं साधन प्रदान करने का प्रयत्न कर सकेंगे।

4. विकास किस प्रकार का होता है, इसके ज्ञान से अभिभावक व अध्यापक यह निर्धारित कर सकेंगे कि बालक के विकास के लिए कब अधिक और कब कम प्रयत्न किया जाए। इस प्रकार का ज्ञान बालक के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करने में सहायता देता है। जैसे-जब शिशु चलना आरम्भ कर देता है तब उसे चलने के अभ्यास के लिए पूर्ण अवसर, उपयुक्त वातावरण और उपयुक्त सामग्री प्रदान करना चाहिए। उचित वातावरण के अभाव में या ध्यान न देने पर वह देर से चलना आरम्भ करता है। विकास की प्रत्येक अवस्था की संभावनाएँ और सीमाएँ होती हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि अध्यापक और माता-पिता को बालकों से ऐसा करने की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए जो उनकी विकास की अवस्था से परे है।

5. विकास की अन्तः सम्बद्धता ज्ञान को अन्त सम्बन्धित तरीके करने का संकेत देती है। ऐसा अन्तःसम्बन्धित ज्ञान प्रयोगात्मक भी होना चाहिए। अर्थात् जो कुछ सिखाया उसको व्यावहारिक रूप में करने की शिक्षा भी दी जाए।

6. वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों मिलकर बालक के विकास के लिए उत्तरदायी है, कोई एक नहीं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस बात का ज्ञान वातावरण में आवश्यक सुधार ला कर बालकों को अधिक-से-अधिक कल्याण करने के लिए प्रेरित करता है।

7. प्रथम यह सिद्धान्त हमें जानने में सहायता देता है कि हम विकास के सम्बन्ध में किस आयु के बालक से क्या अपेक्षा (Expect) करें और कब करें? अन्यथा हमारी प्रवृत्ति बालक के एक विशेष अवस्था में अधिक या कम की अपेक्षा करने की होगी। यदि बालक से अधिक अपेक्षा की जाती है तो उसमें अपूर्णता की भावना (Feeling of Inadequacy) आ जाती है, और यदि कम की अपेक्षा की जाती है तो उसकी भावनाओं और क्रियाओं को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता। परिणाम यह होता है कि जिन कार्यों को करने की उसमें क्षमता होती है, उन्हें भी वह नहीं कर पाता।

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8. विकास किस प्रकार होता है? इसके ज्ञान से दूसरा लाभ यह है-बड़ों को यह ज्ञात हो जाता है कि बालक की वृद्धि और विकास के लिए कब अधिक और कब कम प्रयत्न किया जाये। इस प्रकार का ज्ञान बालक के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करने में सहायता देता है। उदाहरणार्थ जब शिशु चलना आरम्भ कर देता है तब उसे चलने के अभ्यास के लिए पूर्ण अवसर, उपयुक्त सामग्री और वातावरण प्रदान करना चाहिए। उचित वातावरण के अभाव में व ध्यान न देने के कारण वह देर से चलना प्रारम्भ करता है।

9. सामान्य विकास का रूप क्या होना चाहिए? इसका ज्ञान प्राप्त करके माता-पिता, शिक्षक तथा अन्य लोग जिन्हें बच्चों के साथ कार्य करना पड़ता है, वे बालकों को भविष्य में होने वाले परिवर्तनों, जो कि शरीर, रुचि और व्यवहार में होंगे, उन सबके लिए तैयार कर सकते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विकास के सिद्धान्तों का शिक्षा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन सिद्धान्तों का शैक्षिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्व है। अतः अभिभावकों एवं शिक्षकों को बालकों के विकास की दिशाओं को ध्यान में रखते हुए उनके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उपयुक्त वातावरण एवं साधन प्रदान करने का प्रयत्न करना चाहिए।



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